सैयद बदरुल अहसन
अगर ताजुद्दीन अहमद लंबे समय तक जीवित रहते, तो बीते रविवार को अट्ठानवे साल के हो गए होते।
Bangladesh First PM:बांग्लादेश के पहले प्रधानमंत्री, देश के युद्धकालीन नेता,ताजुद्दीन अहमद एक ऐसे व्यक्तित्व के स्वामी थे, जिनके भीतर आत्मद्रोह की विशिष्टता थी। अगर वह राजनीति में नहीं होते, तो इसमें कोई शक नहीं कि वह एक उच्च कोटि के लेखक या गहरे राजनीतिक सिद्धांतकार होते। उनके द्वारा कक्षाओं में युवाओं को मार्क्सवाद की प्रकृति और सार के बारे में पढ़ाने का मौक़ा भी मिल सकता था, वास्तव में उन कई तरीकों के बारे में भी जानकारी मिल सकती थी,जिनके ज़रिए राजनीति ने लोगों के जीवन में बेहतरी लाकर साकारात्मक बदलाव किया है।
ताजुद्दीन अहमद के लिए राजनीति ही पहली और एकमात्र प्राथमिकता थी। राजनीति में परिवर्तन का इंजन होने, लोगों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए राजनीतिक नेताओं की शक्ति में उनका विश्वास कभी नहीं डगमगाया। उनकी राजनीति ऐसी थी,जिसमें उन्होंने खुद को आश्वस्त किया और दूसरों को अपने साथ सहमत होने के लिए राज़ी किया,उनका राजनीतिक विचार कुछ इस क़दर था,जिसमें वह मानते थे कि प्रभावशीलता को व्यक्तिगत उदाहरण के माध्यम से प्रदर्शित किया जा सकता था। और अपने जीवन के पचास वर्षों में उन्होंने इसके अनेक उदाहरण स्थापित किये।
युवावस्था में वह राजनीति ही तो थी, जिसने उन्हें लोक कल्याण के विचारों की ओर आकर्षित किया था। उनकी डायरियां राजनीतिक लक्ष्यों के प्रति उनकी बढ़ती प्रतिबद्धता का प्रमाण हैं। अपने पूरे शैक्षणिक जीवन में एक मेधावी छात्र रहे।उन्होंने मनुष्य की स्थिति को थोड़ा बेहतर ढंग से समझने के लिए पूरे शहर में साइकिल चलायी,उनकी रोज़नामचे में शामिल थे-भाषण सुनना, उन लोगों से मिलना, जिनकी वह प्रशंसा करते थे, अपने गांव और अन्य जगहों के साधारण लोगों से बातचीत करना। बाद के वर्षों में मुक्ति के इंजन को उसके गंतव्य तक पहुंचाने के बाद बांग्लादेश को उसकी कठिनाइयों से बाहर निकालने के लिए आवश्यक बलिदानों की बात की गयी। लेकिन, जब संघर्ष चला,तो उनके साथी बंगालियों ने अपनी ग़रीबी भी साझा की ।
ताजुद्दीन का जीवन सिद्धांतों के प्रति एक लंबी, निरंतर प्रतिबद्धता का द्योतक था। उनके पास ऐसे कई अवसर और प्रस्ताव थे, जिनका लाभ वे 1971 के बाद बांग्लादेश में देश को वैकल्पिक नेतृत्व प्रदान करने के लिए उठा सकते थे। लेकिन,ऐसा सोचना ही उनके लिए अभिशाप था, क्योंकि व्यक्तिगत द्वेष के बजाय उन्होंने अपने काम का आधार अपने सिद्धांत को बनाया। बंगबंधु ने उन्हें कैबिनेट छोड़ने के लिए कहा, इस निर्देश का उन्होंने बिना किसी शिकायत के पालन किया। और फिर भी वह राष्ट्रपिता के प्रति अपनी निष्ठा पर दृढ़ रहे। अलग होने के बाद भी ताजुद्दीन और बंगबंधु संपर्क में रहे, इस बात से अवगत रहे कि दूसरा कैसा चल रहा है। बंगबंधु ने जुलाई 1975 में कमल हुसैन को सूचित किया कि ताजुद्दीन सरकार में वापस आ रहे हैं। दोनों व्यक्तियों के लिए त्रासदी रास्ते में आ गयी।
ईमानदारी ताजुद्दीन के चरित्र में थी। मुक्ति संग्राम के दौरान उन्होंने अपने संघर्ष को प्राथमिकता देते हुए अपनी पत्नी से खुद को और अपने बच्चों को उन पचहत्तर लाख अन्य बंगालियों के साथ अपनी पहचान जोड़ने के लिए कहा, जो विदेशी अधीनता के बंधन से मुक्त होने के लिए युद्ध लड़ रहे थे। वह अपने परिवार से प्यार करते थे, लेकिन मृत्यु और विनाश के उन वर्षों में वह अपने देश से कहीं अधिक प्यार करते थे। जब तक मुक्ति नहीं मिल गयी, तबतक वह अपनी पत्नी के पास, अपने बच्चों के पास घर वापस नहीं आये।
ताजुद्दीन ने अपने परिवार को शासन के आड़े नहीं आने दिया। सूचित किया गया कि एक निश्चित सरकारी अधिकारी की उच्च पद पर संभावित पदोन्नति की उन खतरों को ध्यान में रखते हुए समीक्षा करने की आवश्यकता है, जिसमें इस व्यक्ति ने 26 मार्च 1971 के आतंक में ताजुद्दीन की पत्नी और बच्चों को शरण देने या उन्हें आश्रय देने से इनकार करके उजागर कर दिया था,क्योंकि ताजुद्दीन को पता था कि उन्हें क्या करना चाहिए। उन्होंने इस मुद्दे पर गहराई से सोचा और फिर अपने कार्यालय में काम करने वाले नौकरशाहों से चौंकाते हुए कहा कि अधिकारी की पदोन्नति की संभावनायें युद्ध के दौरान ताजुद्दीन के परिवार के प्रति उनकी असंवेदनशीलता के बजाय, उनकी क्षमताओं से निर्धारित होनी चाहिए। किसी को चोट पहुंचाने वाले को माफ करने के लिए परिवार से परे देखने के लिए एक बहादुर आदमी की जरूरत होती है। इस दृष्टि से ताजुद्दीन एक बहादुर व्यक्ति थे।
उनकी बहादुरी तब प्रदर्शित हुई, जब एक प्रतिनिधिमंडल में विदेश यात्रा करते हुए सरकारी अधिकारियों की एक टीम उन वस्तुओं के साथ घर वापस आयी, जिन पर हवाई अड्डे पर सीमा शुल्क का भुगतान करने की आवश्यकता थी। उन्हें लगा था कि वे देश के सर्वोच्च अधिकारी इस उदाहरण में स्वयं बंगबंधु से अपील करके हालात से बाहर निकल सकते हैं। ऐसे में ताजुद्दीन ने बंगबंधु को पत्र लिखकर बताया कि अधिकारियों को सीमा शुल्क से मुक्ति नहीं मिलनी चाहिए,इसकी उन्होंने वजह बतायी। उन्हें अपना माल कब्जे में लेने से पहले हवाई अड्डे पर सीमा शुल्क चुकाना होगा। बंगबंधु वित्त मंत्री से सहमत हुए और फिर शुल्कों का भुगतान किया गया और इसके बाद ही क्लियरेंस दी गयी। ताजुद्दीन अहमद ने अपनी बात रख दी थी।
ऐसा कहा जाता है कि शांत व्यक्ति अविश्वसनीय रूप से साहसी भी होता है। ताजुद्दीन का साहस केवल 25 मार्च 1971 को पाकिस्तान द्वारा शुरू किए गए नरसंहार के शुरुआती स्याह समय तक ही सीमति नहीं था, यह तब भी,जब उन्होंने मुजीबनगर में अपने विरोधियों द्वारा अपने नेतृत्व को चुनौती दी थी। और फिर उन्होंने खोंडोकर मोश्ताक को सितंबर में न्यूयॉर्क की यात्रा करने और संयुक्त राष्ट्र में बांग्लादेश के मुद्दे को खारिज करने से रोकने का साहसिक निर्णय लिया था। यह वही मोश्ताक था, जिससे उसने बीमा राशि की मांग करते हुए पूरी दृढ़ता के साथ बात की थी, जो कि पाकिस्तान युग में हुई थी। एक मंत्री के लिए यह अच्छा नहीं लगेगा कि वह उस पैसे के बारे में चिंता करे, जिसके बिना उसका काम चल सकता है। मुश्ताक के पास कोई जवाब नहीं था।
कथित शक्तिशाली लोगों के सामने भी ताजुद्दीन ने अपने सिद्धांतों को नहीं छोड़ा। वह 1972 में रॉबर्ट मैकनामारा से नहीं मिले। लेकिन, 1974 पूरी तरह से एक अलग प्रस्ताव था। फिर भी, जब दोनों लोग वाशिंगटन में मिले, तो विश्व बैंक से बांग्लादेश की जरूरतों के बारे में मैकनामारा के सवाल के जवाब में ताजुद्दीन के पास देने के लिए दो सुझाव थे। उन्होंने स्तब्ध मैकनामारा से सीधे सामने कहा था, बांग्लादेश को जमीन जोतने के लिए केवल बैलों की जरूरत है – क्योंकि कब्जे वाली सेना ने बहुत से मवेशियों को अपने कब्जे में ले लिया था या 1971 में संघर्ष की गर्मी में भाग गए थे – और उन्हें हल से बांधने के लिए रस्सियों की जरूरत थी।
ताजुद्दीन अहमद को पता था कि अगस्त 1975 में सैनिक उन्हें उनके परिवार से छीन लेंगे,और फिर वह वापस नहीं लौट पायेंगे। जिस रात ढाका सेंट्रल जेल में हत्यारा दस्ता उन्हें और उनके साथियों को पकड़ने आया था, वह शांत थे। वह उस रात मरने वाले मुजीबनगर के चार नेताओं में से आख़िरी थे। गोलियों से छलनी हो जाने के बाद भी उनमें जान बाकी थी, जिसके कारण हत्यारे को वापस लौटकर उन पर बंदूक की नोक का इस्तेमाल करना पड़ गया था।
बांग्लादेश के वह आखिरी शूरवीर, नेतृत्व हमेशा के लिए शांत हो गया था, जिसने इस बंगाली राष्ट्र को आज़ादी दिलायी थी।
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