ढाका: उत्तरी बांग्लादेश के एक विशाल परिसर में अपनी वार्षिक सभा के दौरान अहमदिया मुसलमानों पर हाल ही में हुए नस्लीय हमलों में यह बहाना बनाया गया कि वे ‘मुस्लिम’ नहीं हैं और इस संप्रदाय को ‘ग़ैर-मुस्लिम’ घोषित किया जाना चाहिए।
राजनीतिक इतिहासकार शोधकर्ता और लेखक मोहिउद्दीन अहमद कहते हैं, “हमला करने वाले अपराधी कट्टरपंथी सुन्नी मुसलमान थे।”
सुन्नी बांग्लादेश में बहुसंख्यक हैं,इनकी आबादी लगभग 91 प्रतिशत है। लेखक/शोधकर्ता ने बताया कि पूरे बांग्लादेश में स्थित हज़ारों इस्लामी धर्मशास्त्रीय मदरसों (मदरसों) में रूढ़िवादी वहाबी और सलाफीमहाज़ द्वारा उन्हें शिक्षित किया जाता है और अधिकारी उन्हें धर्मनिरपेक्षता अपनाने के लिए बाध्य नहीं कर सकते हैं।
अहमदिया एक मुस्लिम संप्रदाय है,जो धार्मिक रूप से अल्पसंख्यक समुदाय के लोग हैं और 1913 से पूरे बांग्लादेश में फैला हुए हैं।
अहमदिया वास्तव में रूढ़िवादी सुन्नी मुसलमान हैं और अन्य धर्मों, चिकित्सकों और विश्वासों के प्रति सहिष्णु हैं। वे नियमित रूप से अपनी मस्जिदों में अन्य धार्मिक नेताओं के साथ अंतर-धार्मिक संवाद करते हैं।इसी बात कट्टरपंथी मुसलमानों को मुस्लिम प्रार्थनाओं के लिए सुनिश्चित मस्जिद के रूप में उनके पूजा स्थल को अस्वीकार करने के लिए प्रेरित करती है।
पिछले हफ़्ते अहमदिया मुस्लिम जमात, बांग्लादेश ने ढाका में एक संवाददाता सम्मेलन में नस्लीय दंगों पर नागरिक और पुलिस प्रशासन की जांच पर संतोष व्यक्त किया और कहा कि पुलिस की कार्रवाई उपयुक्त लगती है।
इस संप्रदाय के अनुयायी की मांग है कि सदियों से धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने और सभी धर्मों, जातीय समुदाय और अन्य अल्पसंख्यकों की समान स्थिति का संविधान में गारंटी के रूप में सम्मान किया जाना चाहिए। आज बांग्लादेश में लगभग 100,000 अहमदी रहते हैं।
बांग्लादेश में अहमदिया के प्रवक्ता अहमद तबशीर चौधरी ने पत्रकारों को बताया कि नागरिक प्रशासन और पुलिस की त्वरित कार्रवाई ने पंचागढ़ ज़िले में सैकड़ों लोगों की जान और संपत्ति को बचाया है, जहां वार्षिक ‘सलाना जलसा’ आयोजित किया जाना था।
3 मार्च को शुक्रवार जुम्मे की नमाज़ के बाद जब इस्लामवादियों की पुलिस से झड़प हुई थी, तो तीन दिवसीय वार्षिक समागम को अचानक रद्द कर दिया गया था।
इससे पहले, अहमदिया प्रबंधन को 32 साल से अधिक समय से नाराज़ इस्लामवादियों के साथ आमने-सामने की लड़ाई में कई बार अपनी वार्षिक सभा तक को स्थगित या रद्द करना पड़ा है।
एक ही घंटे के भीतर हिंसा सांप्रदायिक दंगे में बदल गयी और, जिसमें दो व्यक्ति मारे गए, मारे गये लोगों में एक अहमदिया था। दंगाइयों ने लगभग 85 लोगों को गंभीर रूप से घायल कर दिया। प्रदर्शनकारियों ने 185 घरों में आग लगा दी और 30 व्यापारिक प्रतिष्ठानों को लूट लिया।
सख़्त शरिया के प्रबल समर्थक हिफ़ाज़त-ए-इस्लाम ने तुरंत कहा कि “ग़ैर-मुस्लिम” [अहमदिया] को ‘जलशा’ आयोजित करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए और इसके बजाय अशांति के लिए “कादियानी” [अहमदिया के लिए बोली] को दोषी ठहराया गया।
प्रधानमंत्री शेख हसीना द्वारा क्षतिग्रस्त आवासों और दुकानों के पुनर्निर्माण के लिए एक करोड़ (आईआरएस 7.6 मिलियन या यूएसडी 95,000) का आवंटन अपराधियों और अन्य लोगों को एक मजबूत संदेश देता है।
ज़िला प्रशासन और पुलिस ने सीसीटीवी फुटेज और अन्य वीडियो फुटेज से पहचान करने के बाद तेज़ गति से सौ से अधिक दंगाइयों को गिरफ़्तार कर लिया है और अन्य फ़रार हैं।
मीडिया में प्रकाशित ख़बरों के अनुसार,अहमदियाओं की संपत्तियों पर पिछले तीन दशकों में इस्लामवादियों ने हमले किए हैं और ब्राह्मणबरिया, ढाका, ग़ाज़ीपुर, जशोर, खुलना, कुश्तिया, नटौर, राजशाही, सतखीरा, शेरपुर और अन्य जगहों पर उनके मस्जिदों को अपवित्र किया गया है।
पिछली शताब्दी की शुरुआत में बांग्लादेश में अपनी स्थापना के बाद से अहमदिया समुदाय के सदस्यों ने रूढ़िवादी मुसलमानों से उत्पीड़न का सामना किया है। अपराधियों को पिछली सरकारों के शासनकाल में क़ानून सामना कभी नहीं करना पड़ा।
इस्लामवादी और कट्टरपंथी सुन्नी मुसलमानों ने सरकार से अहमदिया को इस्लाम से हटाने की मांग की। 1953 में जमात-ए-इस्लामी के संस्थापक अबुल अला मौदूदी द्वारा कथित तौर पर यह आह्वान किया गया था, जिसके कारण पाकिस्तान के लाहौर में 2,000 से अधिक अहमदियों पर ख़ूनी अत्याचार हुए थे।
[अहमदिया] के भाग्य को पाकिस्तान के सैन्य तानाशाह जनरल जिया-उल-हक़ ने और सील कर दिया था, जब उन्होंने 26 अप्रैल 1984 को अहमदिया विरोधी क़ानून पास किया था, जो कि अहमदियों को अपने विश्वासों का प्रचार करने या उसे मानने से रोकता है।
इस बात पर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि बांग्लादेश में पैदा हुए पाकिस्तान के परित्यक्त अनाथ [मुल्ला] ‘विधर्मी’ अहमदिया पर प्रतिबंध लगाने और उन्हें दंडित करने के लिए इसी तरह के दमनकारी क़ानूनों की मांग कर रहे हैं।
90 के दशक के मध्य में ख़ालिदा जिया के शासन के दौरान इस्लामवादी पार्टी जमात-ए-इस्लामी ने अहमदिया और धर्मनिरपेक्षतावादियों को दंडित करने के लिए ईशनिंदा क़ानून का प्रस्ताव रखा था। संयोग से वह प्रस्तावित बिल पाकिस्तान के ईशनिंदा क़ानून की फोटोकॉपी था।
इस्लामी आन्दोलन बांग्लादेश, मजलिस-ए-तहफ़ुज़-ए-ख़तमे नबुव्वत, और निश्चित रूप से हिफ़ाज़त-ए-इस्लाम सहित कट्टरपंथी इस्लामी समूहों का मानना है कि अहमदिया विधर्मी हैं और उनकी मांगे हैं कि इस संप्रदाय को उसी तरह प्रतिबंधित किया जाना चाहिए और ‘ग़ैर-मुस्लिम’ घोषित किया जाना चाहिए,जिस तरह सितंबर 1974 में पाकिस्तान ने किया था।
ढाका ट्रिब्यून में छपे एक विचारोत्तेजक लेख के अनुसार, बांग्लादेश का संविधान इस्लाम को राजकीय धर्म के रूप में मान्यता देता है, लेकिन राज्य किसी भी नागरिक के ख़िलाफ़ केवल धर्म, जाति, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा।
इसके अलावा, अनुच्छेद 41 में कहा गया है कि (ए) प्रत्येक नागरिक को किसी भी धर्म को मानने, अमल में लाने या प्रचार करने का अधिकार है; (बी) प्रत्येक धार्मिक समुदाय या संप्रदाय को अपने धार्मिक संस्थानों को स्थापित करने, बनाये रखने और प्रबंधित करने का अधिकार है।
अहमद कहते हैं कि अहमदिया को विधर्मी घोषित करना बांग्लादेश को महंगा पड़ेगा। राज्य के संविधान के सिद्धांतों को बदलने की ज़रूरत है और उन खंडों को हटाने की ज़रूरत है, जहां धर्मनिरपेक्षता की गारंटी दी गयी है।
Religious extremists have attacked the annual convention of the Ahmadiyya Muslim Community in Bangladesh and severely injured the participants. The fanatics are also lighting the homes of Ahmadi Muslims on fire. pic.twitter.com/7u5pXQALZS
— Press Ahmadiyya (@pressahmadiyya) March 3, 2023
एक साल से अधिक समय पहले प्रधानमंत्री शेख़ हसीना ने धार्मिक स्वतंत्रता और सहिष्णुता की रक्षा पर एक संवाददाता सम्मेलन में कहा था कि यदि मुसलमान पवित्र कुरान में दिए गए ‘न्याय के अंतिम दिन’ में विश्वास करते हैं, तो एक मुसलमान किसी की ओर उंगली नहीं उठा सकता है कि कौन अच्छा मुसलमान है या कौन बुरा मुसलमान।
मुसलमानों की पवित्र पुस्तक कुरान कहती है कि एक दिन ऐसा आएगा, जब पूरा ब्रह्मांड नष्ट हो जाएगा और समय समाप्त हो जाएगा। सर्वशक्तिमान के द्वारा न्याय के लिए मरे हुओं को फिर से जीवित किया जाएगा। यही दिन न्याय का दिन है, जहां लोगों को उनकी मान्यताओं और कर्मों के अनुसार सर्वोच्च सृजनकर्ता द्वारा पुरस्कृत किया जाएगा।
उनके बयान की यह वीडियो क्लिप बांग्लादेश के सभी टीवी चैनलों से प्रसारित की गयी थी और YouTube पर उपलब्ध है।उस वीडियो में वह इस्लामवादी और कट्टरपंथी मुसलमानों को फटकारती हैं। उन्होंने एक निश्चित समुदाय या धार्मिक लोगों (उन्होंने किसी धार्मिक समूह का नाम नहीं लिया) को ख़त्म करने की शपथ लेने वालों को इस्लाम से निकाल देने की बात कही है।
1971 में बांग्लादेश के पीड़ादयक जन्म ने विवादास्पद उस ‘द्वि-राष्ट्र सिद्धांत’ को चकनाचूर कर दिया था, जिसने लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, बहुलवाद, समानता और सामाजिक न्याय पर आधारित राष्ट्र की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया था। उस विरासत को भविष्य में भी संरक्षित और बनाये रखने की ज़रूरत है।
(सलीम समद बांग्लादेश में स्थित एक पुरस्कृत स्वतंत्र पत्रकार हैं)