लगभग दस महीनों के भीतर,यानी इस साल के आख़िर या जनवरी 2024 की शुरुआत में होने वाले चुनावों में बांग्लादेश के लोग अपनी अगली सरकार का चुनाव करेंगे। प्रधानमंत्री शेख हसीना (Sheikh Hasina) की अगुवाई वाली सरकार के लिए जीत तक पहुंचाने वाले वोट का हासिल करना इसलिए महत्वपूर्ण होगा, क्योंकि यह इस बात का प्रतीक होगा कि जनवरी 2009 में सत्तारूढ़ अवामी लीग की सत्ता में वापसी के बाद से शेख हसीना ने विभिन्न विकास कार्यक्रमों के साथ-साथ सशक्त विदेश नीति की इच्छाशक्ति का बख़ूबी प्रदर्शन किया है।
सरकार चुनाव की उस अनिवार्यता को भली-भांति समझती है, जो स्वतंत्र और पारदर्शी हो और इसलिए विश्वसनीय भी हो। ऐसा इसलिए ज़रूरी है,क्योंकि कई लोगों के भीतर वह धारणा आज भी बैठी हुई है कि 2014 और 2018 के चुनाव कई तरह की कमियों और गड़बड़ियों से ग्रस्त थे, जिन्हें दूर करने की कोशिश में सरकार को एंड़ी-चोटी की मशक़्क़त करनी पड़ी थी। जैसे-जैसे नए चुनाव नजदीक आ रहे हैं, यह भावना ही बढ़ती जा रही है कि मतदान न केवल पारदर्शी होना चाहिए, बल्कि यह उन नीतियों के सिलसिले में निरंतरता भी सुनिश्चित कर देगा, जिन्हें सरकार ने घरेलू और विदेशों के लिए अपनायी हुई है। कहा जाता है कि आज बांग्लादेश की कठोर वास्तविकता यही है कि सत्ताधारी पार्टी को एक बार फिर से उस राजनीतिक विपक्ष का सामना करना पड़ रहा है, जिसकी नीतियों ने देश के उद्भव की ऐतिहासिक व्याख्या के अर्थ में लगातार परेशान करने वाले प्रश्न उठाये हैं।
हाल के सप्ताहों में देश के पहले सैन्य शासक जनरल जियाउर्रहमान द्वारा स्थापित बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) 27 सूत्री कार्यक्रम लेकर सामने आयी है, जिसके बारे में उसका मानना है कि इससे राज्य में सुधार की प्रक्रिया को बढ़ावा मिलेगा। बीएनपी का मानना है कि पिछले कई वर्षों में सरकारी संस्थायेंओं को हसीना सरकार द्वारा या तो कमज़ोर कर दिया गया है या उनका राजनीतिकरण किया गया है। बांग्लादेश के लोगों के सामने बीएनपी को लेकर जो समस्या सामने आती है,वह है लोगों का वह संदेह कि अपनी चुनाव-संबंधी योजनाओं को आगे बढ़ाने से पहले अपने विचारधारात्मक झुकाव या अन्यथा पार्टी के भीतर के आंतरिक सुधार को समझाने में उसकी असमर्थता या अनिच्छा से पैदा होता है।
All seven MPs of the opposition #Bangladesh Nationalist Party (BNP) resigned from the parliament in a rally organised in Dhaka where the BNP put forward a 10-point charter of demand against the government of Sheikh Hasina. @DhakaPrasar pic.twitter.com/5JXGkUHycw
— DD News (@DDNewslive) December 10, 2022
जनरल जियाउर्रहमान, जस्टिस अब्दुस सत्तार और खालिदा जिया के नेतृत्व में सत्ता में आते ही बीएनपी ने ‘बांग्लादेशी राष्ट्रवाद’ की विचारधारा को बढ़ावा दिया था, जो कि बंगाली राष्ट्रवाद की उस अवधारणा से बिल्कुल मेल नहीं खाती थी, जिसे शेख मुजीबुर्रहमान और उनकी अवामी लीग ने 1960 के दशक के मध्य और दिसंबर 1971 में मुक्ति तक समय-समय पर सामने रखा था। बंगबंधु (बंगाल के मित्र) और अपने देशवासियों द्वारा राष्ट्रपिता के रूप में प्रतिष्ठित बांग्लादेश की मुक्ति में अग्रणी भूमिका निभाने वाले शेख मुजीब की अगस्त 1975 में हो गयी थी और उनकी हत्या तक बंगाली राष्ट्रवाद ने ही राष्ट्र के मूल के रूप में कार्य किया था। इसमें संविधान, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद और लोकतंत्र के सिद्धांतों की गूंज थी।
Let us be immersed in the #noncommunal spirit of #Bengali #nationalism and build #Bangladesh as a happy and prosperous ‘Sonar Bangladesh’.
– HPM #SheikhHasina addresses the nation on the eve of #BengaliNewYear1429
Read the full speech here: https://t.co/OM9uRbJcCv#JoyBangla pic.twitter.com/QpERuRPb8O— Awami League (@albd1971) April 13, 2022
इसलिए, जब भी देश में स्वतंत्र चुनाव की बात आती है, तो जनता का ध्यान तेज़ी से 1975-1996 के बीच और फिर 2001-2006 के बीच की उन विभाजनकारी नीतियों की ओर चली जाती है,जो कि विपक्ष की विफलता को दिखाती है। लोगों के बीच यह शंका मज़बूत हो जाती है कि क्या इन नीतियों को कहीं छोड़ तो दिया जाएगा और 1971 में बांग्लादेश के संप्रभु देश के उद्भव के ज़रिए प्रतिपादित सिद्धांतों को अपनाने और लागू करने में कोताही तो नहीं बरती जायेगी। अगर सीधे-सीधे शब्दों में कहा जाए, तो बांग्लादेश अब मुश्किल में फंसा हुआ लगता है। जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आ रहे हैं, सरकार राष्ट्रीय राजनीति में पश्चिमी, अनिवार्य रूप से अमेरिकी दबाव को दूर करने के लिए वह सबकुछ कर रही है, जो वह कर सकती है। आश्चर्य की बात है कि उस स्तर पर अब ऐसा कुछ स्पष्ट नहीं दिखता कि विपक्ष अब नीति परिवर्तन और अपने भीतर राजनीतिक सुधारों करने के लिए तैयार है।
और मूल रूप से यही वह आशंका है, जहां ख़तरा दिखाई पड़ता है। अक्टूबर 2001 के चुनावों में अवामी लीग को बीएनपी और जमात-ए-इस्लामी के गठबंधन से हार का सामना करना पड़ा था, यह वह समय था,जब देश को घड़ी की विपरीत दिशा में मोड़ दिया गया था। क्रमिक रूप से आने वाले सैन्य और अर्ध-सैन्य शासनों ने प्रशासन में 1971 के पाकिस्तान के कब्ज़े वाली सेना के सहयोगियों को पहले ही समायोजित कर लिया था, 2001 में बीएनपी-जमात सरकार ने याह्या खान-टिक्का खान शासन के कुछ कुख्यात सहयोगियों को कैबिनेट में लाकर उसी व्यवस्था को मज़बूत कर दिया था।
#Watch: We take pride in the fact that we are Bengalis. We believe in Bengali nationalism, not Bangladeshi nationalism: Bangladeshi journalist Syed Badrul Ahsan on whether is Islam replacing Bengali identity pic.twitter.com/HahOZlTXJY
— INDIA NARRATIVE (@india_narrative) January 25, 2023
मतिउर रहमान निजामी, अली अहसान मुहम्मद मुजाहिद और सलाहुद्दीन क्वाडर चौधरी में से सभी लोगों ने 1971 में बांग्लादेश के स्वतंत्रता आंदोलन के खिलाफ अग्रणी और कुख्यात भूमिकायें निभायी थीं, बाद में 2009 में अवामी लीग की सत्ता में वापसी के बाद उन पर मुकदमे चलाये गये और फांसी की सज़ा सुनायी गयी। बीएनपी इस मायने में ख़ुद को अतीत तक महदूद रखा है कि उसने कभी भी ख़ुद में एक नया बदलाव लाने को लेकर कोई क़दम नहीं उठाया है, बल्कि सचाई तो यह है कि वास्तव में एक राष्ट्र के रूप में बांग्लादेश के मूल सिद्धांतों पर आधारित नीतियों पर एक व्यवस्थित हमला करने की ही उनकी नीतियां रही हैं। दूसरी ओर, देश के दूसरे सैन्य तानाशाह, जनरल हुसैन मुहम्मद इरशाद की जातियो पार्टी ने बीएनपी की तरह इन मूलभूत सिद्धांतों के संदर्भ में कभी भी खुद को पुनर्गठित करने की कोशिश नहीं की।
Matiur Rahman Nizami, a chief planner of #Bangladesh #Genocide is executed #ThanksHasina for this #trial pic.twitter.com/uiP8CVssVX
— JH Fahim 🇧🇩 (@jhfahim_bd) May 10, 2016
1982 और 1990 के बीच सत्ता में रहे अपने सालों के दौरान जनरल इरशाद देश को वहीं ले गये, जहां जनरल जिया ने छोड़ा था। जहां एक तरफ़ जिया ने अपने तानाशाही फ़रमान से धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद को संविधान से बाहर ही कर दिया था, वहीं इरशाद ने इस्लाम को राज्य का धर्म घोषित करते हुए इसे देश पर थोप दिया था। शासन की ये ही वे बाधायें हैं, जिन्हें अवामी लीग को दूर करने की आवश्यकता होगी।देश आगे बढ़े,इसके पहले 1971 के सिद्धांतों को बहाल करने की आवश्यकता इस समय एक अनिवार्यता है, भले ही देश और विदेश दोनों जगह स्वतंत्र चुनाव की मांग की आवाज़ सुनी जा रही हो। सरकार ने भले ही इस्लामवादी उग्रवाद पर सराहनीय तरीके से अंकुश लगा दिया हो, लेकिन यह इस बात का शायद ही आश्वान देता हो कि हाल के महीनों में सुरक्षा बलों द्वारा खोजे जा रहे आतंकवादी ठिकानों की श्रृंखला को देखते हुए धार्मिक उग्रवादियों की संख्या समाप्त हो चुकी है।
Hifazat-e-Islam #Bangladesh human chain is going on in the National Mosque Baitul Mukarram to protest against the insult of Rasulullah (SAW).
Even in the heavy rain, the lovers of the Prophet are doing human chain.#BoycottIndianProducts #OurProphetOurHonour pic.twitter.com/AqJbT1FSHg
— AZMIRCHT 🇧🇩 (@A_H_CHT) June 9, 2022
यह खतरा शायद तब और बढ़ जाएगा, अगर बांग्लादेश एक बार फिर से सैनिक ताक़त के कब्ज़े में आ जाता है।इसका मतलब यही है कि वे राजनीतिक दल, जो राष्ट्र को यह समझा पाने में विफल रहे हैं कि उन्होंने खुद को नीतिगत रूप से सुधार लिया है, यही उस चूक के लिए जिम्मेदार हैं, जिसने 1975-1996 के अंधेरे समय को एक बार फिर से सत्ता में आने का रास्ता दिखा दिया था। ध्रुवीकृत राजनीति आज बांग्लादेश की हक़ीक़त है। आधी सदी से भी पहले बांग्लादेश के विचार को आकार देने वाली विचारधारा को पहचानने में राजनीतिक दलों और दक्षिणपंथी तत्वों की विफलता एक बड़ा सच है।यही वजह है कि बांग्लादेश में धर्मनिरपेक्षतावादियों पर हो रहे हमले एक बड़ी चिंता हैं।
सैयद बदरुल अहसन ढाका और लंदन स्थित एक पत्रकार, लेखक और दक्षिण एशियाई और अमेरिकी राजनीति पर लिखने वाले टिप्पणीकार हैं। व्यक्त किए गए विचार व्यक्तिगत हैं और यह लेख विशेष रूप से इंडिया नैरेटिव के लिए लिखा गया है। मूल लेख को पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें