Minorities In Pakistan: नागरिक समाज, मीडिया और अल्पसंख्यक और मानवाधिकार संगठनों के प्रतिनिधियों ने पाकिस्तान में ग़ैर-मुसलमानों की दुर्दशा की निंदा की है। डॉन की रिपोर्ट के अनुसार, अल्पसंख्यक अधिकारों पर एक सदस्यीय आयोग के अध्यक्ष, शोएब सुदल ने अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर 2014 के सुप्रीम कोर्ट निर्णय को लागू करने में अपनी “बेबसी” जतायी है।
राष्ट्रीय न्याय और शांति आयोग द्वारा अल्पसंख्यक अधिकारों पर आयोजित राष्ट्रीय वकालत सम्मेलन में मुख्य वक्ता के रूप में बोलते हुए, सुदल ने तत्कालीन सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश तसद्दुक हुसैन जिलानी द्वारा दिए गये निर्णय को लागू करने में इस विफलता के लिए नौकरशाही को दोषी ठहराया और इसे लेकर अपना “निराशावाद” व्यक्त किया। डॉन की रिपोर्ट के अनुसार, राष्ट्रीय मानसिकता और समाज के रवैये को बदले बिना अल्पसंख्यकों के लिए स्थिति में कोई भी बदलाव नहीं होने वाला है।
उन्होंने कहा, “मैं निराशावादी नहीं होना चाहता, लेकिन यह वास्तविकता है कि हम (मौजूदा) स्थिति से बाहर नहीं आ पायेंगे।”
सुदले ने कहा, “हमारी नौकरशाही प्रणाली सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के लागू किये जाने की राह की मुख्य बाधा है।” उनकी शिकायत है कि नौकरशाहों, विशेष रूप से प्रांतों में बैठे नौकरशाहों ने महीनों तक उनके पत्रों का जवाब नहीं दिया। उन्होंने कहा कि इन नौकरशाहों और शीर्ष पर बैठे लोगों ने अल्पसंख्यकों के अधिकारों को उचित महत्व नहीं दिया। उन्होंने यह भी ऐलान किया कि उन्हें अधिकारियों से कोई सहयोग नहीं मिल रहा है।
सुदल नौकरशाही को सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को लागू करने में प्राथमिक बाधा बताते हैं।
लगभग सभी वक्ताओं ने पिछले सप्ताह की उस जरनवाला त्रासदी की निंदा की, जिसमें ईशनिंदा के आरोप में कई चर्चों और ईसाइयों के घरों को आग में जला दिया गया था।
वक्ताओं ने अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ हिंसा में वृद्धि के साथ-साथ समाज में हाशिए पर मौजूद समूहों की सुरक्षा करने में असमर्थता में राज्य की भूमिका की “निंदा” की।
सुदल ने जरनवाला प्रकरण को “शर्मनाक” बताया और कहा कि इसने देश को कलंकित किया है।
उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में पाठ्यक्रम से नफ़रत भरी सामग्री को हटाने का आह्वान किया था और एकल राष्ट्रीय पाठ्यक्रम के कार्यान्वयन से कुछ हद तक यह लक्ष्य पूरा हो गया है।
प्रसिद्ध विद्वान और नागरिक अधिकार कार्यकर्ता हारिस ख़ालिक़ ने कहा कि उद्देश्य प्रस्ताव के बजाय, 11 अगस्त, 1947 को क़ायदे आज़म के भाषण को प्रस्तावना के रूप में संविधान में शामिल किया जाना चाहिए। डॉन के अनुसार, उनकी राय थी कि जरनवाला घटना एक “आतंकवादी कृत्य” थी, न कि केवल “अतिवाद” का परिणाम।
इस सप्ताह की शुरुआत में बुधवार को पवित्र कुरान को अपवित्र करने के आरोपों के बाद एक भीड़ औद्योगिक शहर फ़ैसलाबाद के बाहरी इलाक़े में मुख्य रूप से ईसाई क्षेत्र में घुस गयी।
जियो न्यूज़ ने पंजाब की अंतरिम सरकार के प्रवक्ता के हवाले से बताया कि चर्च में तोड़फोड़ के मामले में 100 से अधिक लोगों को गिरफ़्तार किया गया है।
डॉन की रिपोर्ट के अनुसार, इस बीच ईसाई नेताओं ने आरोप लगाया है कि इस पूरे प्रकरण के दौरान पुलिस मूकदर्शक बनी रही।
इस घटना के संबंध में 100 से अधिक लोगों की गिरफ़्तारी के एक दिन बाद फ़ैसलाबाद ज़िले की जरनवाला पुलिस ने गुरुवार को कहा कि उन्होंने एक दिन पहले ईसाइयों के घरों और एक चर्च की इमारत में तोड़फोड़ और आग लगाने वाले 600 लोगों के ख़िलाफ़ दो आतंकी मामले दर्ज किए हैं।
पाकिस्तान स्थित डॉन अख़बार ने अधिकारियों के हवाले से बताया कि बुधवार को पाकिस्तान के फ़ैसलाबाद के जरनवाला ज़िले में ईशनिंदा के आरोप में कई चर्चों में तोड़फोड़ की गयी। इसके अलावा, ईसाई समुदाय के सदस्यों के निवासियों पर भी हमला किया गया।
हमले के दौरान एक ईसाई क़ब्रिस्तान और स्थानीय सहायक आयुक्त के कार्यालय में भी तोड़फोड़ की गयी।
डॉन की रिपोर्ट के अनुसार, भीड़ का नेतृत्व करने वाले आठ लोगों की पहचान कर ली गयी है, जिनमें से एक कथित तौर पर जमात अहल-ए-सुन्नत और दूसरा तहरीक़-ए-लब्बैक पाकिस्तान (टीएलपी) से जुड़ा है।
एफ़आईआर में “आतंकवाद के कृत्यों के लिए सज़ा” – आतंकवाद विरोधी अधिनियम, 1997 से संबंधित धारायें लगाई गयीं। एफ़आईआर के अनुसार, भीड़ ने “लोगों के सामानों को उनके घरों से बाहर फेंक दिया और उन्हें आग लगाना शुरू कर दिया।”
इस एफ़आईआर में कहा गया है कि संदिग्धों ने “एक कैथोलिक चर्च में भी प्रवेश किया, वहां मौजूद चीज़ों को नष्ट कर दिया और उसकी इमारत को नुक़सान पहुंचाया और आग लगा दी।”