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लाल क़िले का आख़िरी मुक़दमा: मतभेदों से ऊपर उठने की ज़रूरत पर रौशनी डालता ऐतिहासिक आईएनए ट्रायल पर आधारित एक शानदार नाटक

वर्ग, पाखंड और जातिवाद जैसे समसामयिक मुद्दों को सामने लाता इंडियन नेशनल आर्मी या भारतीय राष्ट्रीय सेना के अधिकारियों के मुकदमे पर आधारित नाटक, 'लाल क़िले का आख़िरी मुक़ाबला' का एक दृश्य

भारतीय राष्ट्रीय सेना का मुकदमा एक ऐसी ऐतिहासिक घटना थी, जो नवंबर 1945 और मई 1946 के बीच दिल्ली के लाल क़िले में हुई थी। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान यातना, देशद्रोह, हत्या और हत्या के लिए उकसाने के आरोपों पर कई आईएनए अधिकारियों का कोर्ट मार्शल किया गया था, जिसमें सभी भारतीयों ने स्वतंत्रता सेनानियों का समर्थन करते हुए अपने मतभेदों को ख़त्म कर दिया था।

हाल ही में नई दिल्ली के एलटीजी ऑडिटोरियम में पिएरोट्स ट्रूप द्वारा मंचित और एम. सईद आलम द्वारा निर्देशित नाटक, “लाल क़िले का आख़िरी मुक़ाबला” इस घटना के बारे में आज की पीढ़ी की यादों को ताज़ा कर रहा है।

एक सरल कथा प्रारूप से चिपके हुए दर्शक तीन आईएनए अधिकारियों – मेजर जनरल शाहनवाज़ ख़ान (सईद आलम), कर्नल जी.एस. ढिल्लों (रोहित सोनी) और लेफ़्टिनेंट कर्नल पी.के. सहगल (यश मल्होत्रा) अपनी-अपनी कोठरी में बैठकर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ अपने संघर्ष; उस नेताजी सुभाष चंद्र बोस के साथ जुड़ाव, जिन्होंने उनका नेतृत्व किया; कोर्ट मार्शल पर चर्चा करते हुए मुकदमे और क्लेश को याद कर रहे हैं।

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अतीत के साथ-साथ वर्तमान को दिखाने के लिए निर्देशक ने प्रभावी ढंग से मंच का इस्तेमाल किया

यह नाटक आकर्षक इसलिए है, क्योंकि यह समसामयिक मुद्दों पर जूम करने के लिए अतीत की घटनाओं का उपयोग करता है, जो कि प्रासंगिक हैं। इससे सहमत, नाटककार मृणाल माथुर, जिन्होंने भूलाभाई देसाई की भूमिका भी निभायी है, जिन्होंने सफलतापूर्वक और ज़बरदस्ती अभियुक्तों का बचाव किया, उन्होंने इंडिया नैरेटिव को बताया: “यह (नाटक) विभाजन, वर्ग, पाखंड, जातिवाद, ध्रुवीकरण , समाज की कट्टरता और चुनौतियों को छूता है। सोशल मीडिया से लोगों के विचारों और कार्यों की बारीकियों और संतुलन को देखने में असमर्थता दिखती है। उन्होंने कहा, “यह बताने के लिए एक दिलचस्प साधन प्रदान करता है कि कैसे एक राष्ट्र के रूप में हमारे इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ पर लोगों की एक पीढ़ी समान चुनौतियों से ऊपर उठ गयी थी।”

इसके अलावा, नाटक इस प्रचलित मिथक का तोड़ता है कि विरोधी विचारों वाले लोग एक-दूसरे का सम्मान नहीं कर सकते और एक-दूसरे से सीख नहीं सकते। “यही कारण है कि नाटक इस बात को रेखांकित करता है कि नेताजी और गांधी जी दोनों, अपने बहुत से प्रचारित मतभेदों के बावजूद, समान इसलिए थे क्योंकि वे मौलिक रूप से सत्य के योद्धा थे।”

कथा को आगे और पीछे मूल रूप से आगे बढ़ने के लिए आलम ने बाईं ओर एक कुर्सी पर बैठे बोस (रितु कटारे) को नेताजी की प्रसिद्ध टोपी पहने हुए जैतून हरे रंग की वर्दी पहने दिखाया है, जो अतीत का प्रतिनिधित्व करते हैं, जबकि भूलाभाई देसाई चल रहे मुकदमे के प्रतीक दाईं ओर बैठे हैं।

दिलचस्प बात यह है कि दर्शकों को नेताजी की पीठ दिखायी देती है न कि उनका चेहरा। इंडिया नैरेटिव को इसकी व्याख्या करते हुए आलम ने कहा: “नाटककार की अनुमति से मैंने इसके बारे में पहले ही दिन तय कर लिया था, जब मैं स्क्रिप्ट को पढ़ा था कि यह सबसे अच्छा तरीक़ा है,क्योंकि उन्होंने मुकदमे के ‘प्रयोजन’ और नेता के मुकदमे का हिस्सा नहीं होने के बीच का समाधान था।

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मंच की पृष्ठभूमि पर नेताजी की छाया ने उनके जीवन से भी बड़े व्यक्तित्व को प्रभावी ढंग से उजागर किया

यह स्पेस महत्वपूर्ण इसलिए है, क्योंकि दर्शकों को मंच की पृष्ठभूमि पर नेताजी की छाया देखने को मिलती है, जो कि उनके व्यक्तित्व और उपस्थिति को बढ़ा देता है। आलम ने टिप्पणी की, “हमने सोचा था कि उनका ‘जीवन से बड़ा’ चित्रण आधुनिक दर्शकों की आंखों में उनकी धारणा को पूरा कर देगा।”

 

मंच पर पांचों अभिनेताओं का अभिनय क़ाबिले तारीफ़ था। जहां ढिल्लों और सहगल ने गंभीर मुद्दों को सामने लाया, वहीं शाह नवाज़ के चरित्र ने अपने मज़ाकिया वन-लाइनर्स और टिप्पणियों के माध्यम से कार्यवाही में एक हल्कापन ला दिया। अपने बेटों के लिए गोरे रंग की दुल्हन पाने के लिए भारत में माता-पिता के आकर्षण पर कटाक्ष करते हुए वह कहते हैं कि हालांकि हमने अंग्रेज़ों से लड़ाई लड़ी, फिर भी हमें एक ऐसी दुल्हन की ज़रूरत होती है, जो गोरी हो। इसी तरह, प्यार और जंग में सब कुछ जायज़ कहने पर चुटकी लेते हुए नवाज़ टिप्पणी करते हैं कि लड़ते समय नियमों का पालन करना चाहिए और किसी व्यक्ति के लिए प्यार कभी भी लड़ाई में तब्दील नहीं होना चाहिए।

इन संवादों को दर्शकों से ज़ोरदार तालियां मिलीं, जो अन्यथा पूरी तरह से कोर्ट मार्शल की कार्यवाही पर केंद्रित थे।

आलम ने अपनी डायलॉग डिलीवरी और इमोशन के ज़रिए नवाज़ के व्यक्तित्व को उनके सभी आयामों में पेश किया, जबकि माथुर के देसाई ने आश्चर्यजनक प्रदर्शन किया।

आरोपी का बचाव करने वाले भूलाभाई देसाई की भूमिका निभाते हुए मृणाल माथुर ने प्रमुख वकील के जुनून को कुशलता से महसूस करा दिया।

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एक 68 वर्षीय व्यक्ति की भूमिका निभाते हुए, जिस शख़्स ने अपने गिरते स्वास्थ्य के बावजूद अपने देशवासियों के कृत्य का पूरे जोश के साथ बचाव किया था,उस माथुर ने अपनी चाल, धीमी गति, हांफ़ते और कार्यवाही के दौरान बैठने के लिए ब्रेक लेने के माध्यम से यह सब बता दिया। माथुर के संवादों में एक प्रशंसित वकील देसाई की आग दिखायी दी।

अंग्रेज़ों की भर्त्सना करते हुए उन्होंने भारत को अपने ही तैयार किये गये विश्व युद्धों में घसीटने का आरोप लगाते हुए कहा कि यूरोप की समस्यायें विश्व की समस्यायें बन जाती हैं।यह वह संवाद है,जो कि भारत के विदेश मंत्री के एस जयशंकर के कई साक्षात्कारों की याद दिला जाते हैं, जहां उन्होंने इस तर्क से एक संवाददाता की ज़ुबान बंद कर दी थी।