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यूरोप चले गये रोमा समुदाय को याद आ रहा अपना वतन भारत, सरकार बना रही है स्मारक

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान रोमा समुदाय (फ़ोटो: रोमिया फ़ाउंडेशन/ट्विटर/डायना बी की डायरी)

भारत सरकार शहर से भूमध्यसागरीय क्षेत्र और यूरोप में लोगों के पलायन की याद में उत्तर प्रदेश के कन्नौज में एक रोमा स्मारक बनाने की योजना बना रही है। इस स्मारक में स्थानीय संस्कृति को प्रदर्शित करने वाला एक एम्फीथिएटर भी होगा।

विश्व रोमा दिवस, 18 अप्रैल को बोलते हुए उत्तर प्रदेश के समाज कल्याण राज्य मंत्री, असीम अरुण ने कहा कि यह जानकर आश्चर्य हुआ कि कन्नौज से यूरोप में इतने बड़े पैमाने पर प्रवासन हुआ। अरुण ने कहा: “हम रोमा स्मारक को रोमा के साथ-साथ स्थानीय लोगों के लिए गतिविधि का केंद्र बनायेंगे। इस स्मारक के हिस्से के रूप में हम एक फ़िल्म बनाने की भी योजना भी बना रहे हैं।”

भारत सरकार राज्य सरकार के सहयोग से रोमा स्मारक के निर्माण का बीड़ा उठा रही है। कन्नौज दिल्ली से लगभग 400 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व में स्थित है।

यूरोप के बड़े हिस्से में फैला रोमा समुदाय ग़रीबी और भेदभाव का सामना करता है। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नाज़ियों द्वारा यहूदियों के साथ-साथ रोमा लोगों की हज़ारों की संख्या में हत्या कर दी गयी थी। नाज़ियों द्वारा उत्पीड़न को हाल ही में स्वीकार किया गया है।

पहले इसे व्यापक रूप से स्वीकार तो किया जाता था, लेकिन अब कई अध्ययनों से यह बात स्पष्ट हो गयी है कि रोमा लोग उत्तर-पश्चिम भारत से गये थे। यूरोपीय संसद (एमईपी) की सदस्य और हंगरी की रोमा नेता लिविया ज़ारोका ने कहा कि भारत को रोमा समुदाय का नेतृत्व करने की ज़रूरत है। उन्होंने कहा कि भारत सरकार और यूरोपीय संघ को भी रोमा से जुड़ी समस्याओं को लेकर अधिक समर्थन प्रदान करना चाहिए।

यह समुदाय जिन समस्याओं का सामना कर रहा है ,उन्हें रेखांकित करते हुए ज़ारोका ने कहा कि यूरोप में रोमा लोग एक बार फिर से कोविड, रूस-यूक्रेन युद्ध और बढ़ती महंगाई के प्रभाव के कारण गंभीर कठिनाइयों का सामना कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि यूरोप में रोमा समुदाय के नेता अब रोमा लोगों के हितों के लिए भारत के साथ नेटवर्क बनाने के लिए प्रौद्योगिकी का उपयोग कर सकते हैं।

कई रोमा बुद्धिजीवियों ने भारत से समर्थन मांगने और अपने पूर्वजों के देश के साथ ऐतिहासिक संबंधों को बहाल करने को लेकर आवाज़ उठायी। यूरोपीय संसद (एमईपी), स्लोवाकिया के सदस्य पीटर पोलाक ने कहा: “हमें रोमा लोगों को चिह्नित करने में भारत से समर्थन की आवश्यकता है”। उन्होंने कहा कि रोमानी लोग हमारे माता-पिता के देश के साथ घनिष्ठ और “फलदायी सांस्कृतिक सहयोग” चाहते हैं।

इंटरनेशनल रोमानी यूनियन (IRU) लातविया के अध्यक्ष नॉर्मुंड्स रुदेविक्स ने भी इस विचार पर ध्यान केंद्रित किया कि भारत को इस समुदाय का समर्थन करने के लिए और अधिक कुछ करना होगा।

रुडेविक्स ने अपने लोगों की दुर्दशा पर प्रकाश डालते हुए कहा कि अब भी 85 प्रतिशत रोमाओं के सिर पर उपयुक्त छत नहीं है। “हमारा समुदाय राष्ट्रीयता की जड़ के कारण अपराध और भेदभाव का शिकार बना हुआ है। हम चाहते हैं कि भारत इस समुदाय के सदस्यों को निवास परमिट प्रदान करे।”

रुदेविक्स ने इस बात पर प्रकाश डाला कि रोमा भी एक राष्ट्रीय बैंक खोलना चाहते हैं और दूसरे विश्वयुद्ध के पीड़ितों की याद में यूरोप में एक स्मारक स्थापित करना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि समृद्ध रोमा संस्कृति और परंपराओं को अभी भी दुनिया नहीं जानती।

हंगरी में भारतीय राजदूत संजय राणा ने दो संस्कृतियों के बीच घनिष्ठ संबंध बताते हुए कहा कि कई भाषायी, नृवंशविज्ञान, अनुवांशिक और जातीय-समाजशास्त्रीय शोधों ने निर्णायक रूप से साबित किया है कि यूरोप के रोमा लोग भारत से आते हैं। उन्होंने इस बात पर प्रकाश डाला कि कैसे विभिन्न भारतीय राजनेताओं ने रोमा और भारत के बीच की साझी विरासत को स्वीकार किया है।

राणा ने कहा कि माना जाता है कि रोमा 5वीं-10वीं शताब्दी के बीच भारत छोड़कर भूमध्यसागर और बाल्कन क्षेत्रों में पहुंच गये थे। बारहवीं शताब्दी में वे यूरोप के अन्य देशों में फैल गये थे। राणा ने कहा,“अब वे यूरोप में 20-25 मिलियन की संख्या में मज़बूत स्थिति में हैं। रोमानिया और बुल्गारिया में इनकी 10-12 प्रतिशत आबादी है। अपनी पैतृक जड़ों के बावजूद वे एक अखंड सांस्कृतिक रूप से जुड़े हुए नहीं हैं।”

अंतर्राष्ट्रीय सहयोग परिषद (एआरएसपी), विवेकानंद केंद्र और चिन्मय मिशन ने ‘वसुधैव कुटुम्बकम’, या ‘एक पृथ्वी, एक परिवार, एक भविष्य’ की अवधारणा में भारतीय विश्वास को उजागर करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया था। इस सम्मेलन में पूरे यूरोप के जाने-माने रोमा प्रोफ़ेसरों, शोधकर्ताओं और संगीतकारों की भागीदारी भी देखी गयी।