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‘Modi’ बॉलीवुड का वो सुपर स्टार ‘नेत्रहीन’ भी देखते जिसकी फिल्में

बॉलीवुड का पहला शो मैन

बॉलीवुड (Bollywood) के एक ऐसे बेहतरीन अभिनेता जो अपनी आवाज के दम पर हर किसी पर जादू कर दिया करते थे। वो जितने सफल एक्टर थे उतने ही वह निर्मता, निर्देशक भी थे। उन्होंने बॉलीवुड में अपना अहम योगदान देकर बेहतरीन प्रतिभाएं भी दी। उन्होंने इस तरह की ऐतिहासिक फिल्मों का निर्माण किया जिससे भरतीय समाज गड़ने में एक महत्वपूर्ण योगदान मिला। मगर आपको मालूम है इतिहास को फिल्मों के जरिये लोकप्रिय बनाने वाले ये दिग्गज अभिनेता बचपन में इतिहास की पढ़ाई करने में मन चुराते थे। इतना ही नहीं मुगलमे आजम में के आसिफ को हटाकर इन्हें निर्देशक बनाया गया।

वहीं जिन्हें भारतीय और खासकर हिन्दू चरित्रों को गरिमा प्रदान करने और जीवंत प्रदान करने के लिए जाना जाता है वो न तो हिन्दू थे और न भारतीय मूल के। तो फिर आखिरकार कौन थे वो जिन्हें भारतीय सिनेमा (Indian Cinema) का लॉ पुरुष कहा जाता था। यही नहीं इस अभिनेता कि आवाज में ऐसा जादू था कि जो लोग देख नहीं सकते थे वो सिर्फ और सिर्फ इनकी आवाज सुनने के लिए सिनेमा घर पहुंच जाते थे।जिस फिल्मकार ने बॉलीवुड जगत पर अपना सब कुछ समर्पित कर दिया इसके बावजूद फिल्म इतिहास में वो स्थान नहीं मिला जो कि मिलना चाहिए था। आखिर इसके पीछे कौन सी वजह रही जिस वजह से इन्हें काफी लंबे वक्त तक अपने परिवार से दूर रहना पड़ा। क्या है इनकी निजी जिंदगी के किस्से आगे जानेंगे बहुत कुछ…

आज हम अपने इस लेख में बीते दौर के जिस दिग्गज कलाकार के बारे में बात कर रहे हैं वो कोई और नहीं बल्कि भारतीय फिल्म इंडस्ट्री के पहले शोमैन के तौर पर मशहूर निर्माता निर्देशक व अभिनेता सोहराब मोदी थे। वो फिल्मकार जिन्होंने सही मायने में एक भारतीय सिनेमा कि शुरुआत होते देखा और जिन्होंने अपने खास योगदान से भारतीय हिंदी सिनेमा को स्वर्णिम युग दिया। यही वह अभिनेता (Actor) थे जिनके धर्ये और लगन से हिंदी सिनेमा में नया मापदंड स्थापित हुआ। वो एक ऐसा स्तंभ बनकर उभरे जिसके बगैर भारतीय हिंदी सिनेमा के इतिहास की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इस महान कलाकार की जिंदगी शुरू हुई थी पिछली सदी में यानी 2 नवंबर 1897। मुंबई की एक समृद्ध परिवार में एक बच्चे का जन्म हुआ, जिसका परिवार ने नाम लिखा सोहराब।

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सोहराब मोदी (Sohrab Modi) का बचपन उत्तर प्रदेश के रामपुर मे बीता था जहां उनके पिता सरकारी अधिकारी हुआ करते थे। जबकि सोहराब जब तीन साल के थे तब किसी बीमारी के चलते उनकी माँ का निधन हो गया। जिसके बाद इनका बचपन अपने मामा के घर रामपुर में ही बिता। यही से उनकी प्रारंभिक शिक्षा शुरू हुई और वहीं की भाषा उन्होंने ग्रहण कर ली थी। बचपन से ही सोहराब मोदी कला के शौकीन रहे और उनके बड़े भाई तब थिएटर से जुड़े हुए थे। इसलिए बचपन से उनका ध्यान रंगमंच की तरफ था। स्कूल के दिनों में जब भी कोई कार्यक्रम होता था तब वह इसमें बढ़चढ़कर हिस्सा लेते थे।

छोटी सी उम्र में किया फिल्मों में प्रदर्शन

16 वर्ष की उम्र में सोहराब मोदी (Sohrab Modi) ग्वालियर के टाउनहाल में फिल्मों का प्रदर्शन करते थे। बाद में अपने भाई रुस्तम की मदद से उन्होंने ट्रैवलिंग सिनेमा का व्यवसाय शुरू किया। फिर अपने भाई के साथ ही उन्होंने बंबई में स्टेज फ़िल्म कंपनी की स्थापना की। इस कंपनी की पहली फ़िल्म 1953 में बनी ‘खून का खून’ थी, जो उनके नाटक ‘हैमलेट’ का फ़िल्मी रूपांतर थी। इसमें सायरा बानो की माँ नसीम बानो पहली बार परदे पर आयीं। इसके बाद 1936 में शेक्सपियर नाटक ‘किंग जान’ पर आधारित थी। सोहराब मूलतः नाटक से आये थे, यही वजह है कि उनकी पहले की फ़िल्मों में पारसी थिएटर की झलक मिलती है। ऐतिहासिक फ़िल्में बनाने में वे सबसे आगे थे।

खुद से की मिनर्वा मूवीटोन की स्थापना

थियेटर करने के बाद जब वह मुंबई आए तो फिल्मों की ओर मुड़ गए। चूंकि वह अपने मूड की फिल्म बनाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने फिल्म कंपनी मिनर्वा मूवीटोन की स्थापना की। अपने इसी बैनर तले उन्होंने पुकार बनाई जो मुगल बादशाह जहांगीर के पौराणिक न्याय के बारे में बताती है कि जहांगीर तब खुद को असहाय पाता है जब एक धोबिन के पति की हत्या का आरोप खुद उनकी बेगम नूरजहां पर लगता है। जिसे वो बेपनाह मोहब्बत करते हैं। कहते हैं कि उस दौर में सोहराब मोदी पुकार का रीमेक बनाना चाहते थे और दिलीप कुमार (Dilip Kumar)को जहांगीर के रोल के लिए साइन करना चाहते थे, लेकिन दिलीप नहीं चाहते थे कि उनकी तुलना पुकार के अभिनेता चंद्रमोहन से हो जो इस फिल्म से रातोंरात स्टार बन गए थे।

अपने इसी बैनर तले उन्होंने पुकार बनाई। यह फिल्म मुगल बादशाह जहांगीर के पौराणिक न्याय के बारे में बताती है कि जहांगीर तब खुद को असहाय पाता है जब एक धोबिन के पति की हत्या का आरोप खुद उनकी बेगम नूरजहां पर लगता है। जिसे वो बेपनाह मोहब्बत करते हैं। कहते हैं कि उस दौर में सोहराब मोदी पुकार का रीमेक बनाना चाहते थे और दिलीप कुमार को जहांगीर के रोल के लिए साइन करना चाहते थे, लेकिन दिलीप नहीं चाहते थे कि उनकी तुलना पुकार के अभिनेता चंद्रमोहन से हो जो इस फिल्म से रातोंरात स्टार बन गए थे।

अपने समय के मशहूर पटकथा-संवाद लेखक अली रजा ने एक बार साफ तौर पर कहा था कि फिल्म इंडस्ट्री ने सोहराब मोदी के साथ न्याय नहीं किया। उन्हें फिल्म इतिहास में जितनी जगह मिलनी चाहिए थी नहीं मिली। बातचीत में अमूमन हर पुराने फिल्मकार मानते है कि अगर कभी ईमानदारी से भारतीय फिल्म का इतिहास लिखा जाएगा तो उसमें एक पूरा अध्याय सोहराब मोदी का होगा।

सोहराब मोदी की सबसे बड़ी खासियत यह रही की उनके द्वारा हरेक तरह की सामाजिक, धार्मिक, सुधारवादी और ऐतिहासिक फिल्मों का निर्माण किया गया। प्रायरू हरेक तरह के चरित्र को उन्होंने बेहद संजीदगी से जीया। अपने पांच दशकीय फिल्मी जीवन में कुल 38 फिल्मों का निर्माणए 27 फिल्मों का निर्देशन और 31 फिल्मों में अभिनय करने वाले सोहराब को भारतीय सिनेमा के 75 वर्ष के हीरक इतिहास का साक्षी एवं फिल्मों की शुरुआती दौर का सशक्त चश्मदीद गवाह माना जा सकता है।