हिंदुत्व के प्रति सच्ची भावना से भरे हुए देशभक्त और धर्मनिष्ठ लोगों को यह जानना चाहिए कि ना तो शासन न शिक्षा, न मीडिया, कोई भी महत्वपूर्ण संस्था केवल भावना के बल पर नहीं चलती। उन संस्थाओं के कुछ आधार हैं, कुछ विधिक अधिकार हैं, विधि सम्मत शक्ति है उनके पास। उससे चलती है।
यदि आप की विधि के विषय में, विधिक प्रावधानों के विषय में, विधि में होने वाले परिवर्तनों के विषय में कोई जिज्ञासा ही नहीं है तो आप एक अच्छे बच्चे की तरह अपनी भावनाएं व्यक्त करते रहिए। आपका मन हल्का हो जाएगा। पर काम तो कुछ होने वाला नहीं। सर्वोच्च न्यायालय जो भी निर्णय कर रही है या करती है, जिला न्यायालय से लेकर उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय तक सभी न्यायालय विधि के द्वारा चलते हैं। विधि के स्तर पर बहुत सारे प्रावधान हैं। बहुत से और नए किए जा सकते हैं।
ऐसे प्रावधान किए जा सकते हैं जिनके द्वारा नागरिकों के बीच में रहने वाले आपराधिक और अराजक तत्वों को शीघ्र पहचाना जा सके। उन के विरुद्ध संज्ञेय अपराध निर्धारित किये जा सकें। इसी प्रकार असामाजिक और आपराधिक गतिविधियों में लिप्त लोगों को नगर से बाहर दूर बसाने का भी प्रावधान हो सकता है। लेकिन उसने भी महत्वपूर्ण है कि जैसा सारे संसार में है, बहुसंख्यको के धर्म को राज्य का प्रमुख संरक्षण देना लोकतंत्र की पहली शर्त है और वह इंग्लैंड फ्रांस रूस अमेरिका जर्मनी जापान पाकिस्तान बांग्लादेश अफगानिस्तान सभी जगह है।
भारत को हिंदू द्रोही कांग्रेसियों ने अपवाद रखा। भाजपा भी भारत को अपवाद ही रखे हुए हैं। भारतवर्ष के लोकतांत्रिक गणराज्य को विश्व के अन्य लोकतांत्रिक गणराज्य जैसा क्यों नहीं बनाती? बहुसंख्यकों के धर्म यानी हिंदू धर्म, सनातन धर्म को राज्य में विधिवत विधिक रुप से अधिकृत विशेष संरक्षण क्यों नहीं दिया जाता? न्याय शिक्षा आदि सभी का आधार बहुसंख्यको का धर्म, रीति रिवाज और प्रथाएं ही सारे विश्व में होती हैं।
वह यहां क्यों नहीं होनी चाहिए ?
अगर बहुसंख्यक के लिए आवश्यक न्यूनतम संरक्षण देने में भी भाजपा के लोग कायरता का अनुभव करते हैं तो कोई बात नहीं।
नया शासन हम तुरंत कहां से लाएंगे?
परंतु यह तो किया ही जा सकता है कि भारत के सभी नागरिकों को सार्वभौमिक नियमों के आधार पर, यूनिवर्सल लॉ के आधार पर शासित किया जाए और किसी को कोई विशेष दर्जा नहीं दिया जाए और विशेष दर्जा देकर विशेष संरक्षण नहीं दिया जाए। संसार में कहीं भी राज्य का घोषित कर्तव्य अपने राष्ट्र के नागरिकों के एक वर्ग से संसाधन छीन कर दूसरों को देना नहीं है। भारत में न्याय के नाम पर यही किया जा रहा है।
पहले कथित अस्पृश्य रहे समूहों के लिए किया गया। फिर वनवासी समूहों के लिए किया गया। वहां तक कुछ समय के लिए समझ में आता है। परंतु यह अन्य पिछड़ा वर्ग के नाम से शक्तिशाली भूमि स्वामियों और कृषि पशु तथा अन्य संपत्तियों के प्रमुख स्वामी समूहों को तथाकथित ऊंची जातियों के गरीब वर्गों से भी छीन कर विशेष राजकोषीय तथा राज्यपदीय आरक्षण और सुविधाएं देना। यह तो किसी राष्ट्र को विखंडित करने और नष्ट कर डालने का मार्ग है। कांग्रेस का जो धड़ा शासन में आया वह भारत को नष्ट करने के लिए नियोजित रूप से काम कर रहा था। परंतु भाजपा का जो नेतृत्व है ,वह नियोजित रूप से यह सब नहीं कर सकता।
उसकी संरचना में ऐसा कुछ नहीं है। कायरता का प्रभाव और तेजस्विता का सर्वथा अभाव ही इसका कारण है। अतः बारंबार आग्रह करके भाजपा शासन से आग्रह किया जाए कि न्याय नामक मुख्य कर्तव्य राज्य द्वारा किया जाए।
न्याय के नाम पर सरासर अन्याय बंद किया जाए और कहीं यह वर्ग, कहीं वह वर्ग, कहीं पिछड़े, कहीं अल्पसंख्यक आदि आदि के नाम से अनुचित संरक्षण देकर नागरिकों के साथ खुला भेदभाव बंद किया जाए। जब तक खुला भेदभाव शासन के स्तर पर विधिक प्रावधानों के साथ विद्यमान हैं, तब तक अलग-अलग कोर्ट जो कि राज्य का ही आंगन है, इसलिए कोर्ट कही जाती है, वे उस प्रकार का भेदभाव करती रहेंगी और उसे ही अपना कर्तव्य मानती रहेंगी। सर्वोच्च न्यायालय या किसी भी न्यायालय की प्रत्यक्ष रुप से पक्षपातपूर्ण दिखने वाली भूमिका के लिए उन पर कटाक्ष करना व्यर्थ है। कानून में सुधार शासक दल और विधायिका का काम है। यदि आप उस पर बल नहीं देते तो या तो आप जानबूझकर ऐसा कर रहे हैं या अनजाने कर रहे हैं।
आप चाहते हैं कि कानून का जो ढांचा अंग्रेजों के जाने के बाद अंग्रेजों के उत्तराधिकारियों ने और अधिक बिगाड़ा है, अंग्रेजों से अधिक भारत द्रोह से भरा हुआ ही बनाया है, समाज द्रोही बनाया है, उसमें किसी परिवर्तन की कोई बात ही नहीं की जाए। आधारभूत 2-4 विधिक परिवर्तन भी नहीं किए जाएं और बस भड़ास निकालते रहा जाए, तो मुझे कुछ नहीं कहना।