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सभी समुदायों में मौजूद धार्मिक उदारता को सामने लाने का यही सही समय

दुनिया भर में इस तरह के इस्लामोफ़ोबिया के बेरोकटोक फैलने का एक कारण मुस्लिम समाजों की उन लिपिकीय व्याख्याओं पर सवाल उठाने में विफलता है, जो इस्लाम को एक विशिष्टतावादी और असहिष्णु धर्म के रूप में प्रस्तुत करते हैं।

ए. फ़ैज़ुर्रहमान

universal values of religions: पिछले महीने 57 मुस्लिम देशों के गठबंधन- इस्लामिक सहयोग संगठन (ओआईसी) ने स्कैंडिनेवियाई राष्ट्र पर “पवित्र क़ुरान और इस्लामी प्रतीकों की पवित्रता का बार-बार दुरुपयोग” करने का आरोप लगाते हुए स्वीडन के विशेष दूत का दर्जा निलंबित कर दिया था।

दुनिया भर में इस तरह के इस्लामोफ़ोबिया के बेरोकटोक फैलने का एक कारण मुस्लिम समाजों की उन लिपिकीय व्याख्याओं पर सवाल उठाने में विफलता है, जो इस्लाम को एक विशिष्टतावादी और असहिष्णु धर्म के रूप में प्रस्तुत करते हैं।

 

एक धार्मिक-राजनीतिक गठबंधन

हालांकि, मुस्लिम वर्चस्ववाद एक सहस्राब्दी से अधिक पुराना है, लेकिन आज इसके व्यापक प्रसार की जड़ें मुख्य रूप से अठारहवीं शताब्दी के मध्य में सऊदी साम्राज्य के संस्थापक मुहम्मद बिन सऊद (1687-1765) और मुहम्मद इब्न अब्द अल-वहाब ( 1703-1792), आधुनिक सलाफ़ीवाद के संस्थापक तक जुड़ती हैं, जिनका मानना था कि एकेश्वरवाद की उनकी संकीर्ण समझ की अस्वीकृति मुसलमानों को इस्लाम या काफ़िरों के दायरे से बाहर कर देती है।

इसलिए, सऊद के साथ समझौता पूरे अरब में इस धुंधली व्याख्या को लागू करने के लिए निरंकुश सहमति प्राप्त करने के लिए था। बदले में, इब्न अब्द अल-वहाब ने इस क्षेत्र पर सऊद के शासन को धार्मिक आधार प्रदान करने का वादा किया।

डेविड कमिंस ने “In The Wahhabi Mission and Saudi Arabia” नामक अपनी किताब में  इस सहजीवी समझौते के उल्लेखनीय रूप से बने रहने की ताक़त के बारे में लिखा है कि यह इसी  कारण “दर्दनाक हार और पूर्ण पतन की घटनाओं से बच गया”। और, “Jihad: The Trail of Political Islam” में गाइल्स केपेल बताते हैं कि कैसे, तेल की खोज के बाद सउदी ने वहाबी विचार को दुनिया भर में फैलाया और मुस्लिम समाजों में दान के उदार वितरण और मस्जिदों के निर्माण के माध्यम से इसे आम कर दिया।

इसके अलावा, केपेल लिखते हैं, सऊदी धार्मिक मामलों के मंत्रालय ने दुनिया की मस्जिदों में क़ुरान के लाखों अनुवाद और टिप्पणियां (सलाफ़ी विश्वदृष्टि को दर्शाते हुए) मुफ़्त में भेजीं। यह रणनीति धार्मिक रूप से विविध मुस्लिम दुनिया पर जिस सैद्धांतिक एकरूपता को लागू करने में कामयाब रही, वह इतनी बड़ी है कि यह आज ये सभी मिलकर मुस्लिम सोच में बाधा डालते हैं।

इस तथ्य की एक सांकेतिक स्वीकृति में सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान (एमबीएस) ने मार्च 2018 में द वाशिंगटन पोस्ट को बताया कि विदेशों में मस्जिदों और मदरसों में निवेश शीत युद्ध में निहित था, जब सहयोगियों ने सोवियत संघ द्वारा मुस्लिम देशों में घुसपैठ को रोकने के लिए सऊदी अरब से अपने संसाधनों का उपयोग करने के लिए कहा था।

 

संयम का स्वागत

बहरहाल,एमबीएस द्वारा वहाबी विचारधारा का सार्वजनिक रूप से खंडन करना और इस्लाम की उदारवादी व्याख्याओं पर ज़ोर देना सऊदी अरब के इतिहास में एक युगांतकारी दौर है, जिसे मुस्लिम विचारों पर पड़ने वाले परिवर्तनकारी प्रभाव के कारण समर्थन की आवश्यकता है।

सऊदी अरब के पुनर्गठित उद्देश्य – इस्लामी संयम के अनुसरण में मक्का स्थित मुस्लिम वर्ल्ड लीग (एमडब्ल्यूएल) के महासचिव, श्री मोहम्मद बिन अब्दुल-करीम अल-इस्सा  इस बारे में बात करने के लिए पिछले महीने भारत में थे।उन्होंने कहा था कि “सभ्यताओं के टकराव” के भाग्यवादी विचार का मुक़ाबला करने के लिए “सभ्यताओं के गठबंधन” की आवश्यकता है। मुस्लिम वर्ल्ड लीग (एमडब्ल्यूएल) जिसे वह “संयम का भविष्यसूचक दृष्टिकोण” कहता है, उसके प्रचार के पीछे की असली शक्ति है।

11 जुलाई को दिल्ली में इंडिया इस्लामिक कल्चरल सेंटर (IICC) में मुसलमानों को अपने संबोधन में (जिस दौरान यह लेखक भी मौजूद था),अल-इस्सा ने कहा था कि इस्लाम एक सहिष्णु और खुला धर्म है, जो मुसलमानों को सभी के साथ शांति से रहने के लिए बाध्य करता है।

 

उग्रवाद की एटियोलॉजी(यानी उत्पत्ति विज्ञान)

इस्लाम की अंतर्निहित सहिष्णुता को उजागर करने की आवश्यकता है, क्योंकि तालिबान जैसे समूहों द्वारा प्रदर्शित उग्रवाद की जड़ें ग़ैर-मुसलमानों को काफ़िर के रूप में अलग करने और उन्हें इस्लाम का पालन न करने के लिए मोक्ष से परे मानने में निहित हैं।

लेकिन, कुरान में उद्धृत काफ़िर ग़ैर-मुस्लिम नहीं हैं। यह कोई भी (मुसलमान सहित) हो सकता है, जो जानबूझकर सत्य को अस्वीकार करता है और दबाता है, या कृतघ्न है। इस प्रकार यह धार्मिक विश्वास नहीं, बल्कि कृतघ्नता और स्थापित तथ्यों का खंडन है, जो किसी व्यक्ति को काफ़िर बनाता है।

अगर आज मुसलमान क़ुरान की भाषा और मंशा के दर्शन को लेकर अंधेरे में हैं, तो इसका कारण यह है कि सांप्रदायिक व्याख्याताओं ने इसे मान्यता से परे विकृत कर दिया है। यहां इसका एक उदाहरण दिया जा सकता है। द नोबल क़ुरान (सऊदी अरब से सबसे व्यापक रूप से वितरित अंग्रेज़ी अनुवादों में से एक) सूरा 1: 6-7 में एक प्रार्थना प्रस्तुत करता है, “हमें सीधे रास्ते पर मार्गदर्शन करें।” उन लोगों का मार्ग, जिन पर आपने अपनी कृपा की है, उनका नहीं (जैसे कि यहूदियों का), जिन्होंने आपका क्रोध अर्जित किया (जैसे यहूदियों का), और न ही उनका, जो भटक गये (जैसे कि ईसाई)।”

यहूदियों और ईसाइयों का यह संदर्भ क़ुरान के अरबी पाठ का हिस्सा नहीं है। दूसरे शब्दों में, यह कोष्ठक प्रक्षेप (जो ऑनलाइन आसानी से उपलब्ध है) मुसलमानों को क़ुरान के मूल अर्थ का उल्लंघन करते हुए यहूदी धर्म और ईसाई धर्म के अनुयायियों को हेय दृष्टि से देखने की शिक्षा देता है।

वास्तव में अधिकांश सलाफ़ी विचारधारा वाले अनुवाद इसी तरह के विचारधारात्मक निष्कर्षों से भरे-पड़े हैं। 5:77 में कुरान तथ्यों के इस तरह के उपहास पर रोक लगाता है और मुसलमानों को बताता है कि सच्चाई (ग़ैरल हक़) के अलावा किसी भी चीज़ का प्रचार अतिवाद (ग़ुलु) का कार्य है।

यदि इस्लाम की उदारता को दुनिया भर में सफलतापूर्वक प्रचारित करना है, तो सऊदी अधिकारियों को यह देखना होगा कि उनकी धरती से प्रसारित अनुवादों की दोबारा जांच की जाए और क़ुरान के मूल इरादे को प्रतिबिंबित करने के लिए उन्हें बदला जाए।

 

भारतीय मुसलमान

भारत में मुस्लिम समुदाय शायद दुनिया का एकमात्र ऐसा इस्लामी समाज है, जो किसी भी चरमपंथी विचारधारा के प्रलोभनों के आगे नहीं झुका। इस तथ्य का समर्थन तब हुआ, जब भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार श्री अजीत डोभाल ने आईआईसीसी में अल-इस्सा के बाद बोलते हुए बताया कि उनकी विशाल आबादी के बावजूद वैश्विक आतंकवाद में भारतीय मुसलमानों की भागीदारी “अविश्वसनीय रूप से कम” रही है।

श्री डोभाल ने चेतावनी दी कि यदि समुदाय एक साथ नहीं चलते हैं, तो वे “एक साथ डूबने के लिए अभिशप्त” हैं। क्योंकि “केवल राष्ट्रों, नागरिक समाजों, धर्मों और दुनिया के लोगों के बीच आपसी विश्वास और सहयोग से ही सभी नागरिकों के लिए सुरक्षा, स्थिरता, सतत विकास और सम्मानजनक जीवन सुनिश्चित किया जा सकता है”।

 

एनएसए अजीत डोभाल

NSA Ajit Doval

पिछले महीने नई दिल्ली में इंडिया इस्लामिक कल्चरल सेंटर में ख़ुसरो फ़ाउंडेशन द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (NSA) अजीत डोभाल (फ़ोटो: सौजन्य: ख़ुसरो फ़ाउंडेशन)

श्री डोभाल की सांप्रदायिक सहयोग की इस ज़बरदस्त वकालत को आगे बढ़ाने की ज़रूरत इसलिए है, क्योंकि हाल ही में मणिपुर और हरियाणा में देखी गयी भयावह तरह की अनावश्यक हिंसा से हमारे देश की प्रगति गंभीर रूप से प्रभावित हो सकती है।

इस्लामोफ़ोबिया के संदर्भ में हिंदुओं और उनके धर्म को बचाने के नाम पर मुसलमानों की ग़ैर-न्यायिक हत्या, मस्जिदों को जलाना, मुसलमानों के सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार का आह्वान करना और मुसलमानों को शहर छोड़ने या घर ख़ाली करने के अल्टीमेटम से हमारी पोल खुलनी चाहिए। इस कड़वी सच्चाई पर नज़र है कि संयम का पालन केवल किसी एक समुदाय के सदस्यों द्वारा ही नहीं किया जाना चाहिए।

उपरोक्त अत्याचारों के अपराधियों के ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्रवाई करने के अलावा उन्हें यह समझाना होगा कि हिंदू धर्म के आत्मसात बहुलवाद का दायरा इतना व्यापक है कि यह वैष्णववाद, शैववाद, बौद्ध धर्म, वेदांत, मीमांसा और यहां तक कि नास्तिक चार्वाक विचारधारा जैसे विविध दर्शनों को भी समायोजित कर लेता है।

ऐसे में लोकतांत्रिक भारत में इस्लाम, ईसाई धर्म और अन्य धार्मिक या ग़ैर-धार्मिक विश्वास प्रणालियां हिंदू धर्म के साथ शांतिपूर्वक सह-अस्तित्व में क्यों नहीं रह सकती हैं ? हमारे प्रधानमंत्री का भी यही मतलब था, जब उन्होंने हाल ही में अमेरिका की अपनी यात्रा के दौरान कहा था कि भारत में “जाति, पंथ, लिंग, धर्म के आधार पर भेदभाव के लिए कोई जगह नहीं है।”

अंत में आत्म-संयम और संयम समाजशास्त्रीय परिवर्तन के तंत्र हैं। यदि हम नफ़रत को सद्भाव में बदलने के लिए उनका उपयोग नहीं करते हैं, तो शांति और प्रगति कभी हाथ नहीं आने वाली।

 

(ए. फ़ैज़ुर्रहमान इस्लामिक फ़ोरम फ़ॉर द प्रमोशन ऑफ़ मॉडरेट थॉट के महासचिव हैं। यह लेख पहली बार 16 अगस्त, 2023 को द हिंदू में प्रकाशित हुआ था)

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