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Religion & Science: धर्म,विज्ञान और चंद्रयान

प्रतीकात्मक फ़ोटो(साभार: विज्ञानम)

उपेंद्र चौधरी

Religion & Science: धर्म एक ऐसा भाव है,जो निराशाओं और रोज़-रोज़ के संघर्ष में उम्मीद की रौशनी दिखाता है।विज्ञान वह तार्किक परिणति है,जो बिना किसी भाव के हक़ीक़त को रौशन करता जाता है।जिन्होंने धर्म को अपने हाथों में रखा है,अगर उनकी चाल बिगड़ती है,तो समाज बेताल हो जाता है,धार्मिक आतंक पैदा होकर मनुष्य जगत का भस्मासुर बन जाता है और विज्ञान जिनके हाथों में है,अगर उनका मन बहकता है,तो परमाणु बम गिरता है,वैज्ञानिक तबाही पसर जाती है।लेकिन,सालों से दोनों की यात्रायें चलती रही हैं।दोनों के बीच की चेतना और निश्चेतना कई बार एक ही समय में सामने आती रहती हैं।

चंद्रायण-3 का विक्रम लैंडर जैसे ही चांद की सतह पर सॉफ़्ट लैंडिंग कर गयीं,अंधविश्वास चारों खाने चित्त हो गया और कई धार्मिक कहानियां ध्वस्त हो गयीं या फिर एक नया अर्थ हासिल कर गयीं या फिर व्याख्या का नया संदर्भ पाने की बाट जोहने लगीं।

इस्लाम और चांद
इस्लाम में भी चांद को लेकर कई कहानियां हैं।मगर,इस्लाम जिस पैग़म्बर को अपना आख़िरी रसूल मानता है,उनकी ज़िंदगी के कुछ अफ़साने ऐसे हैं,जिनमें उनकी सामने रखी जाने वाली शख़्शियत से नहीं मेल खाने वाले फ़साने भी हैं।कई ऐसे फ़साने हैं,जो एक तरह से पौराणिक कहानियां बन गये हैं,पौराणिक कहानियां इसलिए,क्योंकि उनकी तार्किक शख़्सियत इन कहानियों से बिल्कुल ही मेल नहीं खाती हैं।
कहा जाता है कि जिस दिन उनके बेटे इब्राहिम की मौत हुई थी,उस दिन सूर्य ग्रहण लगा था। लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि नौजवान बेटे की मौत से पैग़म्बर उदास हैं,इसलिए पैग़म्बर की उस उदासी में सूरज भी उनके साथ हो गया है,इसलिए सूर्य ग्रहण हुआ है। यह बात लोगों से गुज़रती हुई पैग़म्बर तक पहुंची। उन्होंने तत्काल शहर के लोगों को इकट्ठा किया और बेबाकी से बताया कि किसी की मौत से सूर्य या चंद्र ग्रहण का कुछ भी नहीं लेना देना। ये दोनों भी बाक़ियों की तरह अल्लाह,यानी क़ुदरत की दो निशानियां हैं,परिघटनाओं की दो क्रियायें हैं।
लेकिन,इस तरह की तार्किक बातें करने वाले पैग़म्बर के नाम से एक ऐसी कहानियां भी है,जो अंधविश्वास के ख़िलाफ़ बनी उनकी तार्किक शख़्सियत के ही विरुद्ध हो जाती है।ऐसी ही एक कहानी है,चांद के दो टुकड़े करने की।पैग़म्बर में कोई दिखावा नहीं था।उनका कोई ख़ास पहनावा भी नहीं था।लिहाज़ा,कुछ लोगों को शक था कि इतना मामूली सा दिखने वाला शख़्स आख़िर नबी कैसे हो सकता है। कहते हैं कि यह बात उनतक पहुंची और उन्होंने सबके सामने आसमान में दो ऊंगलियां घुमा दीं और चांद के टो टुकड़े हो गये।उल्लेखनीय है कि पैग़म्बर तार्किक थे और जादू जैसे अंधविश्वास में उनका बिल्कुल ही यक़ीन भी नहीं होना था।लेकिन,हर धर्म के बने रहने के लिए कुछ जादूई कहानियों की दरकार होती है और बाद में इस तरह की तिलस्म सी कहानियां गढ़ ली जाती हैं।आख़िर ऐसा हुआ होता,तो धरती पर टुकड़े होने की आवाज़ भले ही नहीं सुनायी दी होती,मगर टुकड़ा हुआ चांद ज़रूर दिखायी देता और यह कोई ऐसी मामूली घटना तो कत्तई नहीं होती,जिसका दुनिया भर की किताबों में ज़िक़्र नहीं होता,क्योंकि तबतक दुनिया के अलग-अलग हिस्सों के बीच संवाद और आना-जाना ख़ूब होने लगा था और इतनी बड़ी घटना की अनदेखी संभव ही नहीं थी।
इस्लाम में चांद का महत्व है,क्योंकि चंद्रमास को ही यहां फॉलो किया जाता है और चांद को देखकर ही तमाम तिथियां तय की जाती हैं।ऐसे में समय के साथ चांद और तारे इस्लाम का मानो ट्रेडमार्क बन गये हैं।लेकिन,इस्लाम को मानने वाले देशों ने लगता है कि चांद को भुला दिया है।पैग़म्बर की उस तार्किकता की भी अनदेखी कर दी है,जिसका एक्सटेंसन चौथे ख़लीफ़ा और पैग़म्बर के दामाद हजरत अली की शख़्सियत में उतरकर अद्भुत बन गयी थी।कहते हैं,हज़रत अली बिना तर्क के बात नहीं करते थे और बिना सबूत के कुछ मानते भी नहीं थे।

बैतुल हिक़मत
इस्लामिक जगत में तर्क-वितर्क और ज्ञान-विज्ञान की इस रौशनी की बड़ी मिसाल बग़दाद का बैतुल हिक़मत,यानी हाउस ऑफ़ विज़्डम था।इसकी स्थापना 8वीं शताब्दी के अंत में अब्बासिद ख़लीफ़ा हारुन अल-रशीद ने एक निजी पुस्तकालय के रूप में किया था। यहां दुनियां की तमाम किताबों का अनुवाद करवाया जाता था। अल-मामुन के शासनकाल में इसे एक सार्वजनिक अकादमी में बदल दिया गया। धीरे-धीरे बैतुल हिक़मत दुनिया भर के विद्वानों और बुद्धिजीवियों के जुटने की एक ऐसी जगह बन गयी,जहां सिर्फ़ अलग-अलग स्कूल ऑफ़ फ़िलॉस्फ़ी,इतिहास,भूगोल और गणित जैसे तमाम विषयों पर गहरी बहस ही नहीं होती थी,बल्कि एक्सपेरिमेंट के लिए समृद्ध लैबोरेटरीज़ भी स्थापित किये गये थे।
बैतउल हिक़मत के चीफ़ लाइब्रेरियन में ‘मुहम्मद अल ख्वारिज़्मी’ भी थे, जिन्होंने “अल-किताब अल-मुक्तसर फ़ी हिसाब अलज़ब्र वा अल-मुक़ाबला” लिखी थी।इस किताब में बीजगणित के समस्याओं के हल करने के आसान तरीक़े बताये गये हैं।उन्होंने ‘किताब अल-ज़बर’ नामक अपनी किताब में एल्गोरिदम की संख्या को भी विकसित किया था।अलज़ेब्रा और ‘एल्गोरिदम’ जैसी शब्दावलियां मुहम्मद अल ख्वारिज़्मी की इन्हीं किताबों से ली गयी हैं। अल-मामुन ने धरती की परिधि पर अनुसंधान करवाया और एक भौगोलिक परियोजना की शुरुआत करवायी।इसी का नतीजा था कि विश्व का बेहद विस्तृत मानचित्र दुनिया के सामने आ पाया।
बैतुल हिक़मत यानी हाउस ऑफ़ विज़्डम की सबसे बड़ी भूमिका यह थी कि वह दुनिया में हो चुके या हो रहे खोजों और आविष्कारों,ज्ञान-विज्ञान को एक कोने से दूसरे कोनों तक पहुंचाने में पुल का काम कर रहा था।धीरे-धीरे यह शोध और अनुसंधान केंद्र के रूप में विकसित हो रहा था।लेकिन,1258 में इस पर मंगोलों की नज़र लग गयी।बग़दाद की घेरेबंदी के बाद इसे बेतरह लूटा गया,क़त्लेआम किया गया और बैतुल हिक़मत तहस-नहस कर दिया गया,1199 में जिस तरह बख़्तियार खिलजी ने नालंदा विश्वविद्यालय को आग के हवाले कर दिया था,ठीक उसी तरह बैतुल हिक़मत भी मंगोलों की बेरहमी के अंगारों से धू-धूल जलता रहा। आग लगाने से पहले घेरेबंदी के दौरान भले ही अल-दीन अल-तुसी ने लगभग 4,00,000 किताबें को बचा ले गया हो,मगर बैतुल हिक़मत नहीं बचाया जा सका और इसके साथ ही इस्लामिक जगत धीरे-धीरे उस तर्क-वितर्क और ज्ञान की रौशनी और सुधार से दूर होता गया,जिसकी नींव पैग़म्बर मोहम्मद ने डाली थी।इसके बाद धीरे-धीरे इस्लाम राजनीति का ऐसा हथियार बनता गया,जिसकी शान हदीस और क़ुरान की रिग्रेसिव व्याख्या से चढ़ती गयी और बैतुल हिक़मत क़िस्से कहानियों में क़ैद होकर रह गया।
इस्लामिक जगत में इस्लाम और विज्ञान के बीच का वह रिश्ता कहीं खो गया,जिसके अरबी शब्दों से कभी बीजगणित के लिए अलज़ेब्रा,भूगोल के लिए ज्योग्राफ़िया और रसायन विज्ञान के लिए कीमिया,यानी केमिस्ट्री जैसे संज्ञात्मक शब्द आये थे। इसमें इस्लाम का नहीं,बल्कि उसे जिस फ़ॉर्म में माना जा रहा है,दोष उसका है और एक ज़बरदस्त सुधार आंदोलन की दरकार है। इस लिहाज़ से सऊदी अरब के प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान,यानी एमबीएस एक नयी उम्मीद की तरह हैं।

इसाइयत और विज्ञान
यहां भी जो कहानियां हैं,वे स्याह तो हैं,मगर उन स्याह कहानियों से समय-समय पर तार्किक संकल्पों ने लोहा लिया है,क़ुर्बानियां दी हैं और विज्ञान की मुश्किल राहों को आसानियां बख़्शी हैं। आज विज्ञान से जगमगाते जिस यूरोप को हम जानते हैं,वह कभी अंधेरे के हवाले था।उसे धर्म पर सवाल उठाना बर्दाश्त नहीं था और इसके शिकार ऐसे लोग हुए,जिन्हें झूठ से बने अंधेरों के बीच हक़ीक़त की लौ दिखायी पड़ती थी।
बाइबिल कहता है कि पृथ्वीि हमारे अंतरिक्ष का केंद्र है और सूर्य हमारी पृथ्वी़ के चारों ओर चक्कजर काटता है।यही वह धारणा थी,जिसे किसी भी क़ीमत पर चर्च बनाये रखना चाहता था।चर्च को ऐसी कोई बात मंज़ूर नहीं थी,जो उसकी बाइबिल में लिखे हुए शब्द-दर-शब्द से टकरती हों।

बाइबिल पर पहला सवाल
बाइबिल,चर्च और रुढ़िवादी पादरियों की पहली बड़ी टकराहट हाइपेशिया से हुई। हाइपेशिया ने बताया था कि अंतरिक्ष का केंद्र सूर्य नहीं, पृथ्वीद है।यह सिद्धांत चर्च को मंज़ूर नहीं था,क्योंकि यह सिद्धांत पृथ्वी को लेकर बाइबिल की धारणा से बिल्कुल उलट था। हाइपेशिया अलेक्जें ड्रिया की लाइब्रेरी में पढ़ती रहती थीं। बाइबिल की उस धारणा को बचाना था,जो हाइपेशिया को ठिकाने लगा था।षड्यंत्र रचा गया और एक दिन लाइब्रेरी को आग के हवाले कर दिया गया और उस भीषण आग में दोनों को जलाकर भस्म कर दिया गया। यह कहानी बाद में भारत के नालंदा विश्वविद्यालय और बग़दाद के बैतूल हिक़मत के जलाये जाने की याद दिलाती है। फ़र्क़ इतना था कि नालंदा और बैतूल हिक़मत को बाहरी आक्रमणकारियों ने जलाया था,मगर अलेक्ज़ेंड्रिया को अपनों ने राख में तब्दील कर दिया था।नालंदा को अलग धर्म से सम्बन्धित होने की सज़ा मिली थी,बैतूल हिक़मत को लूटे जाने की सज़ा मिली थी और अलेक्जेंड्रिया को बस इस बात की सज़ा मिली थी कि उसमें एक ऐसी शख़्स बैठा करती थी,जिसे उस साइंस और तर्क-वितर्क से प्यार था,जो पृथ्वी को लेकर बाइबिल की धारणाओं को चुनौती मिल रही थी।

कोपरनिकस की किताब बनी गले की फ़ांस
अब सालों बाद चर्च की टकराहट कोपरनिकस से होनी थी। कोपरनिकस पोलैंड का रहना वाला था। टालेमी का सिद्धांत था कि पृथ्वी के चारों तरफ़ बाक़ी खगोलीय पिंड चक्कर लगाते हैं। मगर,इस सिद्धांत से कई ऑबजर्वेशन को आधार नहीं मिल पा रहा था,तार्किकता डगमगा रही थी। ऐसे में कॉपरनिकस ने सूर्य को केंद्र में रखकर पृथ्वी का अध्ययन करना शुरू कर दिया।ऐसा करते ही खगोलीय गणनायें एकदम से फिट बैठने लगीं।कोपरनिकस चर्च के क़रीब था और चर्च के पैसे से बाइबिल की धारणाओं को स्थापित करने के उद्देश्य से तैयार की गयीं वेधशालाओं का इस्तेमाल कॉपरनिकस किया करता था। ऐसे में उसे मालूम था कि उसके सिद्धांत के सामने आते ही चर्च की प्रतिक्रिया कैसी होगी।उसने बाइबिल के मत से अलग अपनी वैज्ञानिक धारणाओं को लेकर एक किताब लिखी,उसकी यह किताब “Commentariolus”,यानी लिटिल कॉमेंट्री,यानी छोटी टिप्पणी या लघु टीका। लेकिन,किताब के छपते ही खलबली मच गयी और वह अगले सौ सालों तक दुनिया की नज़रों से ओझल कर दी गयी,धरती के नीचे दफ़्न कर दी गयी।मगर,इस किताब की कुछ कॉपियां कुछ लोगों के बीच बची रहीं।

धर्म का छल और ब्रूनो की शहादत
मगर,कोपरनिकस के मरने के 75 साल बाद पादरी बनने की चाह में इटली का एक नवयुवक गीयरदानो ब्रूनो के हाथ “Commentariolus” आ गयी।वह इस विचार से उस किताब को पढ़ना शुरू कर दिया कि आख़िर इसमें ऐसा क्या कुछ है कि कोपरनिकस ने चर्च से रार मोल ले ली। जैसे-जैसे वह उस किताब को पढ़ता गया,चर्च से उसकी भी रार ठनती गयी और किताब ख़त्म करने के बाद पादरी बनने की उसकी चाहत ध्वस्त हो गयी।सबसे पहले तो वह इटली से निकल भागा और चर्च से अलग अपना मत जगह-जगह रखने लगा।लेकिन चर्चा उसे कहां छोड़ने वाला था। चर्च उसके पीछे पड़ा रहा और वह छिपता और भागता रहा।हर संभव प्रयास विफल होने के बाद चर्च ने छल का रास्ता अपनाया।चर्च ने एक शख़्स को इस तरह तैयार किया कि वह ब्रूनो को बताये कि वह उससे पढ़ना चाहता है।ब्रूनो को यह प्रस्ताव पसंद आया।वह बताये गये ठिकाने पर पहुंच गया।मगर,पहले से घात लगाये बैठे चर्च के लोगों ने उसे वहां से धर दबोचा,वह गिरफ़्तार कर लिया गया।
ब्रूनो से कहा गया कि अगर वह ज़िंदगी जीना चाहता है,तो अपना मत वापस ले,मगर वह अड़ा रहा।मनवाने के लिए उसे तरह-तरह की यातनायें दी गयीं।छ: साल तक इस बात का इंतज़ार किया गया कि ब्रूनो चर्च से अपनी असहमति ख़त्म करे। मगर, वह ज़रा भी नहीं हिला।फिर उस पर मुकदमा चलाया गया। मुकदमें में जो फ़ैसला किया गया,वह अजीब-ओ-ग़रीब था कि ब्रूनो की मौत की ऐसी सज़ा दी जाए,जिसमें ख़ून की एक बूंद न गिरे।
ब्रूनो को रोम के कैंपो डी फ्योरी स्कवायर लाया गया। खूंटे से जकड़ दिया गया। मुंह में कपड़े ठूंस दिए गए और 1600 की 17 फ़रवरी को उसे बंधे हुए खूंटे में ज़िंदा जला दिया गया।ब्रूनों ने सज़ा पाने से पहले अपनी आख़िरी बात कही थी कि “जो लोग मुझे सज़ा दे रहे हैं,वे सबके सब मुझसे डरे हुए हैं।”
करुणा का धर्म कहे जाने वाले इसाई धर्म के नेतृत्व ने ब्रूनो को बेरहमी से मार डाला। लेकिन चर्च की धारणाओं को मिली चुनौती आगे बढ़ती रही और एक समय ऐसा भी आया,जब चर्च का हस्तक्षेप राजनीतिक और वैज्ञानिक मामले में पूरी तरह बंद हो गया और यहीं से शुरू हुई यूरोप के औद्योगिक क्रांति और आधुनिकता की शुरुआत की कहानियां,जिसमें मरा हुआ ब्रूनो अब यूरोप में नहीं,औपनिवेशिक देशों में ज़िंदा था और अजीब विडंबना है कि अब इसकी लड़ाई चर्च से नहीं,बल्कि बाइबिल के मूल्यों-करूणा को स्थापित करने को लेकर उसी के महादेश और देश की औपनिवेशिक ताक़तों से थी।

सनातन,या हिंदू धर्म और चांद
भारतीय परंपरा में भी चांद को लेकर अनेक कहानियां हैं।इन कहानियों में से एक कहानी चांद के दाग़ की भी है।शिव और सती के जीवन से जुड़ी हुई पौराणिक कहानी।यह कहानी कुछ इस तरह है कि एक बार ब्रह्मा की सभा हुई। सभा में शिव भी आये और दक्ष प्रजापति भी आये।उनके आते ही सब उठ खड़े हुए।लेकिन,शिव अपनी जगह बैठे रहे। दक्ष को क्रोध आया और वह भरी सभा में शिव की जमकर नींदा कर डाली और शाप दे दिया।मगर,दक्ष का मन तब भी नहीं भरा।शिव के अपमान के उद्देश्य से दक्ष ने एक बड़े यज्ञ का आयोजन किया और तय किया गया कि उसमें शिव और पार्वती दोनों को नहीं बुलाया जाए। यज्ञ आयोजन की कहानी सुनकर पार्वती बिह्वल हो गयीं और जाने से मना करने के बावजूद शिव को यह समझा पाने में सफल हो गयीं कि बिना बुलाये भी माता-पिता और गुरु के यहां बेहिचक चले जाना चाहिए। पार्वती अपने पिता दक्ष के यहां पहुंच तो गयीं।लेकिन,यहां पहुंचते ही मां को छोड़कर सबने सती को कोई भाव नहीं दिया।ऊपर से घर में शिव की जमकर नींदा की गयी। सती इस अपमान को सह नहीं पायीं और आत्मदाह कर लिया। शिव ने इस आत्मदाह के लिए दक्ष को ज़िम्मेदार माना और उनका वध करने के लिए निकल पड़े।
नज़र आते ही दक्ष पर शिव ने बाण चला दिया। राजा दक्ष ने तुरंत मृग का रूप धारण कर लिया और चंद्रमा में जा छिपा। दक्ष का वही मृग वाला रूप चंद्रमा में धब्बे की तरह दिखायी देने लगा।चूंकि,दक्ष ने जो कुछ किया था,वह उचित नहीं था और उसका चंद्रमा के भीतर छुप जाना चंद्रमा के लिए एक तरह से दाग़ था।इसीलिए, चंद्रमा का नाम मृगांक हो गया,मृगांक,यानी मृग और अंक।मृग,यानी हिरण और अंक,यानी कलंक या दाग़।
स्कन्द पुराण के अनुसार, देवों और असुरों ने मिलकर सागर मंथन किया और इस मंथन से चौदह रत्न उपलब्ध हुए,चंद्रमा उन्हीं चौदह रत्नों में से एक रत्न है।
चंद्रमा का विवाह दक्ष प्रजापति की 27 कन्याओं से हुआ था। इन कन्याओं का नाम रोहिणी, रेवती, कृतिका, मृगशिरा, आद्रा, पुनर्वसु, मेघा, स्वाति, चित्रा, फाल्गुनी, हस्ता, राधा, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूला, सुन्निता, पुष्य अश्व्लेशा, अषाढ़, अभिजीत, श्रावण, सर्विष्ठ, सताभिषक, प्रोष्ठपदस, अश्वयुज और भरणी हैं। 27 नक्षत्रों के नाम भी यही हैं। चंद्रमा 27 नक्षत्रों की परिक्रमा करता है। यह परिक्रमा ही चंद्र मास कहलाता है।
ऊपर की दोनों कहानियां यह बताती हैं कि सनातन या हिंदू धर्म की कहानियों में पौराणिकता और ऑबजर्वेशन कुछ इस तरह एक-दूसरे में घुलमिल गये हैं कि विज्ञान को छान पाना एक बड़ी चुनौती बन गयी है और इस तरह की चुनौती का अस्तित्व ही असल में विज्ञान के लिए बड़ी चुनौती है,क्योंकि ईसा की करुणा और प़ैगम्बर की तार्किकता को जिस तरह बाद के व्याख्याकारों ने रंग बदल दिए,उसी तरह भारतीय संदर्भ में पौराणिक कहानियों की भी दुर्दशा होनी थी। लेकिन,सुखद यह है कि सनातन या हिंदू धर्म की समग्रता में समर्थन-विरोध दोनों का सहअस्तित्व है,जो इसे नरम बनाता है,बदल जाने और बदल पाने के अनुकूल इकोसिस्टम देता है और विज्ञान की राह धर्म से इस तरह बाधित नहीं हो पाती कि किसी को हाइपेशिया या ब्रूनो बना दिया जाए।
शायद इसीलिए आर्यभट्ट ने लगभग पंद्रह सौ साल पहले उस धारणा की धज्जी उड़ा दी थी कि राहु चंद्रमा को निगल लेता है,इसीलिए चंद्र ग्रहण होता है। 23 की उम्र में आर्यभट्ट का यह पुख़्ता ऑबजर्वेशन था कि धरती अपनी धुरी पर घूमती है और चन्द्रमा और सूर्य के बीच पृथ्वी के आ जाने से और उसकी छाया चंद्रमा पर पड़ता है,ऐसे में ‘चंद्रग्रहण’ होता है।
इसी तरह, वराहमिहिर ने अपने ग्रंथ “सूर्य सिद्धांत” में कहा कि चंद्रमा और अन्य ग्रह की चमक की वजह सूर्य का प्रकाश है।लेकिन, दूर चमकते चांद को छोटे बच्चों के मामा कहने से भी यहां गुरेज़ नहीं है,क्योंकि बच्चों की भावनायें,बुद्धि और यौनिकता एकदम से समानांतर होती हैं।चंदा मामा ठीक वैसा ही कुछ है,जैसा कि हितोपदेश की सदियों पहले कही गयी कहानियां हैं और आज टेलीविज़न पर दिखाये जाने वाली एनिमेशन फ़िल्में हैं,जिनमें सोशलाइजेशन और जीने की कला सिखायी जाती है।ज़ाहिर है कि जीने की यह कला,विज्ञान के बिना अधूरी है और छूछ विज्ञान भी जीने की इस कला से वंचित होकर कुछ भी नहीं !
यही वजह है कि भारत के भाभा एटोमिक रिसर्च सेंटर(BARC) या इसरो का चीफ़ मुसलमान,इसाई या हिंदू हो सकता है,क्योंकि इससे यहां के विज्ञान को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता,लेकिन पाकिस्तान जैसे मुल्क को इस बात से बहुत फ़र्क़ पड़ता है कि स्पेस एंड अपर एटमॉसफ़ेयर रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन (SUPARCO) का चीफ़ एक ऐसा व्यक्ति भला कैसे हो सकता था,जो आस्था से कादियानी था।बाद में पाकिस्तान में कादियानियों को एक क़ानून पास करके काफ़िर क़रार दिया गया।अब्दुस्लाम पाकिस्तान को पहला नोबल पुरुस्कार तो दिला दिया,लेकिन पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के रहबाव में दफ़नाये गये इस वैज्ञानिक की क़ब्र पर ख़ुद “पहले मुस्लिम नोबल पुरस्कार विजेता” से “मुस्लिम” शब्द को खुरचकर हटा दिया गया।
चंद्रयान-1 और 2 कि विफलता से चंद्रयान-3 की सफलता विज्ञान को लेकर दुनिया के उन तमाम हाइपेशिया और ब्रूनों की शहादत और अब्दस्लामों के अपमान से गुज़रते हुए उस सामुदायिक और धार्मिक सद्भाव की ही कामयाबी है,जिसके मेनटेन होने की शर्त पर ही कोई देश विज्ञानसम्मत बनता है।धर्म मूल्य देता है, विज्ञान उन मूल्यों को जीने की सहूलियत उपलब्ध कराता है और इन दोनों का संघर्ष उस साझा शक्ति से है,जो इन दोनों का इस्तेमाल अपने हक़ में करना चाहता है।चंद्रयान-3 भारत की महज़ कामयाबी ही नही है,बल्कि एक साथ कई संदेश देता एक ऐसा मानवीय मिशन भी है,जिसका मक़सद है-सच की तलाश।यह तलाश धरती पर इंसान के पहले क़दम पड़ने के साथ ही शुरू हो गयी थी।यह तलाश मनुष्य के बने रहने तक जारी रहेगी।यह तलाश थोड़े आसान हो सकती है,अगर धर्म थोड़ा वैज्ञानिक हो जाए और विज्ञान थोड़ा धार्मिक हो जाए,क्योंकि इस आधुनिक से अत्याधुनिक हो रहे दौर में साफ़-साफ़ देखा जा सकता है कि धर्म की अवैज्ञानिकता आतंक और बर्बादी पैदा करती है,वहीं विज्ञान की अधार्मिकता,यानी नैतिकता से बढ़ती दूरी हीरोशीमा तथा नागासाकी और सीरिया का अलेप्पो शहर बन जाता है।