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क्यों आवश्यक है बांग्लादेश में धर्मनिरपेक्षता की बहाली

प्रधानमंत्री शेख हसीना बांग्लादेश में धर्मनिरपेक्षता के एक संकटग्रस्त रक्षक हैं

7 मार्च 1971 को बांग्लादेश (Bangladesh) के लोगों ने एक हारी हुई बाज़ी को जीत में बदलने की ओर रुख़ किया था। उस दिन जब बंगबंधु शेख मुजीबुर्रहमान ढाका में एक लाख लोगों की भीड़ को संबोधित करने के लिए उठे थे, तो वे अपने साथी बंगालियों को सिर्फ़ यह बताने के अलावा भी बहुत कुछ कर रहे थे कि उनके सामने आज़ादी का रास्ता खुल गया है।
थोड़े से शब्दों में कहा जाए,तो वह इस विचार को बुलंद कर रहे थे कि बांग्लादेश के लिए मुक्ति और राष्ट्रीय स्वतंत्रता का उनका पैग़ाम पाकिस्तान के गढ़ से दूर मूल रूप से बंगाली सांस्कृतिक और राजनीतिक विरासत का फिर से किया जाने वाला दावा था। यह धर्मनिरपेक्षता पर टिका एक ऐसा सिद्धांत था, जो इस विश्वास से भरपूर था कि बांग्लादेश धार्मिक विभाजन से त्रस्त लोगों के लिए एक बसेरा बन गया था।

बावन साल बाद मुजीब का धर्मनिरपेक्ष बांग्लादेश का संदेश यह देखते हुए एक गंभीर पड़ताल की मांग करता है कि उनकी हत्या के बाद के दशकों में ग़ैर-धर्मनिरपेक्षता के रूपाकार में राजनीतिक अनुदारवाद ने राष्ट्र की भावना को कमज़ोर कर दिया है। सचाई यही है कि अवामी लीग, जिस पार्टी के माध्यम से मुजीब ने एक धर्मनिरपेक्ष राजनीति के लिए आंदोलन शुरू किया था, वह पिछले चौदह वर्षों से बिना किसी रुकावट के सत्ता में है,लेकिन देश की धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीयता की बहाली के लिहाज़ से बहुत ज़्यादा फ़र्क नहीं पड़ा है।

एक बात तो यह है कि 1980 के दशक में इरशाद सैन्य शासन द्वारा राज्य के धर्म के रूप में देश पर इस्लाम का थोपा जाना एक और ऐसा उपाय है, जिसे अब भी ख़त्म किया जाना बाक़ी है। दूसरी बात कि देश में धर्म कारक की रौशनी में देखा जाए,तो बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी के साथ पिछले कई दशकों में दक्षिणपंथी धार्मिक दलों का तेजी से विकास हुआ है, यह सब एक ऐसे मोड़ पर हुआ है, जहां बांग्लादेश को एक धर्म-आधारित या धार्मिक राष्ट्र में बदलने की उनकी स्पष्ट इच्छा से राजनीतिक बहस रुकने का नाम ले रही है। संसद में अवामी लीग अपने विशाल बहुमत को लेकर जिस क़दर परेशान है,उससे यह डर पैदा होता है कि पहले1 971 के मुक्ति संग्राम का नेतृत्व करने वाले शेख मुजीबुर्रहमान और उसके बाद उनके सहयोगियों की जिस तरह जिस तरह 1975 में एक के बाद एक हुई हत्याओं के बाद राज्य के ढांचे को ख़त्म करने की दिशा में कई क़दम उठाये गये थे,इससे मुल्क की गाड़ी पटरी से उतर गयी थी।

इसके अलावा, सत्तारूढ़ दल का एक अनकहा उद्देश्य वोट बैंक के रूप में दक्षिणपंथी धार्मिक राजनीतिक संरचनाओं को इस्तेमाल करने की आवश्यकता है। यह एक ऐसा कारक है, जो देश में धर्मनिरपेक्षतावादियों को चिंतित करता है, उनकी इस चिंता का कोई अंत होता नहीं दिखायी देता है कि पारंपरिक रूप से धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दल आज बांग्लादेश में धर्मनिरपेक्ष राजनीति की बहाली के कठिन कार्य को कर पाने में असमर्थ या अनिच्छुक है। फिर भी दिसंबर, 1971 में बांग्लादेश की मुक्ति के पलों के भीतर स्वतंत्रता के लिए सशस्त्र संघर्ष की अगुवाई कर रही अनंतिम सरकार ने उन चार दक्षिणपंथी राजनीतिक दलों पर प्रतिबंध लगाने का फ़ैसला किया था, जिन्होंने 1971 के दौरान बंगाली अधिकारों के दमन में सार्वजनिक रूप से और बेशर्मी से याह्या ख़ान जुंटा की ओर से चलाये गये देश में सैन्य अभियान का समर्थन किया था।

हालांकि, मोटे तौर पर इन पार्टियों पर लगाया गया प्रतिबंध बांग्लादेश के धर्मनिरपेक्षता के समर्थन का एक प्रारंभिक संकेत था, क्योंकि यह एक राष्ट्र-राज्य के रूप में स्वतंत्र अस्तित्व की राह पर निकल पड़ा था। दूसरे शब्दों में कहा जाए,तो यह 1960 के दशक के मध्य में शेख मुजीबुर्रहमान और उनकी पार्टी द्वारा निर्धारित ग़ैर-सांप्रदायिक लक्ष्यों की पूर्ति थी, यह एक ऐसी वास्तविकता थी, जो अब औपचारिक रूप से मुक्ति संग्राम के सफल समापन के आलोक में आकार ले रही थी।इसलिए, बांग्लादेश (Bangladesh)  के लोगों के लिए यह महत्वपूर्ण है कि यदि देश में लोकतंत्र और कानून के शासन को मज़बूत करना है, तो राज्य के पुराने धर्मनिरपेक्ष आधार को बहाल किया जाए और उस ज़िम्मेदारी को पूरा करने का दायित्व पूरी तरह से अवामी लीग पर है।

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पिछले लगभग पांच दशकों में बांग्लादेश की धर्मनिरपेक्षता में एक कमज़ोरी बांग्लादेश की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीबी), दिवंगत प्रोफ़ेसर मुज़फ़्फ़र अहमद की राष्ट्रीय अवामी पार्टी, वर्कर्स पार्टी जैसी धर्मनिरपेक्ष पार्टियों और जातियो समाजतांत्रिक दल (जेएसडी) के विभिन्न गुटों ने खुद को पुनर्गठित करने और देश में धर्मनिरपेक्ष राजनीति के संदेश के प्रसार के लिहाज़ से बांग्लादेश के विभिन्न गुटों की घोर विफलता रही है। दूसरी ओर, जमात-ए-इस्लामी और अन्य इस्लामवादी दल जैसे संगठन देश भर में अपनी राजनीति का प्रचार करने में सक्रिय रहे हैं। हिफ़ाज़त-ए-इस्लाम जैसे संगठनों ने धर्म को राष्ट्रीय राजनीति का मुद्दा बनाने पर बल देकर धर्मनिरपेक्ष इमारत में एक और सेंध लगा दी है।

जिस उग्रता के साथ धार्मिक दलों और संगठनों ने नियमित रूप से उदार सिद्धांतों पर हमला किया है, उसने उन विचारों को व्यवस्थित रूप से नष्ट किया है, जिसने बंगाली राष्ट्र को 1971 में एक सांप्रदायिक पाकिस्तान के ख़िलाफ़ युद्ध के लिए प्रेरित किया था। बंगबंधु शेख़ मुजीबुर्रहमान द्वारा 7 मार्च, 1971 को दुनिया को यह बताने के इतने दशकों के बाद कि उनके लोग वैश्विक चीजों की योजना में अपने लिए एक धर्मनिरपेक्ष, स्वतंत्र जगह बनाने के रास्ते पर थे, यह बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है कि बंगाली अपने क़दम वापस उन विचारों की राह पर फिर से उठायें, जिन्होंने राष्ट्रवाद के उनके सपनों को आकार दिया था।

सैयद बदरुल अहसन ढाका और लंदन स्थित एक पत्रकार, लेखक और दक्षिण एशियाई और अमेरिकी राजनीति पर लिखने वाले टिप्पणीकार हैं। व्यक्त किए गए विचार व्यक्तिगत हैं और यह लेख विशेष रूप से इंडिया नैरेटिव के लिए लिखा गया है। मूल लेख को पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें