सातवीं शताब्दि का समय था। भारत में बौद्ध धर्म का बोलबाला था। प्रजा से लेकर राजा तक तक़रीबन सबके सब बौद्ध धर्म के प्रति या तो नरम थे या फिर बौद्ध धर्म अपना चुके थे। लेकिन, बैद्ध धर्म के ऊंचे आदर्श, जिसे गौतम बुद्ध ने संदेश के जरिए बौद्ध धर्मावलम्बियों में दिये थे,वे आचरण से ग़ायब हो चुके थे। बौद्ध धर्म में कई कुरीतियां और बुराइयों ने अपने पैर पसार लिए थे।
650 ई के दौरान बौद्ध धर्म को मानने वाले आम तौर पर वेदों का विरोध करते और हिन्दु घर्म की निंदा करते थे। कट्टरपंथी बौद्धों के क्रिया कलापों से आमजनों में यज्ञ,पूजा पाठ संबंधी कर्म तगभग बंद हो चुके थे। वेदों की भूमि पर वेद ही उपेक्षित महसूस कर रहा था,औऱ उसका अपमान हो रहा था। ऐसे ही काल में वेद के महान पुजारी और उद्भट्ट विद्वान कुमारिल भट्ट का जन्म मिथिला के मंडल नाम के गांव में हुआ। यजुर्वेदी ब्राह्मण पिता यग्येश्वर भट्ट और माता चन्द्रकणा के घर इस महान व्यक्ति का जन्म हुआ। कुमारिल भट्ट को उस समय के महान् विद्वान और योग्य गुरु के पास रहकर वेद,वेदान्त और शास्त्रों का बारीकी से अध्ययन करने का अवसर मिला। बाद में उन्होंने स्वयं अपने कई शिष्य बनाए। उनके प्रमुख रूप से चार शिष्य थे-विश्वरूप,प्रभाकर,पार्थसारथि औऱ मुरारी मिश्र।
बौद्ध धर्म का विस्तार हर तरफ़ था और वेदों की दुर्दशा अपने चरम पर थी। कुमारिल को यह सब देख काफ़ी पीड़ा पहुंचती थी। उन्होंने निश्चय किया कि बौद्ध मत का खंडन कर एक बार फिर से वेदों का उद्धार करेंगे। उनका मत था कि किसी भी धर्म को जाने वगैर उनकी आलोचना संभव नहीं । बौद्ध धर्म की सूक्ष्मता से अध्ययन करने के लिए कुमारिल बौद्ध धर्माचार्य श्रीनिकेतन के पास गये। पर्याप्त समय देकर उन्होंने बौद्ध धर्म का अध्ययन किया। एक दिन जब बौद्ध गुरु श्रीनिकेतन उन्हें बौद्ध धर्म को लेकर शिक्षा दे रहे थे, उसी दौरान श्रीनिकेतन ने वेदों को दूषित बताया, और वैदिक मार्ग की निंदा की। कुमारिल गुरु के सामने तो कुछ नहीं बोल पाये,पर उनके आंखों में आंसू छलक आये। वेदों की उस निंदा के बाद कुमारिल की भावना धरताल पर आ गयी। उनके सहपाठी चौंक गये और फिर उनपर कड़ी निगाहें रखी जाने लगीं।
कुमारिल अंदर ही अंदर वेद को लेकर काफी चिंतित रहने लगे। एक दिन कुमारिल एक मंदिर की ऊंची दीवार पर विचारों में मगन थे।इसी दौरान उनके बौद्ध सहपाठियों ने उन्हें धक्का देकर नीचे गिरा दिया,और उनकी एक आंख फूट गई। मंदिर से गिरते समय कुमारिल ने कहा था कि अगर ‘वेद सत्य होंगे,तो मेरी रक्षा होगी’ उनकी रक्षा तो हुई,पर संशय में कही गयी वाक्यों को लेकर उन्हें दंड मिला।
इस दुर्घटना के बाद उनके मन में बौद्ध धर्म की सत्याता को लेकर संदेह पैदा हो गया। वे सोचने लगे कि भगवान बुद्ध को दया औऱ अहिंसा के पुजारी और प्रचारक थे। फिर उनके अनुयायियों ने ऐसा क्यों किया ? उनको समझने में तनिक भी देर नहीं लगी कि बौद्ध लोग वेद विरोधी तो हैं ही, पाखंडी भी हैं। सिद्धांत और व्यवहार में पर्याप्त अंतर है। उन्होंने उसी समय सोच लिया कि इन दुराचारियों के पाखंड से संसार को अवगत कराऊंगा। दृढ़ संकल्पित होकर वे वैदिक कर्मवाद के प्रचार पर निकल पड़े।
वैदिक कर्मवाद प्रचार के दौरान एक दिन कुमारिल चम्पा-नगरी पहुंचे। उन दिनों चम्पा नगरी में सुधन्वा नाम के बौद्ध राजा राज करते थे। जबकि उनकी रानी वैदिक सिद्धानों को मानने वाली थी। लेकिन, रानी वेदों की निंदा से व्यथित थी। इसी क्रम में रानी की मुलाक़ात कुमारिल भट्ट से हुई। रानी ने कुमारिल से अपनी व्यथा सुनायी। उन्होंने कहा कि राजा कभी भी मुझे बौद्ध धर्म में दीक्षित कर देंगे। लेकिन, कुनारिल ने रानी को बौद्ध धर्म को खण्डन करने की उत्तम युक्तियां बतायीं, औऱ कहा कि ये सारी बातें प्रसंगवश कभी-कभी राजा को सुनाया करें, ताकि उनका चित्त बदल सके। रानी को सुझायी गयी ये युक्तियां राजा पर असर दिखाने लगीं,और राजा फिर से वेदों का सम्मान करने लगा।
इस दौरान कुमारिल भट्ट ने बौद्ध धर्म के तर्क को काटने के लिए अर्थात खंडन में सात ग्रंथ लिखे डाले। साथ ही उन्होंने अपने शिष्यों को भी बौद्ध धर्म से सामना करने के लिए तैयार कर लिया । एक दिन ऐसा भी आया,जब कुमारिल भट्ट ने राजा सुधन्वा से भेंट की,और उनकी सभा में बौद्ध विद्वानों और धर्माचार्यों से शास्त्रार्थ करवाने की आज्ञा ली। शास्त्रार्थ के दौरान बौद्ध आचार्यों ने वेद के ख़िलाफ़ जितने भी तर्क दिए ,कुमारिल भट्ट ने सभी तर्कों और युक्तियों का खण्डन किया,जबकि वेदों के तर्क और युक्तियों का खंडन बौद्ध आचार्य नहीं कर पाये। इस तरह, कुमारिल ने सिद्ध कर दिया कि बौद्धों के सिद्धांत भ्रामक और मिथ्या है। राजा उनके विचारों से संतुष्ट हुए और बौद्ध आचार्य लज्जित होकर वहां से चले गए। इस तरह, राजा सुधन्वा कुमारिल भट्ट के शिष्य हो गए। कुमारिल के इस प्रयास से एक बार फिर से आर्यावर्त में वैदिक कर्मकांडों का मान बढ़ा । कुमारिल अपने 63 वर्ष की आयु तक इसी उद्देश्य से वेद को लेकर परिश्रम करते रहे।
कुमारिल भट्ट का वेदों पर अटूट विश्वास था,और उनके स्वयं का आचरण बहुत ही पवित्र था।लेकिन, कुमारिल के भीतर एक पीड़ा कसमसाती रही।वह इस पीड़ा से परेशान रहे। यह पीड़ा दैहिक नहीं,मानसिक थी। कुमारिल के हिसाब से उन्होंने गुरुद्रोह किया था दरअसल,कुमारिल ने बौद्ध गुरु से बुद्ध धर्म की गहन शिक्षा ली थी,और उसी ज्ञान के सहारे उन्होंने बौद्धों को परास्त कर दिया था। कुमारिल भट्ट की पीड़ा के पीछे का कारण यही सोच था कि उन्होंने बौद्ध गुरु से शिक्षा ग्रहण कर बौद्ध धर्म के विरुद्ध ही तर्क गढ़े और वेदांत को पुष्ट किया। उनकी दृष्टि में यह कार्य पवित्र था,लेकिन जिस तरीक़े का उन्होंने सहारा लिया था,वह अपवित्र था। इसलिए इसे उन्होंने गुरु द्रोह माना । इस पाप के लिए कुमारिल ने प्रायश्चित करने की ठानी। शास्त्रों में गुरुद्रोह के लिए तुषानल अर्थात भूसी की आग में जल जाने की व्यवस्था थी और उन्होंने उसी मार्ग का अनुसरण किया।
इसके लिए कुमारिल भट्ट प्रयाग गए,और त्रिवेणी के तट पर उन्होंने तुशाग्नि में प्रवेश कर लिया। जिस दौरान कुमारिल तुषाग्नि में जल रहे थे,उसी समय वहां आदि शंकराचार्य आये। शंकराचार्य भी दक्षिण में वही कार्य कर रहे थे,जो कुमारिल उत्तर भारत में कर रहे थे। जब शंकराचार्य ने सुना कि कुमारिल तुषाग्नि में भस्म हो रहे हैं,तब वो प्रयाग के तट पर आए। धधकती चिता में कुमारिल के शान्त मुद्रा को देख शंकराचार्य हतप्रभ हो गए। शंकराचार्य ने तत्काल कुमारिल को अपना परिचय दिया और कहा कि आपसे शास्त्रार्थ करना चाहता था।
शंकराचार्य को देखकर कुमारिल बहुत प्रसन्ना हो गये। अपने प्रायश्चित के पीछे का कारण उन्होंने शंकराचार्य को बताया,औऱ कहा कि मैं तो शास्त्रार्थ करने में असमर्थ हूं,लेकिन आपका उद्देश्य बड़ा ही उत्तम है। इस उद्देश्य़ की पूर्ति के लिए आप मेरे प्रधान शिष्य मण्डन मिश्र से मिलिए। कुमारिल के भस्मीभूत हो जाने पर शंकराचार्य को अपार दुख हुआ। शंकराचार्य ने सोचा कि जिस कर्मकांड के प्रति श्रद्धा भाव रखते हुए कुमारिल जैसे महान वेदांती जिस कर्मकांड के कारण भस्म हो गए उसका खंडन अवश्य करना चाहिए। इसलिए उन्होंने कर्मकाण्ड का खण्डन कर ज्ञान का मंडन किया। इससे सनातन में कंकड़ की तरह बैठा कर्मकांड,ज्ञान से बाहर हुआ और सनातन की परिशुद्धता की स्थापना हुई। बौद्ध धर्म इतिहास का हिस्सा हो गया।सनातन समाज का अंग बन गया और समाज में ही सहिष्णुता की गुंजाइश बनी कि सनातन में बाहर से घुस आये बुराई के लिए आंतरिक आलोचना संभव हो सके।
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