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ज्योतिबा फुले: सुधार के वाहक और वंचितों के प्रेरक

ज्योतिराव गोविंदराव फुले से महात्मा ज्योतिबा फुले तक का सफ़र तय करने वाले ज्योतिबा फुले का आज जन्म-दिन

समाज की कमियों और कुप्रथाओं को चिह्नित करना और फिर उन कुप्रथाओं से लड़ना कोई आसान काम नहीं।मगर,इतिहास बताता है कि गड़बड़ियों के ख़िलाफ़ लड़ा वही है,जिसने उन गड़बड़ियों के नतीजों को भोगा है। ऐसे ही सुधारकों में ज्योतिबा फूले थे। वह उस जाति से आते थे,जो उस ज़माने में छुआछूत के शिकार थे।ज्योतिबा फूले का जन्म लगभग दौ सौ साल पहले आज ही के दिन हुआ था।

हालांकि,जब ज्योतिबा फूले ने छुआछूत के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ उठायी थी,तब हर तरफ़ से विरोध हुआ था और उन पर चौतरफ़ा हमले हुए थे।लेकिन,वह बिना रुके,बिना झुके अपने अभियान चलाते रहे।बाद में समाज के कुछ लोगों को यह समझाने में वह सफल रहे कि छुआछूत सही मायने में एक अमानवीय प्रथा है,जिसे जितनी जल्दी हो सके,ख़त्म हो जाना चाहिए।
ज्योतिबा ने जो राह 19वीं शताब्दी के सालों में दिखायी थी,बाद में राष्ट्रीय आंदोलन भी उसी राह पर चल पड़ा।महात्मा गांधी ने वजाप्ता अछूतोद्धार का कार्यक्रम शुरू किया और गंदा साफ़ करने का बीड़ा ख़ुद अपना हाथों में लिया। इससे आगे चलकर सामाजिक बदलाव लाने मे सहूलियत हुई।एक तरह से ज्योतिबा फूले ने जिस काम को शुरू किया था,उसे ही महात्मा गांधी आगे बढ़ा रहे थे और आज भी उसी काम को देश के कई संगठन बढ़ा रहे हैं।

ऐसे मे स्वाभाविक है कि दलितों के सामाजिक न्याय को लेकर प्रयासरत प्रधानमंत्री मोदी ने ज्योतिबा फूले के जन्म दिन पर उन्हें याद करते हुए कहा कि ज्योतिबा फूले सिर्फ़ सिद्धांतवादी नहीं थे,वह ख़ुद अपने सिद्धांतों पर चलते भी थे।

फुले का जन्म पुणे में माली जाति में हुआ था। उस समय यह जाति सामाजिक रूप से वंचित थी। ऐसे में उनकी प्रारंभिक शिक्षा किसी तरह पूरी हुई।लेकिन,पढ़ने में होशियार होने के कारण किसी की उन पर नज़र पड़ी। मगर,उनके पिता गोविंदराव फुले इसके लिए राज़ी नहीं थे। समझाने बुझाने के बाद उन्हें स्थानीय स्कॉटिश मिशन हाई स्कूल में भेजने के लिए वह आख़िरकार तैयार कर लिए गए। उन्होंने 1847 में अपनी स्कूली शिक्षा यहीं से पूरी की।

1848 में उनके साथ एक अजीब-ओ-ग़रीब एक घटना घटी। इसके बाद उनकी ज़िंदगी एक हमेशा के लिए बदल गयी। हुआ यों था कि  ज्योबा फूले के किसी ब्राह्मण मित्र की शादी थी और मित्र के आग्रह पर वह उस शादी में शामिल हो गये।मगर, मित्र के माता-पिता को किसी अछूत का अपने बेटे की शादी में शामिल होना नगवार गुज़रा और उन्होंने ज्योबा फुले को जमकर कड़ी फटकार लगा दी।

फुले को यह बाद चुभ गयी। उन्होंने तय कर लिया कि वह सामाजिक बुराइयों के ख़िलाफ़ लड़ने में अपना सबकुछ दांव पर लगा देंगे।उन्हें तुरंत यह अहसास हो गया कि इसके लिए सबसे ज़्यादा ज़रूरत शिक्षा की है।उन्होने सामाजिक न्याय की ख़ातिर निचली जाति के लोगों और महिलाओं की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया।

मगर,उस ज़माने में यह इतना आसान नहीं था। ख़ासकर महिलाओं को शिक्षा से जोड़ना एक बड़ी चुनौती था। इस चुनौती से लोहा लेने की शुरुआत उन्होंने अपने घर से की। अपनी पत्नी सावित्रीबाई को पढ़ना-लिखना सिखाया। अपनी चचेरी बहन सगुनाबाई क्षीरसागर को भी पढ़ाया। इसके बाद महिलाओं के बीच शिक्षा का प्रसार कर पाना उनके लिए सहज हो गया। उन्होंने 1848 में लड़कियों के लिए भारत का पहला स्कूल शुरू किया।

लेकिन फुले की नज़र में समस्या का यही हल सिर्फ़ नहीं था। जिन महिलाओं के साथ अलग-अलग कारणों से अत्याचार हो रहा था।उन्होंने उन कारणों के विरुद्ध भी अपना मोर्चा खोल दिया।समाज में विधवाओं की बड़ी दुर्दशा थी।जब भी कोई महिला विधवा हो जाती थी,उसे अपना सर मुंडवाना होता था। कम उम्र में विधवा हुई महिलाओं को आजीवन सादगी का जीवन जीने को बाध्य किया जाता था।किसी भी तरह के सौंदर्य से उसे वंचित कर दिया जाता था।यहां तक कि जब कोई विधवा गर्भवती हो जाती थी,तो उसे अंधेरे कोठरियों के हवाले कर दिया जाता था।अगर बच्चे जन्म लेते,तो उसकी हत्या कर दी जाती या फिर उसे जीवन भर सामाजिक अपमान सहन करना होता। ऐसे में फुले ने एक ऐसा केंद्र खोला,जहां ऐसे बच्चों को आश्रय मिल सके।इस केंद्र की देखरेख उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले किया करतीं।

फुले उन तमाम सीमाओं को तोड़ देना चाहते थे,जिसके तहत किसी को अछूत होने का दंश भोगना पड़ता था।यही वजह है कि स्कूल और अनाथालय चलाने के अलावे उन्होंने अपना पेशा भी बदला।वह संकेत देना चाहते थे कि कोई भी पेशा किसी जाति विशेष के लिए नहीं होता। वह खेती-बाड़ी किया करते थे।बाद में उन्होंने ठेकेदारी के पेशे को अपना लिया,जिसके तहत वह सरकार को भवन निर्माण सामग्री की आपूर्ति किया करते थे।

ज्योतिबा फुले ने 1873 में सत्यशोधक समाज नामक संगठन की स्थापना की और इसे उस समय की अछूत जातियों में बदलाव का वाहक बना दिया।भारतीय समाज पर इनका इतना बड़ा असर रहा कि बाद के दिनों में कई लोगों ने इनका अनुसरण किया और इनके काम को आगे बढ़ाया।इनमें से एक नाम भीमराव अम्बेडकर का भी है।

ज्योतिबा फुले के विचार उनकी किताब-गुलामगीरी में दर्ज है।1873 में लिखी गयी उनकी इस किताब का उद्देश्य दलितों और अस्पृश्यों को उनकी कुंठा से बाहर लाना था। इस किताब में उन्होंने बड़े ही तार्किक अंदाज़ से ब्राह्मणों की सर्वोच्चता के झूठे दंभ को सामने लाना था।  अपने तर्कों से उन्होंने दलितों को हीनग्रंथी से बाहर निकलने के लिए प्ररित किया था और कहा था कि उनका आत्मसम्मान ब्राह्मणों के आत्मसम्मान से तनिक भी कम नहीं।

यह संयोग ही था कि ज्योतिबा फुले और उनकी पत्नी सावित्री बाई फुले,दोनों का निधन एक ही साल,यानी 1890 में हुआ था।