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आज़ादी का अहम मोड़: सन् 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन या अगस्त क्रांति

सभा को सम्बोधित करते महात्मा गांधी

Quit India Movement or August Revolution,1942: भारत की अंग्रेज़ी हुक़ूमत से आज़ादी की लड़ाई के दो सबसे अहम मोड़ हैं- 1857  की क्रांति और 1942 का भारत छोड़ो आन्दोलन। भारत छोड़ो आंदोलन को अगस्त क्रांति भी कहते हैं,क्योंकि इसकी शुरुआत 8 अगस्त को हुई थी। इस क्रांति का व्यापक असर इतना ज़्यादा था कि ब्रिटिश हुक़ूमत की बुनियाद हिला गयी थी। अगस्त क्रांति या भारत छोड़ो आंदोलन की पृष्ठभूमि दो अहम घटनाओं ने तैयार कर दी थी।ये दे घटनायें थें-क्रिप्स मिशन की नाकमी और विश्वयुद्ध से पैदा हुए गंभीर संकट वाले हालात।

दूसरे विश्वयुद्ध को शुरू हुए तीन साल हो चुके थे।जंग में ब्रिटिश फ़ौज़ें दक्षिण-पूर्व एशिया में मात खाने लगी थीं। युद्ध के चलते हर चीज़ की क़ीमत आसमान छू रही थी। अंग्रेज़ी हूक़ूमत से पैदा हुए हालात लोगों में बेचैनी पैदा करने लगे थे। जापान सिंगापुर, मलाया और बर्मा पर क़ब्ज़ा कर चुका था। जापान के क़दम भारत की तरफ़ बढ़ने लगे थे।हालात को भांपते हुए 5 जुलाई, 1942 को गांधी जी ने हरिजन में लिखा, “अंग्रेज़ों भारत छोड़ो ! जापानियों के लिये नहीं,बल्कि भारतीयों के लिये।” गांधीजी के लेख का यह वाक्य भारत भर में गूंज उठा और लोगों की भावना के प्रतीक बन गया।

हालात ऐसे लगने लगे कि जापान अब भारत पर हमला कर ही देगा। ऐसे में अमेरिका, रूस जैसे देशों का ब्रिटेन पर इस बात का लगातार दबाव बढ़ रहा था कि संकट बड़ा है,लिहाज़ा वह भारतीयों का समर्थन पाने की पहल करे। इसी दबाव का परिणाम था-क्रिप्श मिशन।इस मिशन के प्रमुख थे स्टेफ़ोर्ड क्रिप्स। इनके नेतृत्व में मिशन मार्च, 1942 में भारत भेजा। भारत आज़ादी चाहता था और ब्रिटेन किसी सूरत में भारत की सुरक्षा को अपने हाथों से जाने नहीं देना चाहता था। ऊपर से गवर्नर-जनरल के वीटो के अधिकार को भी छोड़ना नहीं चाहता था। ऐसे में भारतीय प्रतिनिधियों ने क्रिप्स मिशन के सारे प्रस्तावों को रद्दी की टोकड़ी में डाल दिया और क्रिप्श मिशन ख़ाली हाथ वापस इंग्लैंड लौट गया।

ऐसे ही हालात में भारतीय नेशनल कांग्रेस कमेटी’ की बैठक हुई। बैठक से पहले गांधी जी ने कांग्रेस को अपने प्रस्ताव को न स्वीकार किये जाने की स्थिति में चेताते हुए कहा कि “मैं देश की बालू से कांग्रेस से भी बड़ा आन्दोलन खड़ा कर दूंगा।”

14 जुलाई, 1942 को कांग्रेस कार्यसमिति की वर्धा बैठक में गांधी जी के इस विचार को पूरा समर्थन मिला कि भारत में संवैधनिक गतिरोध तभी दूर हो सकता है, जब अंग्रेज़ भारत छोड़ दे। कांग्रेस कार्यसमिति ने ‘अंग्रेज़ों भारत छोड़ो” प्रस्ताव पारित कर दिया।लेकिन,अब भी इसकी सार्वजनिक घोषणा होना बाक़ी था।

 

आंदोलन का ऐलान

इस घोषणा से पहले 1 अगस्त, 1942 को इलाहाबाद में ‘तिलक दिवस’ मनाया गया। इस अवसर पर जवाहरलाल नेहरू ने कहा- “हम आग से खेलने जा रहे हैं। हम दुधारी तलवार का इस्तेमाल करने जा रहे हैं, जिसकी चोट उल्टी हमारे ऊपर भी पड़ सकती है।”

इन्हीं सबों के बीच 8 अगस्त, 1942 को अख़िल भारतीय कांग्रेस की बैठक बुलायी गयी। जगह थी बम्बई की ऐतिहासिक ‘ग्वालिया टैंक’। कांग्रेस कार्यसमिति ने कुछ संशोधनों के साथ इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया । निर्णय लिया गया कि अंग्रेज़ों को भारत छोड़ना होगा। भारत अपनी हिफ़ाज़त ख़ुद करेगा,हिंदुस्तान अपनी लड़ाई स्वयं लड़ेगा। यह फ़ैसला भी लिया गया कि अंग्रेज़ों द्वारा भारत छोड़ देने की स्थिति में अस्थाई सरकार बनायी जायेगी।अंग्रेज़ों को भगाने के लिए ‘नागरिक अवज्ञा आन्दोलन’ छेड़ने का प्रस्ताव पारित हुआ और सर्वसहमति से इस आंदोलन का नेता गांधी जी को बनाया गया।

 

आंदोलन का मूलमंत्र ‘करो या मरो

महात्मा गांधी ने कांग्रेस के इस सम्मेल में तक़रीबन 70 मिनट तक भाषण दिया था। उन्होंने कहा था कि “मैं आपको एक मंत्र देता हूं, करो या मरो, जिसका अर्थ है- भारत की जनता देश की आज़ादी के लिए हर ढंग का प्रयत्न करे। गांधी जी के बारे में पट्टाभि सीतारामैया ने लिखा है, “वास्तव में गांधी जी उस दिन अवतार और पैग़म्बर की प्रेरक शक्ति से प्रेरित होकर भाषण दे रहे थे।” वह कह रहे थे-‘वह लोग जो क़ुर्बानी देना नहीं जानते, वे आज़ादी प्राप्त नहीं कर सकते।’ भारत छोड़ो आन्दोलन की मूल भावना भी यही थी।

आंदोलन नौ अगस्त 1942 को मुंबई के गोवालिया टैंक मैदान में महात्मा गांधी के उस आह्वान के साथ शुरू हुआ,जिसमें उन्होंने कहा था “अंग्रेज़ों ! भारत छोड़ो”। गांधी के ‘करो या मरो’ के नारे का जवाब अंग्रेज़ी हुकूमत ने बेरहम दमन से दिया।

 

दमन का जवाब बहिष्कार

कांग्रेस की पूरी कार्यसमिति ही गिरफ़्तार कर ली गयी। प्रेस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। जगह-जगह पर कर्फ़्यू लगा दिये गये और शांतिपूर्ण प्रदर्शनों और हड़तालों पर भी रोक लगा दिये  गये।

जो ब्रिटिश सरकार यूरोप में जर्मनी के हिटलर से लड़ने का दावा कर रही थी,वही ब्रिटिश हुक़ूमत ख़ुद ही भारत में हिटलर की तरह पेश आ रही थी।

जैसे-जैसे ब्रिटिश हुक़ूमत का दमनचक्र बढ़ता गया,आंदोनकारियों के साथ आम नागरिक भी शांतिपूर्ण आंदोलन से दूर होते गये। शिक्षा संस्थानों के बहिष्कार, सरकारी इमारतों पर धावा, डाक और रेल संचार में बाधा हर तरफ़ आम हो गयी।लोग बेक़ाबू हो गये।

अहिंसक गांधीजी पर जब इस हिंसा को लेकर सवाल किया गया,तो गांधी जी ने प्रत्युत्तर में कहा कि इस हिंसा के लिए पूरी तरह ज़िम्मेदार ब्रिटिश हुक़ूमत है।देश भर से लाखों लोगों की गिरफ़्तारियां हुईं।उन पर ज़ुल्म ढाये गये।मगर आंदोलन की ताप कम नहीं हुई।कई जगह तो ब्रिटिश झंडे की जगह भारतीय झंडे लहराने लगे और ब्रिटिश हुक़ूमत भाप बनकर उड़ती दिखी।

 

बलिया में राष्ट्रीय सरकार

बलिया में अंग्रेज़ी प्रशासन इस क़दर बिखर चुका था कि जनता ने चित्तू पांडे के नेतृत्व में राष्ट्रीय सरकार की घोषणा तक कर दी। बलिया अगले दो हफ़्ते तक अंग्रेज़ों से पूरी तरह आज़ाद रहा।

बेतरह चोट खायी अंग्रेज़ी हुक़ूमत ने बलिया के ढाई सौ मकान जला दिए। औरतों के साथ बलात्कार हुए और पांच से छह सौ लोगों को जेल में ठूंस दिये गये।इसके बावजूद अंग्रेज़ों को बलिया पर पूरी तरह से नियंत्रण पाने में महीने का समय लग गया।लाख कोशिशों के बावजूद राष्ट्रीय सरकार के अगुआ चित्तू पांडे अंग्रेज़ों के हाथ नहीं आ पाये।

 

बलिया की राह पर ग़ाज़िपुर और बिहार की राष्ट्रीय सरकार

ग़ाज़ीपुर भी बलिया की राह चल दिया। 19 अगस्त से 21 अगस्त तक ग़ाज़ीपुर भी आज़ाद रहा। ग़ाज़ीपुर पर नियंत्रण हासिल करने के लिए अंग्रेज़ों को 167 लोगों की हत्या, 3000 लोगों को गिरफ़्तारी और 32 लाख रुपये की संपत्ति नष्ट करना पड़ा।

बिहार में भी कई जगह राष्ट्रीय सरकार बनाने की कोशिशें हुईं। पटना में लगभग तीन दिन ब्रिटिश प्रशासन ठप रहा, मुंगेर में अधिकांश थाने कुछ समय के लिए जनता के नियंत्रण में आ गये, चंपारण, बेतिया, भागलपुर, मोतीहारी, सुल्तानपुर, संथाल परगना जैसी कई जगहों पर आंदोलनकारी थोड़े-थोड़े समय के लिए नियंत्रण पाने में सफल रहे।

 

मिदनापुर और तामलुक

बंगाल के मिदनापुर ज़िले के तमलुक तालुका भी लम्बे समय तक ब्रिटिश हुक़ूमत से आज़ाद रहा। इसका असर महिषादल, मिदनापुर और नंदीग्राम तक फैल गया।तामलुक में हुए आंदोलन का किस हद तक असर रहा होगा,उसे इस बात से समझा जा सकता है कि 25 सितंबर, 1945 को गांधीजी तमलुक आये। वहां से वह महिषादल, कोनताई और मिदनापुर गये।उन्होंने आंदोलन की जमकर तारीफ़ की। इस आंदोलन के नेता थे- सतीश कुमार सामंता।

तमलुक की राष्ट्रीय सरकार इस मायने में विशिष्ट थी कि उसकी अपनी पुलिस और विद्युत वाहिनी नाम की सेना भी थी। इसका अपना गुप्तचर विभाग, न्यायालय, जेल और अन्य विभाग थे।उसने डाक और प्रचार विभागों तक स्थापना कर ली थी।

 

सतारा की राष्ट्रीय सरकार

भारत छोड़ो आंदोलन का महाराष्ट्र पर भी गहरा असर था। मगर, नाना पाटील के नेतृत्व में सतारा ने जो कुछ किया,वह तो भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास का मिल का पत्थर बन गया। यहां टेलीफ़ोन और टेलीग्राफ़ के तार काटे दिए गये, खंभे उखाड़ फेंके गये और सरकारी भवनों पर हमले किये गये। सतारा,महाराष्ट्र के बाक़ी हिस्से से काट दिया गया और यहां राष्ट्रीय सरकार की घोषणा की तैयारी होने लगी। 1942 के आख़िर तक लोगों ने ग्राम गणराज्यों की स्थापना शुरू कर दी और जनता के राज का खुला ऐलान कर दिया।

येरवदा जेल से फ़रार किसन वीर ने सतारा को शेष राज्य से कटे रहने की जिम्मेदारी संभाली, तो अप्पा मास्टर ने तूफ़ान सेना का गठन किया।इस सेना ने यहां स्थापित राष्ट्रीय सरकार की पुलिस की तरह काम किया।

नाना पाटिल की पत्नी लीलाबाई पाटिल गिरफ़्तार कर ली गयीं। लेकिन,अपनी वीरता का परिचय देतीं लीलाबाई जेल से भागने में सफल रहीं और भूमिगत कार्यकर्ताओं में शामिल हो गयीं।

सतारा में चले आंदोलन के कई नेता थे,उनमें डा उत्तमराव पाटिल प्रमुख थे। सतारा इस मायने में मिसाल बन गया कि अगले चार वर्षों तक इन आंदोलनकारियों ने सतारा पर अंग्रेज़ों का नियंत्रण नहीं होने दिया।

सतारा की राष्ट्रीय सरकार सामाजिक सुधारों के इतिहास का एक चमकता पृष्ठ है। नानाजी पाटिल के नेतृत्व में इस सरकार ने कई सामाजिक सुधार किये।इनमें बाल विवाह पर प्रतिबन्ध, शराबबंदी, सस्ते विवाह, प्राइमरी शिक्षा तथा वयस्क शिक्षा आदि के कार्यक्रम शामिल थे।

 

आज़ादी की राह दिखाती एक असफल क्रांति

आम जनता के संघर्षों से मिले इस तरह की कामयाबी ने यह साबित कर दिया कि 1942 का “भारत छोड़ो आंदोलन”  आज़ादी के इतिहास का एक अहम पड़ाव था।

लेकिन,इस पड़ाव का इस्तेमाल मुहम्मद अली जिन्ना कुछ अलग तरीक़े से कर रहे थे। मुस्लिम लीग इस मौक़े का इस्तेमाल पंजाब और सिंध में अपनी पहचान बनाने के लिए कर रहा था। अबतक यहां लीग की कोई ख़ास पहचान नहीं थी। विश्वयुद्ध अपने ख़ात्मे की तरफ़ था। जून, 1944 में गांधी जी जेल से रिहा कर दिये गये। उन्होंने जिन्ना से मुलाक़ात की और कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच फ़ासले को पाटने की कोशिश की,मगर हर प्रयास व्यर्थ रहे।

मुस्लिम लीग ने ‘भारत में छोड़ो आन्दोलन’ की कड़ी आलोचना की।लीग ने अपने बयान में कहा कि “इस आन्दोलन का लक्ष्य भारत की आज़ादी नहीं, बल्कि भारत में हिन्दू साम्राज्य की स्थापना है, इस वजह से यह आन्दोलन मुसलमानों के लिए ख़तरानाक़ है।” मुस्लिम लीग के अलावे कई और लोगों को भी यह आंदोलन रास नहीं आया। सर तेज़बहादुर सप्रू ने इस प्रस्ताव को ‘अविचारित तथा असामयिक’ क़रार दिया। भीमराव अम्बेडकर ने इसे ‘अनुत्तरदायित्व पूर्ण और पागलपन भरा कार्य’ बताया। ‘हिन्दू महासभा’ एवं ‘अकाली आन्दोलन’ ने भी इसकी आलोचना की और कम्युनिस्ट पार्टी ने इस आंदोलन से अपनी दूरी यह कहते हुए बनाये रखी कि यह आंदोलन जर्मनी के हिटलर से लड़ रहे मित्र देशों की लड़ाई को कमज़ोर कर देगा।

भारत छोड़ो आन्दोलन में संगठन और आयोजन की कमी थी। सरकारी सेवा में काम कर रहे उच्चाधिकारियों की सरकार के प्रति वफ़ादारी से भी आंदोलन कमज़ोर हुआ। दूसरी तरफ़ आन्दोलन में भाग लेने वालों के पास न तो साधन था और न ही शक्ति थी। ऐसे में भारत छोड़ो आंदोलन ब्रिटिश को तत्काल भगा पाने में भले ही सफल नहीं हुआ हो,मगर इसने अंग्रेज़ों में वह ख़ौफ़ और मनोविज्ञान ज़रूर पैदा कर दिया, जिनसे अंग्रेज़ी हुक़ूमत के होश फ़ाख़्ते हो गये।यही वह आधार था,जिसकी ताक़त से भारत छोड़ो आंदोलन ने मुश्किल दिखती आज़ादी की दूरी चंद सालों में ही नाप दी।