मल्लादी रामा राव
पाकिस्तान आज एक ऐसा बंटा हुआ समाज है, जहां हर कोई एक-दूसरे से लड़ता नज़र आता है। असल में यह ख़ुद का ही दिया हुआ ज़ख़्म है।
9 मई की तबाही ने तो मुस्लिम बम से मुसलमानों की आवाज़ बनने के पाकिस्तान के सपने को ही चकनाचूर कर दिया है।
उस दिन इमरान ख़ान की पाकिस्तान तहरीक़-ए-इंसाफ़ (पीटीआई) कैडरों के निशाने पर कई सैन्य प्रतिष्ठान थे, जिनमें लाहौर क्षेत्र के कमांडर-इन-चीफ़ का आधिकारिक निवास भी शामिल था, यह एक ऐसा घर है, जिसे कभी पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना ने ख़रीदा था।
सेना, राजनेताओं और न्यायपालिका को उस गड़बड़ी के लिए दोषी ठहराया जाना चाहिए, जो पाकिस्तान ने ब्रिटिश भारत से मुसलमानों के लिए पवित्र भूमि के रूप में बनाए जाने के सात दशकों में की है।
तीन घटक भविष्य को लेकर अनजान दिखायी देते हैं।
खेल के नायक से नेता बने इमरान ख़ान ने जिन अनियंत्रित ताकतों को खोल दिया है, उन ताक़तों ने उन्हें बहुत पीछे धकेल दिया है।
जीएचक्यू शूरा का गठन करने वाले जनरल राजनीतिक रंगमंच पर सेना की कमज़ोर पकड़ को बनाये रखने के लिए दिन-रात काम कर रहे हैं, लेकिन मनमौजी इमरान ख़ान को कैसे वश में किया जाए, इस पर उनका दिमाग़ काम नहीं कर पा रहा है ।
फ़िलहाल, सेना इमरान को मीडिया से लगभग दूर करने और उन्हें राजनीतिक रूप से अलग-थलग करने में कामयाब रही है।
प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़, पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट (पीडीएम) का सत्तारूढ़ गठबंधन शोर और रोष से भरा हुआ है, लेकिन उसने कोई शाबादी लायक़ तारीफ़ अर्जित नहीं की है।
इसके दो मुख्य घटक, पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज़ (पीएमएल एन) और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी), सेना के साथ पक्षपात करने की पूरी कोशिश कर रहे हैं – पीएमएल एन अपने निर्वासित सुप्रीमो नवाज़ शरीफ़ की वापसी को और पीपीपी पाकिस्तान के अगले प्रधानमंत्री के रूप में अपने क्राउन प्रिंस बिलावल भुट्टो के राज्याभिषेक को सुनिश्चित करने की अलग-अलग कोशिश कर रही है।
ऐसा लगता है कि सेना की इन दोनों पार्टियों में कोई रुचि नहीं रही। यह पीटीआई से दलबदलू लोगों के साथ एक नए राजा की पार्टी “इस्तहकम-ए-पाकिस्तान” (पाकिस्तान स्थिरता पार्टी) बनाने में लगी हुई है।
न्यायपालिका भी कम बंटी हुई नहीं है,यह उसी तरह बंटी हुई है, जिस तरह संतुष्ट नहीं कर पाने वाले इमरान को लेकर समाज बंटा हुआ है। कुछ वरिष्ठ न्यायाधीश इमरान ख़ान का समर्थन करते हैं, जबकि अन्य नहीं करते हैं।
यक़ीनन, पाकिस्तान के सपने को चकनाचूर करने के लिए इमरान को सलीब सहन करनी होगी।
उनकी अफ़ग़ान नीति अस्थिर हो गयी है। उन्होंने तालिबान को अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका के नेतृत्व वाले नाटो सैनिकों को बाहर निकालने के लिए मजबूर किया था और पाकिस्तानी सेना ने तालिबान शासन को फिर से खड़ा करने के लिए भारी निवेश किया, लेकिन उसके आश्रित ने ज़बरदस्त झटका दिया।
अफ़ग़ानिस्तान की मुख्यधारा तालिबान की पाकिस्तानी शाखा टीटीपी ने पिछले पांच-छह महीनों के दौरान 100 से अधिक सुरक्षाकर्मियों की हत्या की है। बड़ी संख्या में नागरिक मारे गये हैं। वास्तव में शायद ही कोई दिन ऐसा गुज़रता हो, जब टीटीपी की ओर से गोलीबारी और आत्मघाती हमले नहीं होते हों।
अपेक्षित रूप से अधिकतर पाकिस्तानी टीटीपी को मदद देने के तालिबान के इस फ़ैसले से बौखलाए हुए हैं, जिसने ‘ग़ैर-इस्लामिक’ पाकिस्तान को नष्ट करने की क़सम खायी है।
TTP की स्थापना 2009 में तत्कालीन सैन्य शासक जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ के आदेश के तहत इस्लामाबाद के मध्य में लाल मस्जिद पर पाकिस्तानी सेना के छापे की अगली कड़ी के रूप में की गयी थी।
लाल मस्जिद ने अमेरिका के नेतृत्व वाले और सऊदी वित्तपोषित सोवियत-अफ़ग़ान युद्ध (1979-1989) में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। इसने मुजाहिदीन को अफ़ग़ान मुजाहिदीन के साथ या उसके साथ लड़ने के लिए भर्ती और प्रशिक्षित किया था।
कहा जाता है कि पाकिस्तान को एक और झटका देते हुए अफ़ग़ान तालिबान के नेता भारत से मित्रता रखते हैं और अपनी ओर से भारत मदद के लिए हाथ बढ़ाने को तैयार दिखायी देते हैं।
नई दिल्ली ने पहले ही काबुल में अपने दूतावास में एक तकनीकी टीम भेज दी है और इसका मिशन “अफ़ग़ानों की ज़रूरत के समय में सहायता करना” है।
सच कहा जाए, तो पाकिस्तान को तालिबान के बदले हुए चेहरे के लिए ख़ुद को कोसना पड़ रहा है।
तालिबान शासन को औपचारिक रूप से मान्यता देने से इस्लामाबाद के इनकार ने काबुल को ‘भाई’ के साथ अपने संबंधों पर कड़ी नज़र रखने के लिए मजबूर कर दिया है। और पाकिस्तान का भरपूर लाभ लेने का सपना एक ज़ोरदार ठहाके के साथ धराशायी हो गया है।
स्पष्ट रूप से तालिबान शासन को मान्यता देने से पाकिस्तान के हितों को और अधिक नुक़सान होता, क्योंकि अफ़ग़ानिस्तान को प्रतिबंध सूची में डाल दिया गया था, और पाकिस्तान स्वयं वित्तीय खाई के किनारों पर झूल रहा है।
लेकिन, तालिबान के लिए यह विश्वासघात का मामला था। ऐसे में पाकिस्तान के संरक्षकों से तालिबान का अलगाव एक स्वाभाविक परिणाम बन गया। और ऐसा ही मानो नकलची पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए टीटीपी को अफ़ग़ान तालिबान का समर्थन था।
पाकिस्तान ने लंबे समय से दो सपने संजोये हैं।
इन दो सपनों में से एक सपना डूरंड रेखा से परे एक रणनीतिक गहराई हासिल करने और इस प्रकार नंबर एक दक्षिण एशिया सैन्य और आर्थिक शक्ति बनने का रहा है।
दूसरा चीन और इस्लामिक ‘भाइयों’ की मदद से कश्मीर पर शासन करने का रहा है।
घटनाक्रमों की बारीक़ी से पड़ताल करने से पता चलता है कि दोनों सपने बस सपने ही रह जायेंगे।
पाकिस्तान का एक और सपना है कि वह अमेरिकी डॉलर और चीनी युआन की मदद से भारत को पीछे छोड़ दे। वह सपना भी टूट गया है, क्योंकि डॉलर की आवक कम होती जा रही है और चीनी पाकिस्तानी ख़ज़ाने को भरने को लेकर अनिच्छुक हैं।
(लेखक दिल्ली स्थित पत्रकार और टिप्पणीकार हैं)