मिल्खा सिंह नहीं रहे। शुक्रवार को उनका निधन हो गया। कोरोना के कारण उनका चंडीगढ़ के पीजीआई अस्पताल में इलाज चल रहा था। मिल्खा सिंह को आज देश का बच्चा-बच्चा जानता है। उनकी रफ्तार को जानती है उनकी कामयाबी को जानती है। हो भी क्यों न उन्होंने देश को उनपर गर्व करने के कई मौके दिए। उन्होंने दुनिया भर में देश का डंका बजाया। कॉमनवेल्थ और एशियन गेम्स में उन्होंने सभी दिग्गजों को मात देकर देश को गोल्ड मेडल दिलाया था। दुनिया में उनके वर्चस्व का आलम यह था कि कहा जाता है कि उन्होंने एक समय अपने करियर में केवल तीन ही रेस हारी थीं।
एक बार मिल्खा सिंह ने याद करते हुए कहा था ‘रोम ओलिंपिक जाने से पहले मैंने दुनिया भर में कम से कम 80 दौड़ों में भाग लिया था। उसमें मैंने 77 दौड़ें जीतीं जिससे मेरा एक रिकॉर्ड बन गया था। सारी दुनिया ये उम्मीद लगा रही थी कि रोम ओलिंपिक में कोई अगर 400 मीटर की दौड़ जीतेगा तो वो भारत के मिल्खा सिंह होंगे। ये दौड़ ओलिंपिक के इतिहास में जाएगी जहाँ पहले चार एथलीटों ने ओलंपिक रिकॉर्ड तोड़ा और बाक़ी दो एथलीटों ने ओलिंपिक रिकॉर्ड बराबर किया। इतने लोगों का एक साथ रिकॉर्ड तोड़ना बहुत बड़ी बात थी।’
1962 में कोलकाता में आयोजित नेशनल गेम्स में माखन सिंह ने मिल्खा को बुरी तरह हराया था। अपने छह साल के करियर में माखन ने 12 गोल्ड, एक सिल्वर और तीन ब्रॉन्ज मेडल जीते। मिल्खा सिंह ने एक इंटरव्यू में भी माना था, ‘रेस पर अगर मुझे किसी से डर लगता था तो वह माखन सिंह थे। वह एक बेहतरीन धावक थे। 1962 के नेशनल गेम्स के बाद से आज तक मैंने वैसी 400 मीटर की रेस नहीं देखी। मैं माखन को पाकिस्तान के अब्दुल खालिक से भी ऊपर मानता हूं।’
मिल्खा रोम ओलिंपिक में जब दौड़ रहे थे तो वे सबसे आगे चल रहे थे, लेकिन उन्हें लगा कि वे जरूरत से ज्यादा तेज दौड़ रहे हैं। आखिरी छोर तक पहुंचने से पहले उन्होंने पीछे मुड़कर देखना चाहा कि दूसरे धावक कहां पर हैं। इसी वजह से उनकी रफ्तार और लय टूट गई। उन्होंने 45.6 सेकंड का समय तो निकाला लेकिन एक सेकेंड के दसवें हिस्से से पिछड़कर वे चौथे स्थान पर रहे। इसके बाद मिल्खा ने जकार्ता में 1962 के एशियाई खेलों में गोल्ड मेडल जीता लेकिन वे समझ गए कि अब वे अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कभी नहीं कर सकेंगे।