आज दूर्वा गणपति व्रत हैं। सावन महीने की कृष्ण और शुक्लपक्ष की चतुर्थी पर गणेशजी की पूजा की जाती है। इस तिथि के स्वामी भगवान गणेश को माना जाता है। इसे दूर्वा गणपति चौथ भी कहा जाता है। इस दिन गणेशजी को दूर्वा चढ़ाकर विशेष पूजा की जाती है। ऐसा करने से परिवार में सुख-समृद्धि बढ़ती है और सभी मनोकामना पूर्ण होती है। इस व्रत का जिक्र स्कंद, शिव और गणेश पुराण में किया गया है। मान्यता हैं कि दुर्वा गणपति व्रत रखने से जीवन के सारे कष्ट दूर हो जाते हैं।
दूर्वा एक प्रकार की घास है जिसे दूब भी कहा जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम साइनोडान डेक्टीलान है। दूर्वा कई महत्वपूर्ण औषधीय गुणों से भरपूर होती है। मान्यता है कि समुद्र मंथन के समय जब समुद्र से अमृत-कलश निकला तो देवताओं से इसे पाने के लिए दैत्यों ने खूब छीना-झपटी की जिससे अमृत की कुछ बूंदे पृथ्वी पर भी गिर गईं थी जिससे ही इस विशेष घास दूर्वा की उत्पत्ति हुई। दुर्वा को इकट्ठा कर के गांठ बनाकर गुड़ के साथ भगवान श्रीगणेश को चढ़ाया जाता हैं। ध्यान रहे कि भगवान गणपति को हमेशा दूर्वा को जोड़े के साथ ही चढ़ाएं।
इस तरह करें दूर्वा गणपति व्रत की पूजा
सुबह जल्दी उठकर नहाने के बाद गणेश जी की मूर्ति या तस्वीर के सामने बैठकर व्रत और पूजा का संकल्प लेना चाहिए। इसके बाद अपनी इच्छा अनुसार सोने, चांदी, तांबे, पीतल या मिट्टी से बनी भगवान श्रीगणेश की प्रतिमा स्थापित करें। फिर ऊं गं गणपतयै नम: मंत्र बोलते हुए जितनी पूजा सामग्री उपलब्ध हो उनसे भगवान श्रीगणेश की पूजा करें। गणेशजी की मूर्ति पर सिंदूर लगाएं। फिर 21 दूर्वा दल चढ़ाएं। गुड़ या बूंदी के 21 लड्डुओं का भोग भी लगाएं। इसके बाद आरती करें और फिर प्रसाद बांट दें।
दूर्वा गणपति व्रत की कथा
अनलासुर नाम के दैत्य से स्वर्ग और धरती पर त्राही-त्राही मची हुई थी। अनलासुर ऋषियों और आम लोगों को जिंदा निगल जाता था। दैत्य से परेशान होकर देवी-देवता और ऋषि-मुनि महादेव से प्रार्थना करने पहुंचे। शिवजी ने कहा कि अनलासुर को सिर्फ गणेश ही मार सकते हैं। फिर सभी ने गणेशजी से प्रार्थना की। श्रीगणेश ने अनलासुर को निगला तो उनके पेट में जलन होने लगी। कई उपाय के बाद भी जलन शांत नहीं हो रही थी। तब कश्यप ऋषि ने दूर्वा की 21 गांठ बनाकर श्रीगणेश को दी। जब गणेशजी ने दूर्वा खाई तो उनके पेट की जलन शांत हो गई। तभी से श्रीगणेश को दूर्वा चढ़ाने की परंपरा शुरू हुई।