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Afghanistan में सत्ता की मलाई के लिए Taliban लीडर्स में खींचतान, Kabul पर आतंकवाद का घटाटोप अंधेरा

काबुल की सड़कों पर तालिबान

अफगानिस्तान में अस्थि राष्ट्रपति अशरफ गनी के देश छोड़कर भागे हुए आज तीसरा दिन है। तालिबान अभी तक नई सरकार के मुखिया के नाम का ऐलान नहीं कर पाया है। यह मानकर रखिए कि अफगानिस्तान में नए शासकों की नियुक्ति में जितनी ज्यादा देर होगी उतना ही ज्यादा अफगान अशांत और अस्थिर रहेगा। अफगानिस्तान की गतिविधियों पर बारीक निगाह रखने वालों का कहना है कि अगर 24 घण्टों के भीतर अफगानिस्तान में नई सरकार का ऐलान नहीं हुआ तो काबुल और आस-पास के इलाकों मे फिर से रक्तपात शुरू हो जाएगा।

तीन दिन पहले 14 अगस्त 2021 तक तालिबान, अलकायदा और आईएसआईएस सब के सब अशरफ गनी की सरकार और अमेरिकी फौजों के खिलाफ एकजुट होकर लड़ रहे थे। इन सब का मकसद अफगानिस्तान से विदेशी फौजों को बाहर निकालना था। वो अपने मकसद में समय से पहले कामयाब भी रहे। 15 अगस्त 2021 की शाम 4 बजे से परिस्थितियां तेजी से बदली हैं।

लगभग 20 साल के लम्बे संघर्ष और जानमाल के भारी नुकसान के बाद तालिबान के भीतर बने गुटों के अलावा हक्कानी नेटवर्क और अलकायदा के लोग भी सत्ता में भागीदारी मांग रहे हैं। अफगानिस्तान की सत्ता पर काबिज होने के लिए पहले तो तालिबान में ही कई दावेदार हैं। इन दावेदारों में आपस में ही सख्त कम्पटीशन है।

चलिए, पहले जानते हैं कि तालिबान के भीतर वो कौन-कौन से गुट हैं जो सत्ता के शीर्ष पर काबिज होना चाहते हैंः इनमें सबसे पहला नाम हैबतुल्ला अखुंदजादा का है। अखुंदजादा तालिबान का चीफ कमाण्डर है। तालिबान के भीतर सबकुछ ठीक-ठाक चल रहा होता तो अभी तक अखुंदजादा को अफगानिस्तान का अमीर यानी अफगानिस्तान में तालिबान सरकार का मुखिया घोषित कर दिया जाता।

 दो दिन पहले 15 अगस्त की दोपहर में पहले अफवाह उड़ी कि अखुंदजादा तालिबान सरकार के चीफ होंगे। फिर एक अफवाह उड़ी कि अभी अंतरिम सरकार बनेगी और अली अहमद नूर कार्यवाहक राष्ट्रपति का पदभार संभालेंगे। रात होते-होते खबर आई कि कोई अंतरिम सरकार नहीं बनेगी बल्कि मुल्ला ब्रादर नई सरकार के मुखिया होंगे।

एक दिन पहले 16 अगस्त की सुबह होते-होते खबर आई कि मुल्ला ब्रादर दोहा पहुंच गए हैं। अफगानिस्तान में नई सरकार के गठन पर चर्चा होगी, फिर किसी एक नाम का ऐलान होगा। यहां सोचने वाली बात यह है कि जो तालिबान पिछले दो सालों से अफगानिस्तान में 20 सालों से लड़ रहा है उसके पास जंग जीतने के बाद कोई एक सर्वमान्य नेता अभी तक नहीं है।

दरअसल, तालिबान में जितने नेता हैं, उतने ही गुट हैं। अखुंदजादा का अपना गुट, अपने लोग-अपनी ताकत है। तो वहीं मुल्ला ब्रादर का अपना गुट है, अपने लोग और अपनी ताकत है। इन दोनों के अलावा अभी तक नेपथ्य में चल रहे मुल्ला याकूब की अपनी अलग भूमिका है। तालिबान में विभाजन को रोकने के लिए हैबतुल्ला अखुंदजादा ने कुछ समय पहले ही मुल्ला याकूब को तालिबान का मिलिटरी चीफ नियुक्त किया था।

मुल्ला याकूब तालिबान के संस्थापक मुल्ला उमर का बेटा है। अफीम का सारा काला धंधा मुल्ला याकूब और उसके वफादार चलाते हैं। अखुंदजादा के साथ ही मुल्ला याकूब भी अफगानिस्तान की नई सरकार का अमीर यानी मुखिया बनना चाहता है। अफगानिस्तान में नई सरकार का मुखिया बनने की रेस में मुल्ला ब्रादर का नाम भी अखुंदजादा के बराबर चल रहा है।

मुल्ला ब्रादर 10 साल तक पाकिस्तान की जेल में रहने के बाद 2018 में अमेरिकी दखल-दबाव के बाद रिहा हुआ और सीधा दोहा पहुंचा तालिबान का पॉलिटिकल चीफ बन गया। अब अफगानिस्तान में तालिबान सरकार का मुखिया बनना चाहता है। इतना सब कुछ जानने के बाद यह साफ हो जाता है कि मौजूदा वक्त में तालिबान के भीतर कम से कम तीन गुट सत्ता पर काबिज होने के लिए रस्साशी कर रहे हैं लेकिन अभी तक राय शुमारी नहीं बन पाई है।

इन सबके अतिरिक्त चौथा नाम अली अहमद नूर का है। तालिबान में अली अहमद नूर का गुट भी काफी ताकतवर माना जा रहा है। इस तरह अब 4 गुट हैं जो आपस में सत्ता की मलाई हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं। इन चार में से कोई तीन गुट एक हो भी गए तो चौथा असंतुष्ट गुट अफगानिस्तान को अस्थिर और अशांत करता रहेगा। ये तो तालिबान का हस्र है।

तालिबान के अलावा अलकायदा और हक्कानी नेटवर्क भी अपने-अपने प्रॉक्सी के जरिए अफगान की सत्ता में सीधे हस्तक्षेप की कोशिश में हैं। अलकायदा किस पर दांव लगा रहा है। इसका खुलासा नहीं हुआ है। वैसे अखुंदजादा और मुल्ला याकूब दोनों ही पेशावर काउंसिल और क्वेटा काउंसिल के समर्थन का दावा कर रहे हैं। हक्कानी नेटवर्क का चीफ सिराजुद्दीन हक्कानी भी भीतर ही भीतर एक्टिव है।

हक्कानी नेटवर्क और अलकायदा प्रोसक्राइब्ड टेररिस्ट ऑर्गेनाईजेशन हैं। चीन ने मुल्ला ब्रादर से बातचीत के वक्त अफगानिस्तान को आतंकवादियों से मुक्त रखने का वचन लिया है। लेकिन यह नामुमकिन है। तालिबान और अलकायदा की दोस्ती को इसी इसी बात से समझा जा सकता है कि 9/11 का मास्टर माइंड और अलकायदा चीफ ओसामा बिन लादेन सालों-साल अफगानिस्तान में रहा और अमेरिका उस तक पहुंच भी नहीं सका।

अमेरिका तालिबान से मांग-मांग कर थक गया लेकिन तालिबान ने ओसामा बिन लादेन को देना तो दूर उसकी लोकेशन तक अमेरिका को नहीं दी। यह वही तालिबान था जिसे हथियार-पैसा और प्रशिक्षण के लिए अमेरिका ने ही खड़ा किया था। यहां सवाल यह है कि अलकायदा हैबतुल्ला अखुंदजादा, मुल्ला याकूब, मुल्ला ब्रादर या अली अहमद नूर में से किसके पक्ष में खड़ा होता है।

इसी तरह हक्कानी नेटवर्क का चीफ सिराजुद्दीन हक्कानी तालिबान के कौन से गुट के साथ है यह भी स्पष्ट नहीं है। इसके अलावा नरम तालिबान और गरम तालिबान का संघर्ष भी सतह पर आ रहा है। नरम तालिबान की कसमें खाने वाले प्रवक्ता सोहेल शाहीन की आवाज कहीं गुम है तो गरम तालिबान के पैरोकार जबीहउल्लाह मुजाहिद ने मोर्चा संभाला हुआ है।

बीस साल बाद, एक बार फिर अफगानिस्तान अंधेरी गुफा में घुस चुका है। पाकिस्तान, बेगानों की शादी में अब्दुला दीवना सरीखा रोल निभा रह है। यह वही पाकिस्तान है जो अमेरिकी इशारों पर नाचता रहा है। अमेरिका बहादुर के कहने पर पाकिस्तान मुल्ला ब्रादर को कैद करता है। अमेरीका बहादुर के कहने पर रिहा करता है। क्या तालिबान इस बात को भी भूल गया होगा कि उसके राजदूत को पाकिस्तान ने गिरफ्तार कर अमेरीकियों के हवाले कर दिया था।

ताला की जिंदगी में सवेरा कब आएगा- कहना मुश्किल है।