कतर की राजधानी दोहा में तालीबान और अफगानिस्तान की सरकार के बीच होने वाली पहली मुलाकात पर सस्पेंस बकरार है। तालीबानी प्रतिनिधिमंडल पिछले चार दिनों से वहां है, राष्ट्रपति ट्रंप के विशेष प्रतिनिधि ज़ाल्मय खलीलजाद भी वहां डेरा डाले बैठे हैं। बस इंतजार है अफगानिस्तान की सरकार के दल का, जो अभी तक काबुल में ही है।
राष्ट्रपति गनी के प्रवक्ता के मुताबिक, “देरी हमारी तरफ से नहीं है, तालीबानी ही टाल मटोल कर रहे हैं। वो तारीख तो बताएं, हमारी टीम काबुल से रवाना हो जाएगी। हमने तो उनकी सारी मांग मानते हुए सारे तालीबानी कैदियों को रिहा कर दिया है।"
लेकिन तालीबानियों का कहना है कि अफगानिस्तान झूट बोल रही है। तालीबान के प्रवक्ता मोहम्मद नईम वरदक का कहना है “करीब 100 तालीबानी अभी भी सरकार की कैद में हैं, जब तक उन्हें छोड़ा नहीं जाएगा, बातचीत नहीं हो सकती।"
19 सालों की से चल रहे इस खून-खराबे में पहली बार दोनों पक्ष बातचीत करने के लिए तैयार हुए हैं। हालांकि न तो तालीबान को मौजूदा सरकार पर भरोसा है और न ही अफगानिस्तान सरकार को तालीबान पर यकीन है। लेकिन बातचीत होने वाली है।
29 फरवरी को दोहा में अमेरिका और तालीबान के बीच समझौता हुआ था और इसके तहत तालीबान और अफगानिस्तान के बीच बात होनी है। तालीबान की शर्त थी कि पहले अफगान सरकार उसके 5000 लड़ाकों को रिहा करे और उसके एवज में वो 1500 सरकारी सैनिकों को रिहा करेगा। राष्ट्रपति गनी इसके लिए तैयार नहीं थे। उनकी और सरकार में शामिल कई नेताओं को आशंका थी कि जेल से रिहा होने के बाद तालीबान के लड़ाके फिर उनकी सरकार के खिलाफ लड़ाई छेड़ देंगे।
वैसे भी समझौते के बाद तालीबान ने सरकारी सेना और ठिकानों पर हमला तेज कर दिया है। तालीबान का कहना है समझौता अमेरिका के साथ है। इसीलिए वे अमेरिकी सेना पर हमला नहीं करेंगे। “मौजूदा सरकार तो अमेरिका ने बनाई है हम इसे नहीं मानते हैं। अफगानिस्तान में हमारी सरकार है भले ही यह निर्वासन में है लेकिन गनी की सरकार तो अफगानों की सरकार कतई नहीं।"
जाहिर है मामला काफी जटिल है। साफ दिख रहा है कि दोनों पक्षों पर बातचीत के लिए अमेरिका का काफी दवाब है। लेकिन बातचीत हो भी जाती है, तो हल क्या निकलेगा? जब दोनों को ही एक दूसरे पर विश्वास नहीं है।
अमेरिका और तालीबान समझौते के तहत, अमेरिका अगले 14 महीनों में अपने सभी 14000 सैनिक अफगानिस्तान से हटा लेगा। पिछले चार महीनों में उसने करीब 8000 सैनिक हटा लिए हैं। अफगानिस्तानी राष्ट्रपति का डर यही है। उनका मानना है कि एक बार अमेरिकी फौज अफगानिस्तान से हट गई, तो देश में एक बार फिर से तालीबानी शासन हो जाएगा।
गनी का मानना है कि तालीबान ने पाकिस्तानी दवाब के कारण अमेरिका से समझौता किया है। यह बात सही भी है। तालीबान के सारे बड़े नेता 2001 में अमेरिकी हमले के बाद से पाकिस्तान में अपने परिवार के साथ पाकिस्तानी फौज की शरण में हैं।
पाकिस्तानी पत्रकार रहीमुल्लाह युसुफजई का कहना है कि पाकिस्तानी आर्मी का तालीबान पर काफी दबाव है। प्रेसीडेंट ट्रम्प ने पाकिस्तान को साफ-साफ कह दिया था कि पाकिस्तान तालीबानियों का सेफ हेवन है और अगर अमेरिका से समर्थन चाहिए तो तालीबान को बातचीत के लिए तैयार करे। मरता ना क्या करता, पाकिस्तान ने साम-दाम-दंड-भेद का इस्तेमाल कर तालीबान को अमेरिका से समझौते के लिए तैयार करवा दिया और राष्ट्रपति ट्रंप ने उसकी पीठ भी थपथपाई।
इसमें पाकिस्तान का अपना भी फायदा है। अगर तालीबान की अफगानिस्तान की सत्ता में भागीदारी होती है तो उसके पौ बारह। एक तीर से दो शिकार। अफगान में गनी की सरकार और भारत की नजदीकी पाकिस्तान को रास नहीं आ रही है। अगर तालीबान और अफगान में कोई समझौता हो जाता है और जैसा कि तालीबान की मांग है, तालीबान की सरकार में भागीदारी हो जाती है तो पाकिस्तान का प्रभाव भी अफगानिस्तान में बढ़ेगा।
अफगानिस्तान में हर कोई अपना खेल खेल रहा है। राष्ट्रपति ट्रंप अगले चुनाव से पहले अफगानिस्तान से अमेरिकी फौज की वापसी का अपना पिछला चुनावी वायदा पूरा करना चाह रहे हैं। पिछले 19 सालों से सत्ता से बाहर तालीबान अपना अस्तित्व बचाने कोशिश में है। मौजूदा अफगान सरकार अपनी अंदरुनी लड़ाई से परेशान है और अफगान जनता इस बात से आशंकित है कि कहीं फिर से तालीबानी शासन वापस ना आ जाए। उनकी चिंता जायज है।
अमेरिका से समझौते के बावजूद तालीबान और अल-कायदा का खून-खराबा जारी है। एक यून रिपोर्ट ने भी कहा है कि तालीबान और अल-कायदा के रिश्ते बरकरार हैं और इन दोनों ने मिलकर अफगानिस्तान में कई हमले किए हैं। जिसमें 4000 से ज्यादा बेकसूर मारे जा चुके हैं। अफगान सरकार की एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश के 59 जिले पूरी तरह से तालीबान के कब्जे में हैं, जबकि अफगान सरकार के पास 229 जिले हैं और बाकी 119 जिलों पर कब्जे के लिए तालीबन और सरकार के बीच जंग जारी है। राष्ट्रपति गनी की आशंका है कि रिहा किए गए तालीबानी फिर से इस लड़ाई कूद पड़ेंगे। फॉरेन पालिसी की क्वीन यूनिवर्सिटी की ताजा रिपोर्ट इस बात की पुष्टि करती है।
अफगानिस्तान नेशनल सिक्यूरिटी कांउसिल के प्रवक्ता जावेद फैजल के मुताबिक “यह सारे वॉर क्रिमिनल थे जिन्हें रिहा किया गया..इनमें कई को फांसी सजा सुनाई गई थी..कईयों पर मिलाओं और बच्चों की जान लेने का जुर्म साबित हो चुका है..क्या ये घर बैठेंगे..यह हमारे खिलाफ लड़ेंगे।"
सबसे ज्यादा खौफ अफगानिस्तान की महिलाओं में है। पिछले 19 सालों में आज करीब 35 लाख लड़कियां स्कूल जा रही हैं, अफगानिस्तान के कानून में उन्हें बराबर का दर्जा और अधिकार है और राजनीति, सरकार, शासन में आज वो हैं। उनका डर यह है कि तालीबान की वापसी के साथ उनकी आजादी छीन ना ली जाए। काबुल में स्थित पत्रकार रुचि कुमार के मुताबिक, “उन्हें लगता है कि जो आजादी उन्हें मिली है, इन समझैतों के चक्कर में वह कहीं खत्म न हो जाए।"
महिलओं की अधिकार से जुड़ी सांसद फावजिया कूफी का कहना है, “पिछली बार दोहा में, मैं तालीबानी के नेताओं से मिल चुकी हैं..मैंने उनसे कहा कि आपने मुझे मारने की कोशिश की, मेरे पति को जेल में डाला था..महिलाओं, बच्चियों पर जुल्म किए..लेकिन अब यह नहीं होगा..इस गलतफहमी में मत रहना।"
भारत की अपनी अलग चिंता है, क्योंकि भारत ने वहां करीब तीन अरब डॉलर का निवेश किया है। वहां भारत ने कई इन्फ्रॉस्ट्रक्चर प्रोजेक्ट, डैम, स्कूल, सड़कें और संसद भवन आदि बनाये हैं। अभी भी कई प्रोजेक्ट चल रहे हैं। सामरिक दृष्टि से भी अफगानिस्तान भारत के लिए मायने रखता है। जाहिर है, भारत की चिंता स्वाभाविक है और अमेरिका भी इससे वाकिफ है। भारत का कहना है, “भारत की हमेशा से नीति उन सभी अवसरों का समर्थन करने की रही है जो अफगानिस्तान में शांति, सुरक्षा और स्थिरता ला सकें, हिंसा समाप्त करें और अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद से संबंध समाप्त कर अफगान के नेतृत्व वाली, अफगान के स्वामित्व वाली और अफगान नियंत्रित प्रक्रिया के जरिये एक दीर्घकालिक राजनीतिक समाधान लाये।"
फावजिया कूफी ने अफगान सरकार को चेताया है कि कोई भी फैसला लेने से पहले यह जरूर सोचें कि अफगानिस्तान की आधी आबादी महिलाओं की है..इसकी हत्या नहीं होनी चाहिए।.