चीन 1990 और 2000 के दशक के शुरुआती समय में अपनी विदेश नीति को डेंग शियाओपिंग की <strong>क्षमता छुपाओ, समय बिताओ</strong> के हिसाब से संचालित करता था। हालांकि समय-समय पर ताइवान की खाड़ी में उसके टकराव होते रहते थे लेकिन उसका पूरा ध्यान अपनी सेना के आधुनिकीकरण और एक सॉफ्ट पावर की छवि गढ़ने पर ही था।
1997 में दक्षिण-पूर्व एशिया में अभूतपूर्व वित्तीय संकट आया। अपने संकटग्रस्त पड़ोसियों को आर्थिक राहत पैकेज देकर के चीन ने पूरे इलाके में अपने नेतृत्व के लिए एक आम सहमति बनाने का भरपूर प्रयास किया। एक जिम्मेदार पड़ोसी के रूप में व्यवहार करने का दिखावा करने के बाद चीन ने विश्व व्यापार संगठन में भी प्रवेश किया। चीन ने 2008 में बीजिंग ओलंपिक खेलों का आयोजन किया। ऐसा उसने अपनी विशाल ओलंपिक सुविधाओं और आधुनिक चीन को दुनिया के सामने पेश करने के लिए किया।
चीन की विदेश नीति में बदलाव का कारण 2008 का वैश्विक वित्तीय संकट बना। जबकि पूरी दुनिया इस वित्तीय संकट से दुष्प्रभावित हुई, चीन पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने इसकी गलत व्याख्या करने में अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी। पार्टी इस निष्कर्ष पर पहुंच गई कि अमेरिका का वर्चस्व अब खत्म हो रहा है। अब अपने प्रभुत्व को बढ़ाने का एक मौका उनके पास आया है। जिसे उन्हें लपक लेना चाहिए। इस तरह चीन की क्षमता छिपाओ, समय बिताओ की नीति का अंत हो गया।
<h2>2010 में आक्रामकता का परिचय देकर पीछे हटा चीन</h2>
चीन ने 2010 में पहली बार आक्रामक नीति का परिचय दिया। तत्कालीन चीनी राष्ट्रपति हू जिंताओ ने कहा कि चीन को अपने लक्ष्यों को हासिल करने के लिए सक्रिय रूप से प्रयास करने की जरूरत है। डेढ़ साल तक लगातार आक्रामक नीति चलाने के बाद चीन को यह अहसास हो गया कि अमेरिका अभी भी दुनिया की सबसे प्रभावी ताकत है। तब उसने अपनी आक्रामकता में कुछ कमी की। चीन समझ गया कि उनको इस दुनिया में एक जिम्मेदार ताकत के रूप में व्यवहार करना पड़ेगा। हू जिंताओ ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय में अपनी पैठ बनाने के लिए ग्लोबलाइजेशन को बढ़ावा दिया। उसने अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की जलवायु परिवर्तन संबंधी पहलों की भी सराहना की।
ट्रंप प्रशासन की चीन के प्रति शत्रुतापूर्ण नीति के बावजूद चीन ने यूरोप और विकासशील देशों में अपनी रणनीतिक पहुंच बनाने की कोशिशें लगातार जारी रखीं। चीन ने और शी जिनपिंग ने लगातार इस बात पर जोर दिया है कि चीन का उदय शांतिपूर्ण है। लेकिन 2020 ने चीन के शांतिपूर्ण उदय के मिथक को ध्वस्त कर दिया है। इसने चीन की आक्रामकता को पूरी दुनिया के सामने स्पष्ट कर दिया है। पूरी दुनिया के नीति-निर्माता या राजनयिक हलका यह समझ चुका है कि 2020 का चीन पहले के चीन से काफी अलग है। अब उसकी आक्रामकता से निपटने के लिए नई रणनीति बनाने की जरूरत है। चीन की नई विदेश नीति ने पूरी दुनिया में सीमा क्षेत्रों को लेकर सैनिक टकराव बढ़ाकर सुरक्षा और शांति को खतरा पैदा कर दिया है।
चीन के आक्रामक नीति का दायरा दक्षिण चीन सागर से लेकर हिमालयी भारत में सीमा टकराव को बढ़ावा देने तक फैला है। इस साल चीन ने साउथ चाइना सी में 2 नए जिले घोषित कर दिए हैं। जिसमें सभी विवादित क्षेत्र शामिल हो गए हैं। हाल ही में चीन के युद्धपोत इंडोनेशिया के जल क्षेत्र में देखे गए हैं और वियतनाम का दावा है कि उसके एक जलपोत को डुबाने का काम चीन की नौसेना ने किया है।
चीन ने भारत के साथ सीमा तनाव बढ़ाना शुरू कर दिया है। पिछले 1 साल से दोनों के बीच सीमा पर भारी तनाव है। डोकलाम विवाद बिना किसी हिंसा के निपट गया, लेकिन गलवान घाटी में हिंसक झड़प हुई। पिछले 45 साल से दोनों देश बिना किसी सैनिक झड़प के अपने सीमा विवाद पर बातचीत कर रहे थे और कुछ हद तक उसे सुलझाने में भी कामयाब हुए थे। गलवान की घटना ने चीनी आक्रामकता का एक नया अध्याय शुरू कर दिया है। चीन ने पूरे लद्दाख में भारी संख्या में सैनिक जमावड़ा शुरू कर दिया है। जिसके जवाब में बाध्य होकर भारत को भी अपना कड़ी सैनिक प्रतिक्रिया देनी पड़ रही है।
<h2>चीन के डिप्लोमेट्स बने वुल्फ वॉरियर</h2>
चीन की आक्रामकता का एक बड़ा मोर्चा उसके राजनयिक हैं, जो चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की छवि की रक्षा करने की पहली सुरक्षा पंक्ति हैं। चीन के डिप्लोमेट्स दुनिया में कठोर तरीके से अपना पक्ष रख रहे हैं। इन राजनयिकों को चीन वुल्फ वॉरियर की संज्ञा देता है। ये वॉरियर चीन के नए राष्ट्रवाद की उपज हैं। ये हमेशा उस मुद्रा में रहते हैं, जिसे शी जिनपिंग फाइटिंग स्पिरिट कहते हैं। एक ऐसे ही वुल्फ वॉरियर ने दावा किया कि अमेरिकी सेना ने चीन में कोविड-19 को फैलाया है। जब ब्रिटेन ने चीन की हुवेई कंपनी के साथ अपने 5G नेटवर्क सेवा के करार को खत्म करने की घोषणा की तो लंदन में मौजूद चीनी राजदूत ने कहा कि ब्रिटेन को इसकी कीमत चुकानी होगी।
चीन की कम्युनिस्ट सरकार की आक्रामकता केवल बाहरी ही नहीं वरह आंतरिक मामलों मे भी बढ़ रही है। उसके निशाने पर सबसे पहले शिनजियांग प्रांत के 1 करोड़ 10 लाख से अधिक मुस्लिम आए हैं। अमेरिका के विदेश विभाग का दावा है कि करीब 10 लाख उइघुर जबरिया श्रमिकों के रूप में श्रम शिविरों में भेज दिए गए हैं। चीन ने हाल ही में जारी एक श्वेत पत्र में स्वीकार किया है कि वह हर साल करीब 13 लाख उइघुरों को कार्य प्रशिक्षण शिविरों में भेजता है। ये कार्य प्रशिक्षण शिविर एक तरह से बंधुआ मजदूर शिविर हैं।
इसके अलावा चीन ने हांगकांग में एक नया राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लागू कर दिया है। इसके विरोध में पूरे हांगकांग में सड़कों पर भारी लोकतंत्र समर्थक प्रदर्शन भी हुए। ये प्रदर्शन बीजिंग के साथ हांगकांग के लोगों के टकराव का एक साधारण नमूना है। नया कानून बीजिंग को हांगकांग में ज्यादा दमन करने की छूट देता है। इस नए कानून से एक देश दो व्यवस्था का सिद्धांत खत्म हो गया। हांगकांग भी पूरी तरह चीन के अधिकार के दायरे में आ चुका है।
<h2>सस्ते लेबर के कारण पश्चिमी देशों को चीन में माल बनवाना पड़ा किफायती</h2>
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर चाइनीस एंड साउथ ईस्ट एशियन स्टडीज के <strong>चेयरमैन और प्रोफेसर बी.आर. दीपक</strong> का कहना है कि 1997 तक चीन शांतिपूर्ण ढंग से अपना आर्थिक विकास करता जा रहा था। उस दौरान पश्चिमी देश चीन के औद्योगीकरण को बहुत ज्यादा बढ़ावा दे रहे थे। इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि पश्चिमी देशों में श्रमिक महंगे हो गए थे। बड़ी पश्चिमी कंपनियां चीन से अपने माल को तैयार करवाना सस्ता पा रही थीं। इस दौरान चीन ने वैश्वीकरण को भी बढ़ावा दिया और बड़े पैमाने पर वहां कारखाने स्थापित हो गए।
डेंग शियाओपिंग के समय 1987 में चीन ने एक रणनीति बनाई थी, जिसे थ्री स्टेज रणनीति कहा गया था। इसका पहला लक्ष्य सन् 2000 तक चीन की जीडीपी को दोगुना करना था, इसके बाद 2010 तक फिर जीडीपी को दोगुना करना था और 2020 तक चीन को एक मध्यम समृद्ध देश में बदल देना था। 2049 तक चीन को एक मध्यमवर्गीय जनसंख्या वाले विकसित देश में बदलने का लक्ष्य था।
पश्चिमी देशों को लग रहा था कि आर्थिक संबंधों के साथ धीरे-धीरे वे अपने सांस्कृतिक संबंधों को भी चीन से जोड़ेंगे और चीन की नीति को उदारवादी बना लेंगे। उनको लगता था कि धीरे-धीरे उनकी फिल्में और संस्कृति चीन के लोगों पर असर डालेंगी और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की तानाशाही में कुछ सुधार आएगा।
इस आर्थिक प्रगति के समय चीन में कई स्टार्टअप्स बहुत ज्यादा सफल हो गए। चीन तेजी से तरक्की की सीढ़ियां चढ़ता हुआ फ्रांस, जर्मनी और जापान को पीछे छोड़कर 2010 में दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आर्थिक महाशक्ति बन गया। पूर्वी एशिया में 1997 के वित्तीय संकट में चीन ने पड़ोसी देशों की काफी मदद की और अपनी छवि बेहतर बना ली।
<h2>पश्चिमी देशों को हो रहा धोखे का अहसास</h2>
चीन 2010 तक अपनी बढ़ती ताकत को चीन का उदय कहता था। लेकिन जब उसने अपनी आक्रामकता बढ़ाई तो इसे चीन का शांतिपूर्ण उदय कहने लगा, जो किसी के गले नहीं उतर रहा है। चीन का साफ कहना है कि अब वह दुनिया के मामलों में केवल मूकदर्शक नहीं रहेगा बल्कि अपनी बात खुलकर कहेगा। चीन ने अब तीन बातें बहुत ही स्पष्ट कर दी हैं। पहला वह अपनी साम्यवादी व्यवस्था को कभी नहीं छोड़ेगा, एक दलीय कम्युनिस्ट पार्टी की प्रणाली को कभी खत्म नहीं करेगा और विकास के साम्यवादी मॉडल पर बढ़ता रहेगा।
शी जिनपिंग को अब लगता है कि यह लक्ष्य करीब-करीब हासिल कर लिया गया है। उन्होंने <strong>मेड इन चाइना-</strong><strong>2025</strong> नामक एक नई योजना बनाई। इसका लक्ष्य चौथी औद्योगिक क्रांति (फोर्थ इंडस्ट्रियल रिवॉल्यूशन) में शामिल आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, साइबर इकोनमी, स्पेस टेक्नोलॉजी और थ्रीडी प्रींटिंग जैसे उच्च तकनीक वाले 10 उद्योगों में चीन की 70% वैश्विक उत्पादन हिस्सेदारी हासिल करना है। चीन को लेकर पश्चिमी देशों की बौखलाहट इसके कारण सबसे ज्यादा बढ़ रही है। क्योंकि चीन उच्च तकनीकी क्षेत्र में पश्चिमी क्षेत्रों की कंपनियों को देश में घुसने नहीं दे रहा है। जबकि अपनी तकनीकी कंपनियों को उसने पश्चिमी देशों पर कब्जा करने के लिए खुला छोड़ दिया है।
चीन तो गूगल, फेसबुक,अमेजन जैसे प्लेटफार्म को अपने यहां पहुंचने नहीं देता है। लेकिन वह हुवेई से लेकर अलीबाबा तक सारी कंपनियों को पूरी दुनिया पर मुफ्त सवारी करने के लिए छोड़ चुका है। इसको लेकर अब यूरोपीय देशों में आशंका बढ़ी है। अगर यह शीतयुद्ध बढ़ता रहा तो धीरे-धीरे सभी पश्चिमी देश अमेरिका के पीछे लामबंद हो जाएंगे। चीन का बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव प्रोजेक्ट भी भारी चिंता का कारण है। वैसे चीन काफी चालाक भी है। अगर दबाव बढ़ा तो अपने कदम पीछे भी खींच सकता है। चीन की एक बड़ी कमजोरी है कि अगर उसने पूरी दुनिया के साथ अपने टकराव को बढ़ाया तो उसकी वैश्विक निर्यात पर आधारित अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो सकती है। इससे वहां बेरोजगारी बहुत ज्यादा बढ़ जाएगी। इसलिए भी चीन आर्थिक संघर्ष को बहुत ज्यादा दूर तक नहीं खींच सकता है।
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