दुनिया के सबसे बड़े फ्री ट्रेड एग्रीमेंट 'क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी समझौते' <strong>(The Regional Comprehensive Economic Partnership-RCEP)</strong> पर 15 नवंबर को 15 देशों ने हस्ताक्षर कर दिए। 10 आसियान (Association of Southeast Asian Nations-ASEAN ) देशों के अलावा <strong>RCEP</strong> में चीन, जापान, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और दक्षिण कोरिया शामिल हैं। इस समझौते पर हस्ताक्षर होने से एक तरह से पूरा एशिया-प्रशांत क्षेत्र एक मुक्त व्यापार क्षेत्र (Free trade zone) बन गया है।
सभी <strong>RCEP </strong>देशों की कुल जीडीपी करीब 26 ट्रिलियन डॉलर की है। अगर भारत भी इसमें शामिल होता तो यह करीब 30 ट्रिलियन डॉलर की हो जाती। वैसे भी भारत ने <strong>RCEP </strong>समझौते की वार्ता में हिस्सा लिया था। लेकिन पिछले नवंबर में आसियान (Association of Southeast Asian Nations-ASEAN) शिखर सम्मेलन के दौरान <strong>RCEP </strong>से बाहर निकल आया। <strong>RCEP </strong>पर हस्ताक्षर करने वाले कई देश कोरोनोवायरस के गंभीर प्रकोप से जूझ रहे हैं। वे यह भी उम्मीद कर रहे हैं कि आरसीईपी महामारी के आर्थिक असर को कम करने में मदद करेगा।
<div class="content-body">
जबकि सस्ते चीनी सामानों के देश में प्रवेश को लेकर चिंताओं के बीच भारत ने पिछले साल RCEP एग्रीमेंट से हाथ खींच लिए थे। फिर भी RCEP पर हस्ताक्षर करने वालों ने कहा कि उन्हें उम्मीद है कि भविष्य में नई दिल्ली फिर से जुड़ जाएगा। भारत की आर्थिक स्थिति इस समय थोड़ी कमजोर नजर आ रही है। सभी घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक आंकड़े इसकी ओर इशारा करते हैं। ऐसे में क्या भारत को <strong>RCEP </strong>में शामिल होने के अपने फैसले के बारे क्या पुनर्विचार करना जरूरी है?
<h2><strong>भारत की सबसे बड़ी चिंता व्यापार घाटा</strong></h2>
</div>
<strong>जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर चाइनीस एंड साउथ ईस्ट एशियन स्टडीज के चेयरमैन और प्रोफेसर बी.आर. दीपक</strong> का कहना है कि भारत के RCEP से बाहर रहने का सबसे बड़ा कारण इसमें शामिल देशों के साथ उसका व्यापार घाटा है। भारत का चीन के साथ करीब 53-54 अरब डॉलर का व्यापार घाटा है। इसी तरह आसियान देशों के साथ करीब 21-22 अरब डॉलर का व्यापार घाटा है। दक्षिण कोरिया के साथ करीब 12 अरब डॉलर, ऑस्ट्रेलिया से 9 से 10 अरब डॉलर और जापान के साथ भारत का व्यापार घाटा 8 अरब डॉलर है।
अगर इतने बड़े व्यापार घाटे के साथ भारत RCEP में शामिल होता तो उसके सामने और भी समस्याएं पैदा हो सकती थीं। क्योंकि जब सभी वस्तुओं पर 80 से 90 परसेंट आयात शुल्क घटा दिया जाएगा, तो भारत हर तरफ से सभी देशों के सस्ते सामानों का डंपिंग हाउस बन जाएगा। भारत को यह भी डर है कि वह चीन के सस्ते सामानों के आयात को किसी भी तरह रोक नहीं पायेगा। भारत ने RCEP में शामिल होने के लिए कहा था कि वह चीन के सामानों पर पहले साल केवल 28% आयात शुल्क घटाएगा। शेष बचे आयात शुल्क को धीरे-धीरे चरणबद्ध ढंग से अगले 15 साल में घटाएगा।
<h2>भारत की मांग</h2>
भारत ने यह भी मांग की थी कि आयात शुल्क का बेस ईयर (Base year) 2013 के बजाय 2014 होना चाहिए। क्योंकि 2014 में आयात शुल्क की दरें थोड़ी बेहतर थीं। इसके अलावा भारत चाहता था कि RCEP के देश भारत के साथ पुनः दायित्व समझौता (retched obligation deal) साइन करें। जिससे RCEP में शामिल होने के बाद भी भारत जरूरत के हिसाब से आयात शुल्क बढ़ा सकता था। लेकिन RCEP के सदस्य देशों ने भारत की इस मांग को स्वीकार नहीं किया। उनका कहना था कि RCEP समझौते में एक बार शामिल होने के बाद इस तरह की कोई रियायत नहीं दी जाएगी।
भारत को आशंका थी कि RCEP में शामिल होने से चीन आसियान देशों के माध्यम से भी भारत में निर्यात करेगा। भारत उस पर भी कोई कदम नहीं उठा पाएगा। इसके अलावा न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया जैसे डेयरी उद्योग में विकसित देशों के डेयरी खाद्य पदार्थ भारत में आएंगे। ये सस्ते सामान भारत के डेयरी उद्योग को नुकसान पहुंचाएंगे। भारत का डेयरी उद्योग तकनीकी तौर पर पिछड़ा हुआ है। लेकिन इसमें काफी ज्यादा लोगों को रोजगार मिला हुआ है। भारत को यही डर था कि चीन के साथ RCEP में शामिल होने से 50 अरब डॉलर का व्यापार घाटा वास्तव में बहुत ज्यादा बढ़ जाएगा। भारत में मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर वैसे भी बहुत कमजोर है। एक बार अगर भारत RCEP में शामिल हो गया और आयात शुल्क हटा दिए तो भारत का मैन्युफैक्चरिंग उद्योग ध्वस्त हो जाएगा।
<h2>चीन ने WTO में शामिल होकर उठाया था फायदा</h2>
भारत की तरह ही चीन भी आरंभ में वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गेनाइजेशन (WTO) में शामिल होने से हिचक रहा था। 2001 में जब चीन वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गेनाइजेशन में शामिल हुआ तो उसके बाद चीन को अपनी औद्योगिक क्षमता का पता लगा। उसे अंदाजा हुआ कि किन क्षेत्रों में वह ज्यादा उत्पादन कर सकता है। फिर उसने अपने उद्योगों के उसी के हिसाब से ढाल दिया। एक समय में चीन दुनिया का कारखाना बन गया। चीन ने जब संपन्नता आई तो उसने अपने ह्मयून रिसोर्स को विकसित किया। अब चीन अपनी लेबर इंटेंसिव इंडस्ट्री को दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों और दक्षिण एशिया के देशों में भेज रहा है।
बांग्लादेश की पूरी टेक्सटाइल इंडस्ट्री एक तरह से चीनी निवेश से विकास कर रही है। पाकिस्तान और श्रीलंका जैसे देश भी लेबल इंटेसिव इंडस्ट्री में चीन के निवेश का लाभ हासिल कर रहे हैं। चीन यहां पर अपनी लेबर इंटेसिव इंडस्ट्री को शिफ्ट कर रहा है। भारत को अगर RCEP में शामिल होना है तो उसे अपने आर्थिक और औद्योगिक ढांचे में स्ट्रक्चरल चेंज पर भी काम करना होगा। भारत अगर RCEP में शामिल होता तो उसे पता लगता कि किन क्षेत्रों का महत्व है और किन क्षेत्रों में वह बेहतर कर सकता है।
<h2><strong>RCEP में शामिल होने से भविष्य में हो सकता था फायदा</strong></h2>
<strong>प्रोफेसर दीपक</strong> का मानना है कि भले ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और स्वदेशी जागरण मंच जैसे संगठन RCEP में शामिल होने का विरोध कर रहे हैं। लेकिन वास्तव में भारत को इससे बाहर रहने से भविष्य में बहुत ज्यादा फायदा होने वाला नहीं है। भारत अगर इस समझौते में शामिल होता तो उसे कुछ ऐसे फायदे हो सकते थे। जो भविष्य में उसकी औद्योगिक और आर्थिक क्षमता को बढ़ाने का काम कर सकते थे।
इसके लिए भारत को अपने औद्योगिक और आर्थिक ढांचे में तेज बदलाव करना पड़ता। इससे आने वाले समय में देश संपन्नता हासिल कर सकता था। भारत को अपनी भारतमाला और सागरमाला जैसी इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं को बहुत तेजी से क्रियान्वित करना चाहिए। जिससे कि पूरे देश में कनेक्टिविटी बढ़ जाए और इंफ्रास्ट्रक्चर का लेबल सुधरे। फिर विदेशी निवेश से वह अपने इंडस्ट्रियल सेक्टर को मजबूत कर सकता है और चीन को टक्कर दे सकता है।.