रिपब्लिक टीवी के editor-in-chief अर्णब गोस्वामी को सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में तुरंत जमानत (Bail) मिल गई। उन्होंने जमानत के लिए याचिका डाली और उसे तुरंत स्वीकार कर लिया गया। जबकि देश में अनेक लोग लंबे समय से न्याय का इंतजार कर रहे हैं। कोविड-19 के कारण वैसे भी सभी न्यायालय बहुत सावधानी से काम कर रहे हैं। लोगों को करीब 6 महीने से न्यायालयों से राहत हासिल करने में भारी कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है। अर्णब गोस्वामी के मामले में सर्वोच्च न्यायालय की दिखाई गई तेजी जायज हो सकती है। फिर भी ऐसे लोगों की एक बड़ी संख्या है जो न्याय के इंतजार में कष्ट झेल रहे हैं और अर्णब गोस्वामी से ईर्ष्या कर सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष दुष्यन्त दवे ने सुप्रीम कोर्ट के सेक्रेटरी जनरल को इसके बारे में एक पत्र लिखकर अपना विरोध भी जताया है।
जिस तरह से माननीय न्यायमूर्ति डी. वाई. चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी की खंडपीठ के समक्ष अर्णब गोस्वामी के मामले को सूचीबद्ध किया गया है। उससे कई लोगों की नाराजगी को अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता है। ऐसे लोगों को अर्णब गोस्वामी के साथ व्यक्तिगत रूप से कोई समस्या नहीं है। देश के सभी नागरिकों के समान अर्णब गोस्वामी को भी सुप्रीम कोर्ट से न्याय हासिल करने का अधिकार है। ठीक उसी तरह सभी नागरिक भी सर्वोच्च न्यायालय से अर्णब गोस्वामी के समान ही न्याय पाने के अधिकारी हैं।
ऐसे गंभीर मामलों की एक लंबी सूची पेश की जा सकती है, जो कोविड[-19 महामारी के दौरान पिछले कई महीनों से सुप्रीम कोर्ट के सामने रजिस्टर होने के लिए लंबित हैं। देश में हजारों नागरिक लंबे समय से केवल इसलिए जेल में रहते हैं, क्योंकि माननीय सुप्रीम कोर्ट के सामने दायर उनके मामलों को हफ्तों और महीनों तक सूचीबद्ध नहीं किया जाता है।
यह आश्चर्य की बात है कि हर बार अर्णब गोस्वामी जैसे लोगों के कम महत्व के मामले भी कैसे और क्यों सर्वोच्च न्यायालय में तुरन्त सूचीबद्ध हो जाते हैं। क्या इस संबंध में भारत के प्रधान न्यायाधीश और मास्टर ऑफ रोस्टर के विशेष आदेश या निर्देश हैं? यह सर्वविदित है कि मामलों की ऐसी असाधारण तत्काल सूचीबद्धता मुख्य न्यायाधीश के विशिष्ट आदेश के बिना नहीं हो सकती है। ऐसा नहीं मानने कि कोई वजह नहीं है कि अर्णब गोस्वामी को सुप्रीम कोर्ट से विशेष वरीयता मिली है।
<img class="wp-image-17267" src="https://hindi.indianarrative.com/wp-content/uploads/2020/11/arnab-goswami.jpg" alt="arnab goswami" width="555" height="295" /> अर्णब गोस्वामी की जमानत जैसे मामले में सुप्रीम कोर्ट ने तत्काल हस्तक्षेप किया।विभिन्न वकीलों की शिकायत है कि उनके द्वारा दायर मामलों को हफ्तों और महीनों तक सूचीबद्ध नहीं किया जाता है, हालांकि उनके मामले बहुत जरूरी और गंभीर मामलों से जुड़े होते हैं। जबकि केवल अर्णब गोस्वामी की जमानत जैसे मामले में सुप्रीम कोर्ट ने तत्काल हस्तक्षेप किया। वकीलों की यह भी शिकायत है, कि कुछ विशेष वकीलों के मामलों की तत्काल लिस्टिंग होती है जबकि उन्हें लंबे समय तक इंतजार करना पड़ता है।
असली मुद्दा ये है कि सुप्रीम कोर्ट में यह सेलेक्टिव लिस्टिंग क्यों हो रही है, जबकि माना जाता है कि लिस्टिंग सिस्टम पूरी तरह कम्प्यूटरीकृत है और स्वचालित रूप से काम करता है? ऐसा क्यों है कि समान होने के बावजूद कुछ मामलों को लिस्टिंग मिल रही है और कुछ को नही मिलती है। अगर सुप्रीम कोर्ट मामलों की लिस्टिंग के मामले में सभी को न्याय देने में असफल रहता है तो फिर न्याय मिलना तो बहुत दूर की बात है।
कोविड-19 ने वकालत के पेशे के सामने गंभीर चुनौतियां पैदा की हैं और उनकी आजीविका को खतरा उत्पन्न हो गया है। वीडियो के बेहतर तकनीकी प्लेटफॉर्म के साथ वर्चुअल हियरिंग सिस्टम को बेहतर बनाने में इसका समाधान निहित है। सुप्रीम कोर्ट के सामने यह मामला काफी समय से विचाराधीन है। सुप्रीम कोर्ट अज्ञात कारणों से एक बेहतर ऑनलाइन मंच पर खुद को ले जाने में भी विफल रहा है। जिससे इसकी कार्यप्रणाली काफी कम और सीमित हो गई है। उसकी बहुत कम बेंच सुनवाई के लिए बैठती हैं और उनमें से कुछ बेंच, अज्ञात कारणों से कोर्ट की समयावधि के दौरान भी नहीं बैठती हैं। इसके कुछ कारण तकनीकी चुनौतियों से जुड़े हो सकते हैं। लेकिन इससे कम से कम आम नागरिकों के न्याय हासिल करने के मूल अधिकारों पर सीधा और घातक प्रभाव पड़ता है।
अर्णब गोस्वामी जैसे लोगों के साथ विशेष व्यवहार किया जाता है, जबकि आम भारतीयों को नुकसान झेलना पड़ता है। इसमें कई ऐसे कैदी भी शामिल होते हैं, जिनको अवैध और अनधिकृत रूप से जेल भेजा गया होता है। अर्णब गोस्वामी के मामले में जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट ने सक्रियता दिखाई है, हर आम नागरिक भी कम से कम उसी सक्रियता की उम्मीद तो कर ही सकता है। “न्याय केवल होना ही नहीं चाहिए, न्याय होते हुए दिखना भी चाहिए”। कम से कम देश के सुप्रीम कोर्ट से तो यह उम्मीद की ही जा सकती है। सुप्रीम कोर्ट को यह धारणा बनाने में योगदान नहीं करना चाहिए कि कुछ लोगों के लिए न्याय की एक विशेष व्यवस्था है। यह सुप्रीम कोर्ट जैसे महान संस्थान की गरिमा के अनुकूल नहीं है। इससे कोई अच्छा संदेश शायद ही निकलता है।.