हर समस्या का समाधान समस्या में ही छिपा होता है, बशर्ते उस समस्या का समाधान ढूंढने वाले सचमुच समाधान खोज रहे हों। कांग्रेस के भीतर उठे ताजा तूफान पर गौर करें तो समझना मुश्किल है कि कांग्रेस के नेता समस्या का समाधान ढूंढ़ रहे हैं या समस्या को ही समाधान मानकर बैठ गये हैं। यह पूरा मामला किसी चाय की प्याली में उठे तूफान से ज्यादा कुछ भी नहीं है।
कांग्रेस के इतिहास की सबसे लंबे समय तक अध्यक्ष रहनेवाली सोनिया गांधी ने अपने गिरते स्वास्थ्य की वजह से 2017 में अध्यक्ष का पद अपने बेटे राहुल गांधी को सौंप दिया था। लेकिन दो साल के भीतर ही राहुल गांधी अध्यक्ष की कुर्सी से उतर गये और 2019 में एक बार फिर कांग्रेसियों ने सोनिया गांधी को पार्टी के अंतरिम अध्यक्ष की जिम्मेवारी सौंप दी।अब सोनिया गांधी को अंतरिम अध्यक्ष बने भी सालभर से ऊपर हो गया। उनकी उम्र और स्वास्थ्य दोनों ढलान पर हैं लेकिन लाख खोजने के बाद भी कांग्रेस को नया अध्यक्ष क्यों नहीं मिल रहा है?
इसे समझने के लिए थोड़ी सी कांग्रेस की राजनीति और थोड़ा सा राजनीति का इतिहास देखना पड़ेगा। आज की कांग्रेस पार्टी वह कांग्रेस पार्टी नहीं है जिसने स्वतंत्रता आंदोलन की अगुवाई किया था। 1947 में भारत से ब्रिटिश हुकूमत के खात्मे के साथ ही कांग्रेस स्वतंत्र भारत का एक राजनीतिक दल बन गयी। एक लोकतांत्रिक देश की अनेक पार्टियों में से एक।
आजादी के बाद क्योंकि कांग्रेस के पास ही अपना राजनीतिक ढांचा था और उसके साथ स्वतंत्रता आंदोलन का श्रेय चिपका हुआ था इसलिए अगले लगभग ढाई दशक तक पक्ष और विपक्ष दोनों ही कांग्रेस बनी रही। पहली बार मजबूत विपक्ष के रूप में जनता पार्टी का उदय हुआ, लेकिन जितनी तेजी से उदय हुआ उतनी ही तेजी से अवसान भी हो गया। जबकि पहले जनसंघ और बाद में भारतीय जनता पार्टी के रूप में संघ समर्थित राजनीतिक दल लगातार अपने आप को मजबूत करता रहा।
इधर कांग्रेस में क्योंकि सब कुछ विरासत में मिला था इसलिए अपनी विरासत को ही उन्होंने लोकतंत्र का प्रतिबिंब मान लिया। इन्हीं प्रतिबिंबों में एक प्रतिबिंब था कांग्रेस वर्किंग कमेटी, जिसे सीडब्लूसी कहते हैं। इस सीडब्लूसी की विरासत बहुत पुरानी है। 1920 में कांग्रेस के भीतर एक वर्किंग कमेटी का गठन हुआ जिसका उद्देश्य पार्टी के आंतरिक लोकंतंत्र को बचाकर रखना था। अध्यक्ष के रूप में कोई भी व्यक्ति निरंकुश न हो जाए, गुटबाजी न हो, पूरे देश का प्रतिनिधित्व बना रहे और महत्वपूर्ण निर्णय में सबकी सहभागिता हो, इस सीडब्लूसी के यही कुछ उद्देश्य थे।
लेकिन समय जैसे-जैसे आगे बढ़ता गया सीडब्लूसी अपने सारे उद्देश्य भूलता चला गया। इसका कारण ये रहा कि नेहरु के बाद इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गांधी ही पदेन अध्यक्ष होते रहे। नेहरु चार साल, इंदिरा गांधी सात साल, राजीव गांधी छह साल और सोनिया गांधी बीस साल अध्यक्ष रहीं। ऐसे में सीडब्लूसी कांग्रेस की स्वतंत्र और निष्पक्ष इकाई होने की बजाय नेहरु गांधी परिवार की सलाहकार समिति होकर रह गयी।
अब यह तय करना मुश्किल है कि सीडब्लूसी कांग्रेस अध्यक्ष को संचालित करती है या कांग्रेस अध्यक्ष सीडब्लूसी को संचालित करता है। लेकिन जो सीडब्लूसी कांग्रेस अध्यक्ष को निरंकुश होने से रोकने की व्यवस्था थी, उसी सीडब्लूसी ने कांग्रेस अध्यक्ष को निरंकुश पद बना दिया। हो सकता है लोग ये समझते हों कि कांग्रेस की कार्यवाहक अध्यक्ष कुर्सी नहीं छोड़ना चाहती या फिर नेहरु गांधी परिवार के बाहर नहीं जाने देना चाहतीं हैं।
जबकि सिक्के का दूसरा पहलू ये भी है कि आज सीडब्लूसी के नेता भी नहीं चाहते कि गांधी परिवार के बाहर का व्यक्ति अध्यक्ष बने। सीडब्लूसी के जिन नेताओं ने सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखी, उन्होंने कहीं से ये संकेत नहीं किया कि आप लोग जैसा चाहते हैं उसके मुताबिक गांधी परिवार के बाहर का कोई व्यक्ति कांग्रेस अध्यक्ष बन जाए।
नेहरु-गांधी परिवार के आसपास कांग्रेस नेताओं ने अपना ताना-बाना बुन लिया है। नेहरु-गांधी परिवार के बाहर अध्यक्ष पद जाने का अर्थ होगा कि कांग्रेस के भीतर नयी राजनीति पैदा होगी, जिसके लिए कांग्रेस के नेता ही तैयार नहीं है। अगर सोनिया गांधी नहीं चाहती कि अध्यक्ष पद परिवार के बाहर जाए तो सीडब्लूसी के नेता भी नहीं चाहते कि कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी पर गांधी परिवार के बाहर का कोई व्यक्ति बैठे।
सवाल ये है कि अगर दोनों नहीं चाहते तो फिर समस्या क्या है? फिर राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी क्यों छोड़ दी थी? जवाब बहुत सीधा सा है। सीडब्लूसी के सामने राहुल गांधी इतने लाचार थे कि चाहकर भी सचिन पायलट और ज्योतिरादित्य सिंधिया को मुख्यमंत्री की कुर्सी नहीं दिला सके। उन्हें सीडब्लूसी के नेताओं के सामने अपनी इच्छा को दबाकर उन नेताओं को स्वीकार करना पड़ा, जिसे वो बिल्कुल ही मुख्यमंत्री नहीं बनाना चाहते थे। इसलिए खीजकर उन्होंने अध्यक्ष पद ही त्याग दिया। इसके बावजूद न तो कांग्रेस के नेता नेहरु वंश के बाहर विकल्प तलाशने को तैयार हैं और न ही नेहरु वंश कांग्रेस की विरासत से अपने आप को अलग करने के लिए तत्पर हैं।
नेहरु-गांधी परिवार और कांग्रेस एक दूसरे का पूरक हैं और दोनों ही अपनी सुविधा के अनुसार एक-दूसरे का इस्तेमाल करते हैं। यही कांग्रेस की राजनीति अब शेष रह गयी है। इसलिए कांग्रेस के लिए नेहरु-गांधी वंश के बाहर नया अध्यक्ष मिलना उतना ही मुश्किल है, जितना मंगल ग्रह पर पानी खोजना। हालात ऐसे ही रहे तो शेष से अवशेष होने में ज्यादा समय नहीं लगेगा।.