<strong>एक बार फिर सरकार और किसान आमने-सामने हैं। पिछले कई दिनों से पंजाब और हरियाणा के किसान अपनी उपज की कीमतों को कम से कम न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर बेचने की मंशा जाहिर कर रहे हैं। किसानों की मांग जायज है क्योंकि आज की खेती काफी महंगी होती जा रही है। बीज, रासायनिक खाद और कीटनाशकों की लागत से खेती में पैसा पानी की तरह बहाना पड़ता है, तब जाकर अच्छी फसल पैदा होती है। </strong>
आज किसानों की समस्याओं के लिए सिर्फ सरकार ही जिम्मेदार नहीं है। खेती की सबसे बड़ी समस्या है अधिक लागत। अगर भारत के किसान खेती को कम लागत और अधिक मुनाफे का बिजनेस बनाना चाहते हैं तो उनको खेती करने की विधि में भी बदलाव लाना होगा। इसके लिए रास्ता है सुभाष पालेकर की शून्य लागत खेती का। वहीं MSP के लिए कानूनी बाध्यता का सवाल बेशक किसानों के हित में है परंतु लागत को कम करना किसानों के लिए बड़ी जरूरत है। क्योंकि मोदी सरकार ने साल 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का वादा किया है। उसको पूरा करने में दो साल का समय बचा है। इसके लिए सरकार की ओर से प्रयास जारी है लेकिन कोई आमूलचूल बदलाव नजर नहीं आता है।
इस बार के बजट में ‘जीरो बजट नेचुरल फार्मिंग’ को बढ़ावा देने का ऐलान किया गया है। क्या है जीरो बजट नेचुरल फार्मिंग? कैसे यह खेती-बाड़ी की लागतें कम कर सकती है। किस तरह यह सरकार और किसानों को मकसद में कामयाब कर सकती है, आइए इसके बारे में जानते हैं।
<img class="wp-image-19756" src="https://hindi.indianarrative.com/wp-content/uploads/2020/11/subhash.jpg" alt="zero budget farming" width="1200" height="923" /> शून्य लागत खेती के अनुसंधानकर्ता सुभाष पालेकर। (फाईल फोटो)<strong>शून्य लागत खेती को प्रकृति केंद्रीत खेती भी कहा जा सकता है। इसमें रासायनिक खाद और कीटनाशकों के इस्तेमाल से बचा जाता है। वास्तव में यह खेती देसी गाय के गोबर और मूत्र पर आधारित है। जीरो बजट फार्मिंग या जीरो बजट नेचुरल पार्मिंग- शब्द सुभाष पालेकर की ओर से दिया गया है। पद्मश्री सुभाष पालेकर महाराष्ट्र में बगैर रासायनिक खाद और कीटनाशक के खेती करते आए हैं। उनका मानना है कि रासायनिक और ऑर्गेनिक खेती फसलों की उत्पादकता बढ़ाने में नाकाम साबित हुई हैं। इससे जमीन की उर्वर क्षमता कम हुई है और जल-संसाधन सिकुड़ें हैं। साथ ही ग्लोबल वॉर्मिंग में भी इजाफा हुआ है। </strong>
<h2>किस तरह का खाद है खेती का आधार?</h2>
गाय के गोबर, मूत्र और पत्तियों से तैयार कीटनाशक का मिक्सचर ही खाद का काम करता है। जो पूरी तरह रासायनिक खाद की जगह इस्तेमाल होता है।
एक अखबार को दिए इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि वह अंगूर की ऐसी बढ़िया खेती दिखा सकते हैं जो बगैर रासायनिक खाद और कीटनाशक के हो रही है और अच्छी पैदावार दे रही है। उन्होंने कहा कि विदर्भ में भीषण सूखे के दौरान बड़ी तादाद में संतरे के बाग सूख गए लेकिन शून्य लागत वाले बाग नहीं सूखे।
शून्य लागत खेती की अवधारणा के बारे में सुभाष पालेकर बताते हैं कि पहले वे आज के तरीके से खेती किया लेकिन जब खेत में पर्याप्त खाद डालने के बाद भी उत्पादन नहीं बढा। इस के बाद मैं जंगल की तरफ चला गया। वहां जाने के पीछे का कारण मेरे मन में उपजे कुछ सवाल थे कि बिना मानवीय सहायता के इतने बड़े और हरे-भरे जंगल कैसे खड़े होते हैं? यहां इनके इनके पोषण के लिए रासायनिक उर्वरक कौन डालता है? जब यह बिना रासायनिक खाद के खड़े रह सकते हैं तो हमारे खेत क्यों नहीं? इसी को आधार बनाकर मैंने बिना लागत की खेती करने का अनुसंधान शुरू किया और शून्य लागत खेती की विधि विकसित की।"
<h2>कैसे होती है शून्य लागत खेती?</h2>
इस विधि में संकर या जीएम बीज का उपयोग नहीं होता है, सिर्फ देसी बीज का उपयोग होता है। एक ही बीज का उपयोग कई साल तक होता है। इस खेती का सिद्धांत है कि किसी भी उपज का 98.5 फीसद हिस्सा प्रकृति (हवा, पानी, प्रकाश) से बनता है, जिसके लिए शून्य लागत होती है। वहीं 1.5 फीसद हिस्सा जमीन से लिया जाता है। इस 1.5 फीसद के लिए हजारों रूपए खर्च करने की जरूरत नहीं है।
इस विधि में हवा से पानी लिया जाता है। वहीं जमीन से पानी लेने के लिए केंचुए काम आते हैं जो जमीन में अनंत करोड़ों छिद्र करते हैं। इससे बारिश का पूरा पानी जमीन में चला जाता है और वहीं पानी जमीन से जड़ को मिलता है। इसलिए इस खेती में किसी भी तरह के खाद, कीटनाशक और वर्मी कम्पोस्ट का प्रयोग नहीं करना होता है।
उनके मुताबिक, देसी नस्ल की गाय का गोबर और मूत्र जीव-अमृत के लिए सबसे मुफीद है। एक गाय के गोबर और मूत्र से 30 एकड़ जमीन के लिए जीव-अमृत तैयार किया जा सकता है। जबकि रासायनिक खाद और यहां तक कि पारंपरिक खाद भी मिट्टी में प्राकृतिक तौर पर पाए जाने वाले नाइट्रोजन का इस्तेमाल करते हैं। इससे शुरू में उत्पादन बढ़ता है लेकिन जैसे ही नाइट्रोजन का स्तर मिट्टी में कम होता है पैदावार घट जाती है।
पालेकर के मुताबिक, जीरो बजट फार्मिंग में सभी फसलें बगैर किसी लागत के पैदा की जा सकती हैं क्योंकि किसान को बाहर से कुछ भी नहीं खरीदना पड़ता। पौधों के लिए जरूर पोषक चीजें उनके आसपास ही मिल जाती है। जीरो बजट का मतलब ये नहीं है कि किसान को कुछ भी खर्च नहीं करना होगा।
दरअसल इस तरीके से खेती में किसान का खर्चा कम हो जाता है और एक वक्त ऐसा आता है जब अंतर-फसल चक्र की वजह से लागत कम हो हो जाती है। संयुक्त राष्ट्र के संगठन फूड एंड एग्रीकल्चर एसोसिएशन यानी FAO का मानना है कि जीरो बजट नेचुरल फार्मिंग बगैर रासायनिक खाद और कीटनाशकों के हो सकती है और इससे निश्चित तौर पर खेती की लागत घटेगी।
भारत में ज्यादातर छोटे किसान हैं, जिनके लिए हाई क्वालिटी फर्टिलाइजर, पैदावार बढ़ाने के लिए दूसरे केमिकल, खाद ओर महंगे बीज खरीदना मुश्किल है। यही वजह है कि किसान कर्ज में फंस जाता है और उसे आत्महत्या जैसे कदम उठाने पड़ते हैं। जीरो बजट फार्मिंग से अगर खेती की लागत कम होती है यह देश के कृषि सेक्टर के लिए बड़ी राहत साबित होगी।
<h2>देश में शून्य लागत खेती की तरफ बढ़ रहा है रूझान</h2>
सुभाष पालेकर ने महाराष्ट्र के बाद जीरो बजट फार्मिंग का बड़ा प्रयोग कर्नाटक में किया। इसके बाद आंध्र और हिमाचल प्रदेश में बड़े पैमाने पर किसानों को इस तरह की खेती के लिए प्रेरित किया गया। उन्होंने इसके लिए बड़े-बड़े ट्रेनिंग कैंप चलाए। हरियाणा में इसका प्रयोग करने वाले हिमाचल में भी शुरू किया गया है।
पालेकर का दावा है कि इससे अब 50 लाख किसान जुड़ गए हैं। केरल और छत्तीसगढ़ की सरकारों ने भी इसके प्रति दिलचस्पी दिखाई है। उत्तराखंड सरकार ने इसकी मंजूरी दे दी है। पालेकर का मानना है कि धीरे-धीरे दूसरे राज्यों के किसान भी इससे जुड़ेंगे। वो कहते हैं कि देश के किसानों का मौजूदा संकट जीरो बजट फार्मिंग से काफी हद तक खत्म हो सकता है।
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