क्या भारत के लोकतंत्र में सभी संस्थाएं एक समान अधिकार प्राप्त हैं? क्या एक संस्था को दूसरी संस्था के कार्य में हस्तक्षेप का अधिकार है? क्या न्यायपालिका सबसे ऊपर है या विधायिका? दुनिया भर के लोकतंत्र में ऐसी व्यवस्थाएं हैं कि संसद जो कानून बनाती हैं उन्हीं कानूनों को पालन करने का दायित्व देश की अन्य संस्थाओं का होता है। लोकतंत्र में संसद जनता की इच्छा को अपने जनप्रतिनिधियों के माध्यम से व्यक्त करती ह? लोकतंत्र में सैद्धांतिक तौर पर जनता सर्वोपरि है। अगर ऐसा है तो संसद में पारित कानून को न्यायपालिका निष्क्रिय कैसे कर सकती है? अगर किसी एक कानून के बारे में ऐसा हो सकता है तो संसद में बनने वाले बाकी कानूनों का अस्तित्व तो स्वंय खतरे में नहीं आ जाता क्या? यह एक यक्ष प्रश्न है?
यहां विषय, नेशनल ज्यूडिशियल अपॉइंटमेंट कमीशन का भी है। भारतीय संसद ने इस कमीशन को कानून बनाने के लिए संसद में प्रस्ताव पेश किया और उसे पारित किया। लोकतांत्रिक संवैधानिक व्यवस्था के अनुरूप भारतीय न्यायपालिका को इस प्रस्ताव के पारित होने के बाद ज्यूडिशियल अपॉइंटमेंट कमीशन के गठन का काम शुरू हो जाना चाहिए था। लेकिन हुआ क्या, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने संसद से पारित कानून को निष्क्रिय घोषित कर दिया। भारती संसद में न्यायालय की इस प्रतिक्रिया पर चर्चा भी नहीं हुई।
भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में कहना पड़ा कि सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) अधिनियम को रद्द कर दिया और संसद में कोई चर्चा नहीं हुई। यह एक बहुत गंभीर मसला है। धनखड़ ने कहा कि संसद द्वारा पारित एक कानून, जो लोगों की इच्छा को दर्शाता है, उसे सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया और दुनिया को ऐसे किसी भी कदम के बारे में कोई जानकारी नहीं है। धनखड़ ने इस बारे में संवैधानिक प्रावधानों का भी हवाला दिया।
‘धनखड़ ने कहा, न्यायिक प्रबुद्ध वर्ग, विचारवान मस्तिष्क और बुद्धिजीवियों से अपील करता हूं, इस घटना के समानांतर पूरी दुनिया में कोई उदाहरण तलाशें जिसमें संविधान के प्रावधान को रद्द किया गया हो।’ धनखड़ की अपील भारतीय लोकतंत्र के सामने खड़ी गंभीर चुनौती की ओर इशारा करती है। खास बात यह है कि जिस समय उपराष्ट्रपति ये सारी बातें बोल रहे थे उसी समय उसी स्थान पर भारत के सीजेआई डीबाई चंद्रचूड़ भी मौजूद है।
यह तो सर्वविदित है कि कॉलेजियम और एनजेएसी को लेकर राय बंटी हुई है। लोकतंत्र में इसका उपाय बहस-मुहाबिसा है। फिर से बहस की जाएं, तर्क रखें जाएं और फिर बहुमत जिस तर्क पर सम्मति व्यक्त करे उस तर्क को स्वीकार किया जाए। अच्छा होता है कि एनजेएसी एक्ट को एक ही झटके में निष्क्रिय करने के बजाए अगर सुप्रीम कोर्ट निष्पक्ष बहस के लिए मंच तैयार करता और अगर एनजेसीए में कुछ कमियां हैं तो उन्हें संसद से ही संशोधन का सुझाव दिया जाता। इससे दोनों संस्थाओं की गरिमा बनी रहती।
सीजेआई डी वाई चंद्रचूड़, उपराष्ट्रपति की बातों को बहुत ध्यान से सुन रहे थे। जिस कार्यक्रम में ये सारी बातें कहीं गईं उसमें न्यायपालिका से जुड़े तमाम जिम्मेदार लोग शामिल थे। धनखड़ ने उन सभी लोगों की उपस्थिति में कहा था कि संविधान की प्रस्तावना में ‘हम भारत के लोग’का उल्लेख है और संसद लोगों की इच्छा को दर्शाती है। उन्होंने कहा कि इसका मतलब है कि शक्ति लोगों में, उनके जनादेश और उनके विवेक में बसती है। उनका सीधा इशारा था कि लोकतंत्र में न्यायपालिका की हठधर्मिता जनादेश की अवहेलना है।
धनखड़ ने बताया कि 2015-16 में संसद ने एनजेएसी अधिनियम को पारित किया था। उन्होंने कहा,’हम भारत के लोग-उनकी इच्छा को संवैधानिक प्रावधान में बदल दिया गया। जनता के प्रतिनिधियों की अभिव्यक्ति एक वैध मंच के माध्यम से व्यक्त की गई थी,उसे खत्म कर दिया गया। दुनिया में ऐसा उदाहरण भारत के अलावा कहीं और नहीं मिलता। उपराष्ट्रपति ने संविधान के प्रावधानों का हवाला देते हुए कहा कि जब कानून से संबंधित कोई बड़ा सवाल शामिल हो तो अदालतें भी इस मुद्दे पर गौर फरमा सकती हैं।
‘धनखड़ ने कहा,न्यायिक प्रबुद्ध वर्ग,विचारवान मस्तिष्क और बुद्धिजीवियों से अपील करता हूं, इस घटना के समानांतर पूरी दुनिया में कोई उदाहरण तलाशें जिसमें संविधान के प्रावधान को रद्द किया गया हो।’
जो लोग यह समझते हैं उपराष्ट्रपति धनखड़ की अपील महज अपील है तो वो नादान हैं। उपराष्ट्रपति धनखड़ ने परोक्ष रूप से ज्यूडीशियल सिस्टम की हठधर्मिता को जगजाहिर किया है। उन्होंने बताने की कोशिश की है कि ‘संसद को सुझाव देना और संसद की गरिमा को धूलधूसरित करना’ दोनों में बहुत बड़ा अंतर है।