‘लोग कह रहे हैं कि पीए मोदी ने कैबिनेट का विस्तार किया है। लेकिन यह रिशफल है। यानी व्यापक फेरबदल। फिर भी, इस फेरबदल से वित्त, रक्षा और गृह मंत्रालय अछूते रहे। कुछ मंत्रियों के काम काज और उनका रवैया ठीक नहीं था। यह बात हर कोई जानता है, लेकिन रविशंकर प्रसाद और प्रकाश जावड़ेकर को क्यों हटाया गया, यह एक गंभीर विषय है!’
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंत्रीमण्डल विस्तार के साथ ही यह संदेश दे रहा है कि उनके कैबिनेट में हैवीवेट या हल्के-फुल्के शब्दों का कोई महत्व नहीं है। जो मंत्री परफॉमेंस देगा उसको कंटीन्यू किया जाएगा। जो अच्छा काम करेगा उसे प्रमोशन दिया जाएगा, और अच्छा काम नहीं करेगा तो वो कोई भी हो उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा।
कोरोना काल- ऑक्सीजन क्राइसिस, बेड और दवाओं का अभाव
मौजूदा फेरबद में सबसे पहले बात डॉक्टर हर्षवर्धन की। डॉक्टर हर्षवर्धन के बारे में सब जानते हैं कि वो सरल और सहज भी हैं मगर कोरोना की दूसरी लहर के दौरान विभागीय नौकरशाहों और स्वास्थ्य संस्थानों के मुखिया के साथ उनका सामन्जस्य नहीं रहा। सरकार को कई स्थानों पर शर्मसार होना पड़ा। ऑक्सीजन, रेमडेसिविर इंजेक्शन और अस्पतालों में बेड्स की कमी ने हर्षवर्धन की कार्यशैली पर असर डाला। ऐसा बताया जाता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कैबिनेट विस्तार और फेरबदल को लेकर लम्बे समय तक पार्टी पदाधिकारियों और संघ के पदाधिकारियों से विचार विमर्श किया। सभी मंत्रियों के कार्यशैली और कार्यकुशलता की रिपोर्ट मांगी गई। उसके बाद ही इस फेरबदल और विस्तार का फैसला लिया गया। देश को युवा नेतृत्व देने के लिए अनुराग ठाकुर और किरिण रिजीजू का प्रमोशन किया गया।
सामन्जस्य का अभाव हर्षवर्धन को ले डूबा
डॉक्टर हर्षवर्धन मोदी कैबिनेट से क्यों बाहर हुए इसके जो कारण ऊपर से दिखाई देते हैं उनपर तो चर्चा कर ही ली गई। एक कारण यह भी हो सकता है कि कोरोना काल में हर्षवर्धन के मुकाबले मनसुख मनबाडिया के सुझावों से ज्यादा लाभ हुआ। अगर उस दौरान के सोशल मीडिया को अगर ध्यान से देखने वालों को याद होगा कि कई मुद्दो पर मनसुख मनबाडिया की राय डॉक्टर मनसुख मनवाडिया से एकदम अलग होती थी। कई कैबिनेट मंत्री भी मनसुख मनवाडिया से मदद की गुहार लगाते देखे गए।
संतोष गंगवार तेज चलने की कोशिश में फिसल गए
बहरहाल, संतोष गंगवार दूसरे ऐसे मंत्री थे जो हर्षवर्धन से भी ज्याद सहज, सरल और सामान्य तौर पर हर किसी के लिए उपलब्ध माने जाते हैं। वो सबसे लो प्रोफाइल मिनिस्टर माने-जाते थे। संतोष गंगवार से उनके संसदीय क्षेत्र के थाना-चौकी के कर्मचारी तक उनके सीधे सम्पर्क में रहते थे। उनके इस्तीफे से कई लोगों को आश्चर्य हुआ। लेकिन पता चला है कि कोरोना काल के दौरान उनकी एक चिट्ठी से भारत सरकार की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर किरकिरी हुई। इसके अलावा कोरोना काल में बेरोजगारों को यूनियन गवर्मेंट की ओर से किए गए प्रयासों को यथोचित सफलता नहीं मिली। अरबों रुपये खर्च होने के बाद भी मोदी सरकार के खाते में काला धब्बा ही लगा। इसलिए ऐसा माना जा रहा है कि संतोष गंगवार को मोदी कैबिनेट से बाहर होना पड़ा। ध्यान रहे, संतोष गंगवार आठ बार के सांसद हैं। इसके बाद भी वो कैबिनेट मिनिस्टर नहीं बल्कि स्वतंत्र प्रभार मंत्री ही थे।
रवि शंकर प्रसाद और जावड़ेकर क्यों हटे
बाकी लोगों को कैबिनेट से हटाए जाने के कुछ और कारण रहे होंगे, लेकिन अरुण जेटली के बाद सबसे मुखऱ और प्रभावी ढंग से सरकार का पक्ष मीडिया और जनता के सामने रखने वाले रविशंकर प्रसाद और सबसे स्मार्ट प्रकाश जावड़ेकर की विदाई इस तरह होगी किसी ने नहीं सोचा होगा। कम से कम रविशंकर प्रसाद को इस तरह जाना होगा यह तो कोई स्वीकार मुश्किल से कर पाएगा। रविशंकर से पहले प्रकाश जावड़ेकर पर चर्चा करते हैं।
सरकार छवि धूमिल होती रही, जावड़ेकर की फोटो चमचमाती रही
प्रकाश जावड़ेकर के पास सूचना और प्रसारण मंत्रालय था। यह मंत्रालय सबसे अहम है। सारे सरकारी-गैर सरकारी टीवी चैनल्स, अखबार-मैग्जीन यहां तक कि ओटीटी प्लेटफॉर्म पर प्रसारित होने वाली सामग्री भी प्रकाश जावड़ेकर के अधिकार क्षेत्र में थे। अंतर्राष्ट्रीय मीडिया को नियंत्रित करना, विदेशी मीडिया में सरकार और देश की छवि बनने और बिगड़ने की जिम्मेदारी भी प्रकाश जावड़ेकर की ही थी। प्रकाश जावड़ेकर अपने इन दायित्वों को निभाने में सौ फीसदी असफल रहे। राष्ट्रीय स्वंय सेवक से नजदीकी उन्हें बचा ले जाएगी, शायद उनकी यही गलत फहमी उन्हें ले डूबी। प्रकाश जावड़ेकर ने अपने विवेक का इस्तेमाल करने के बजाए नौकरशाहों पर मंत्रालय को छोड़ दिया। उनके कार्यकाल में कुछ दिखावटी औपचारिकताओं को छोड़कर सारा कामकाज कांग्रेसी परिपाटी से ही चल रहा था। साक्षात सबूत नहीं हैं इसलिए माफी के साथ यह कहना पड़ रहा है कि प्रकाश जावड़ेकर के मंत्रालय में ‘सुविधा शुल्क’की परंपरा कांग्रेस के शासनकाल से भी ज्यादा मजबूत हो गई। इसलिए ऊपर से सबकुछ ठीक दिखाई देता रहा और भीतर ही भीतर घुन लगता रहा। देशी मीडिया हो या विदेशी मीडिया मोदी सरकार की इज्जत की चिंदियां उड़ाता रहा, मगर प्रकाश जावड़ेकर के चेहरे की चमक लगातार बढ़ती रही।
अनुराग के कंधों पर कठिन जिम्मेदारी
प्रधानमंत्री मोदी को प्रकाश जावड़ेकर की सारी गतिविधियों की जानकारी न मिली हो ऐसा सोचना गलता है। आई एण्ड बी मिनिस्ट्री में प्रकाश जावड़ेकर की गलतियों का घड़ा धीरे-धीरे भरता रहा और समय आने पर फूट गया। इस फूटे हुए घड़े को फिर से गढ़ने (संभालने) की जिम्मेदारी अनुराग ठाकुर के कंधों पर है। अनुराग ठाकुर की डगर बहुत कठिन और कांटों भरी है। चीन से घूस खा-खाकर भारत विरोधी हो चुके विदेशी मीडिया, खास तौर पर अमेरिकी मीडिया को लाइन पर लाना अब टेढ़ी खीर है। देश के सोकॉल्ड लिब्रल मीडिया संस्थानों (प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक) और जर्नलिस्ट्स को राह पर भी चुनौती है। मीडिया संस्थानों और मीडिया कर्मियों को अभिव्यक्ति की आजादी के साथ ‘राष्ट्र प्रथम’का पाठ कैसे पढ़ाया जाएगा यह सबसे बड़ी चुनौती होगी। आई एण्ड मिनिस्ट्री के ग्राउंड फ्लोर से लेकर सातवें तल्ले तक ‘फिल्टर’ लगाने होंगे। होम मिनिस्ट्री और एमसीए के साथ सामन्जस्य मजबूत करना होगा। आरएनआई, डीएवीपी, टीआरएआई, प्रसार भारती, यानी इन्फॉर्मेशन, ब्रॉडकास्टिंग, और फिल्म के अलावा पीआईबी से लेकर न्यू मीडिया विंग तक, प्रसारभारती से लेकर आईआईएमसी तक सबको सुधारना होगा। प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया को सही मायनों में स्टेचुरी बॉडी बनाना होगा। बीईसीआईएल में पारदर्शिता लानी होगी, एनएफडीसी को समझाना होगा कि जमाने के साथ कदम तो मिलाने होंगे लेकिन मर्यादा भंग न हो। अकेले आई एण्ड बी मिनिस्ट्री में ही इतना काम है कि नौ दिन का हफ्ता हो जाए तो भी पूरा होना मुश्किल है तो फिर अनुराग ठाकुर प्रधानमंत्री मोदी की कसौटी पर कैसे खरे उतर पाएंगे यह अपने आप में एक यक्ष प्रश्न है।
नीयत सही पर गलत नीति रवि शंकर को ले डूबी
अब बात रविशंकर प्रसाद की, रवि शंकर प्रसाद, सोशल मीडिया के इश्यु को लेकर जिस तरह से सामने आ रहे थे उससे लग रहा था कि सरकार सही दिशा में जा रही है। सरकार राष्ट्र हित के मुद्दे पर किसी से समझौता नहीं करेगी। जो भी सोशल मीडिया कंपनी हैं वो भारत में व्यवसाय तो कर सकती हैं लेकिन उन्हें भारत के संविधान के तहत ही काम करना होगा। भारत में रहकर वो अपने कानून नहीं चला सकतीं। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर देश हित के साथ खिलवाड़ करने वालों को दण्ड झेलना पड़ेगा। व्यक्तिगत विरोध को देश विरोधी अभियान नहीं बनाने दिया जाएगा।
एरोगेंट बिहेवियर
इतना सब होने के बाद भी रविशंकर को क्यों हटाया गया, इस बारे में पॉलिटिकल पंडितों का कहना है कि रविशंकर का एरोगेंट बिहेवियर उनके लिए हानिकारक हो गया। इसके अलावा मंत्रालय ने सही समय पर सही कदम नहीं उठाए। फार्मर्स प्रोटेस्ट टूलकिट हो या फिर कांग्रेस टूल किट रवि शंकर का मंत्रालय सोता रहा, आग लगने पर जागा तो समस्या को सुलझाने में सम्यक कूटनीति नहीं अपनाई गई। मतलब यह कि मारा कम शोर ज्यादा मचा दिया। इससे इंटरनेशनल स्तर पर संदेश गया कि भारत सरकार को सत्तनीत पार्टी सोशल मीडिया पर अपने हितों के लिए आपातकाल लगा रही है। कहने का मतलब यह कि सरकार की छवि को गंभीर ठेस पहुंची। नीयत ठीक होने के बाद भी नीति ठीक नहीं रही और रवि शंकर प्रसाद को मंत्रीमण्डल से बाहर जाना पड़ा।
ताली-गाली कैप्टन को तो फेरबदल का अधिकार भी कैप्टन का, फिर शिकवा कैसा…
बाबुल सुप्रियो ने तो अपना दर्द सोशल मीडिया पर शेयर कर दिया लेकिन पार्टी और सरकार के दर्द को किसी प्लेटफॉर्म पर शेयर नहीं किया जा सकता। ये बाबुल सुप्रियो और बाकी लोग अच्छी तरह जानते हैं। वैसे भी, ताली-गाली पर नेतृत्व का अधिकार है तो टीम को बदलने-सुधारने का आधिकार भी नेतृत्व के पास ही है। इसके बावजूद सीडीएस और एयरचीफ मार्शल के बीच विवाद के बावजूद राजनाथ सिंह को न बदलना और सीएए-एआरसी, दिल्ली दंगे, कोरोना काल में तबलीगी जमात विवाद, किसानों के नाम पर चल रहे आंदोलन और बंगाल में हिंदुओं के पलायन के मुद्दे पर विफल गृहमंत्री अमित शाह को क्यों बख्शा गया ये भी यक्ष प्रश्न है। सवाल तो निर्मला सीतारमण पर बहुत उठे है, लेकिन वित्तमंत्रालय में कोई परिवर्तन नहीं। रेल मंत्रालय ने कोरोनाकाल में बहुत अच्छा काम किया। पिछले कुछ सालों में रेलवे की चाल और चेहरा दोनों में बदलाव आएं हैं फिर भी पीयूष गोयल से रेल मंत्रालय क्यों लिया गया- यह सोचने वाली बात है।