भारत-चीन सीमा विवाद के बीच एक व्यक्तित्व केन्द्रीय भूमिका में उभर कर सामने आया है जिसके नाम पर चर्चित वैली का नाम गलवान घाटी पड़ा। वाकया यह है कि एक बार एक खोज-यात्री लेह के इलाके में फंस गया था और बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। ऐसे में रसूल गलवान नाम के एक अल्प आयु (लगभग 14 वर्षीय) बालक ने एक नदी से होते हुए रास्ता सुझाया और उन्हें बाहर निकाला।
वह यात्री बालक की सूझ-बूझ से बहुत प्रभावित हुआ और उस ने उस नदी का नाम बालक रसूल गलवान के नाम पर गलवान नदी रखा। फिर उसके आस-पास की घाटी गलवान घाटी के नाम से मशहूर हो गई। अपने बाल्यकाल से ही रसूल गलवान ने इंग्लैंड, इटली, आयरलैंड और अमेरिका के प्रसिद्ध खोज-यात्रियों के साथ खोज-यात्रा का दिशा निर्देशन किया था। इतिहास के पन्नो में खो चुके जनजातीय समुदाय से संबंध रखने वाले रसूल गलवान का एक टट्टू पालक से ब्रिटिश जॉइंट कमिशनर के प्रमुख सहायक (अक्सकल) तक का सफर रोमांचक कहानियों से भरा हुआ है।
चीनी सैनिक तब भी भारतीय सीमा में घुसपैठ करके मारपीट करते रहते थे। एक बार का वाकया है कि रसूल गलवान शाम को लौट कर जब अपने सैनिक कैम्प में आये तो पता चला कि कुछ चीनी सैनिकों ने मेजर और हेड-मैन के साथ मारपीट की है। रसूल गलवान को बहुत ग़ुस्सा आया, और उन्होंने अपने साथी कलाम और रमज़ान को लेकर चीनी सैनिकों की जम कर धुलाई कर दी। यहाँ तक कि वह आकर मेजर साहब से माफी माँगने लगे।
दूसरे दिन अचानक उनके साथी कलाम ने आकर बताया कि बाज़ार में चीनी हमारे लोगों को पीट रहे हैं। रसूल गलवान फ़ौरन वहाँ पहुँचे, तो देखा कि पूरा बाज़ार चीनी सैनिकों से भरा हुआ है और वे भारतीय लोगों को मार रहे थे। रसूल गलवान फ़ौरन लड़ाई में कूद गए। चीनी सैनिकों ने उनका डण्डा तोड़ दिया और बुरी तरह प्रहार कर ज़ख्मी कर दिया। वह ज़मीन पर गिर गए फिर भी चीनी सैनिक उनको मारते रहे और मरा समझ, छोड़कर भाग गए।
कुछ देर बाद मेजर साहब हेडमैन के साथ आये तो उन्होंने अधमरी हालात में पड़े ग़ुलाम रसूल से कहा, “रसूल तुम्हें दुःखी होने की ज़रूरत नहीं, यहाँ तुम अकेले गिरे हो और वहाँ सात चीनी सैनिक और उन के एक सैन्य अधिकारी भी गिरे पड़े हैं।” इस बात ने उनके चेहरे पर विजयी मुस्कान बिखेर दी। उनके साथी रमज़ान भी घायल थे। (पेज न०- 76,77,78, सर्वेन्ट ऑफ साहिब्स)
ग़ुलाम रसूल ने बिना अपनी जान की परवाह किए बिना यह ज़्यादा ज़रूरी समझा कि चीनी सैनिकों का मनोबल तोड़ा जाय, ताकि वो कभी हमारी सीमाओं की तरफ़ आँख उठा कर न देख सकें और इसके लिए ख़ुद की और अपने साथियों की जान को ख़तरे में डाल दिया। आज एक बार फिर रसूल गलवान मरणोपरांत भारत की सीमा के रक्षार्थ एक महत्वपूर्ण भूमिका में हैं। एक भारतीय द्वारा घाटी का खोजा जाना और उन के नाम पर उस का नामकरण भारत के दावे को और अधिक मज़बूती प्रदान कर रहा है।
रसूल गलवान ने एक सूफ़ी संत के कहने पर अपने नाम के पहले गुलाम शब्द जोड़ लिया। गलवान वंश का नाम है जिस का अर्थ ‘अश्वपाल’ होता है। चूंकि उनके पूर्वजों का पेशा घोड़े एवं टट्टुओं की देख-रेख करने का था, इस कारण इस समुदाय का यह नाम गलवान पड़ गया।
वाल्टर लॉरेंस ने अपनी किताब ‘द वैली ऑफ कश्मीर’ के पेज नंबर 311-312 पर गलवान को एक आदिवासी समुदाय बताया है। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के पीएचडी स्कॉलर वारिस-उल-अनवर कश्मीर आधारित न्यूज़ पोर्टल पर लिखते हैं कि उन के पूर्वजों का सम्बन्ध एक प्रसिद्ध आदिवासी समुदाय गलवान से था।
उनके परदादा कारा गलवान के नाम से विख्यात थे। वो अमीरों को लूटते और ग़रीबों में बाँट देते थे। ग़रीब लोगों में उनकी छवि अभिभावक की थी, वहीं धनी और सम्पन्न लोगों में उन की दहशत व्याप्त थी। उन के दादा महमूद गलवान कश्मीर से बाल्टिस्तान और फिर लेह में आकर आबाद हो गये।
रसूल गलवान का जन्म लद्दाख की राजधानी लेह में सन 1878 ई० के आसपास हुआ था। बचपन से ही रसूल कुशाग्र-बुद्धि के थे और दीवारों पर बेहतरीन पेंटिंग बनाया करते थे। रसूल को बचपन से ही लिखने-पढ़ने का बहुत शौक़ था। लेकिन लेह में कोई स्कूल नहीं था, वहाँ के धनी लोग अपने बच्चों के लिए शिक्षक रखते थे।
उन की माँ ने उन्हें एक दर्ज़ी के पास काम सीखने भेज दिया। वहाँ उन का बिल्कुल भी मन नहीं लगता था, वह दुःखी रहा करते थे और हमेशा सोचा करते थे कि अगर मैं पैसे वाला होता तो पढ़ाई कर लेता। जब पहली बार बहुत ही कम-उम्र में वो डॉ० ट्रैल के साथ खोज-यात्रा पर जा रहे थे, तब उन की माँ ने उन के कुर्ते में 3 रुपये रख कर सिलाई कर दिया और कहा कि जब साहब (विदेशी खोज-यात्री) के दिये पैसे ख़त्म हो जाएं और ज़रूरत पड़े तब इसे ख़र्च करना। लेकिन अपने साहब को यह पहले बता देना कि तुम्हारे पास कितने रुपये हैं और कहाँ रखें हैं। वर्ना जब साहब को कोई लूटेगा और वह तुम्हारे पास पैसे देखेगा तो समझेगा कि तुम चोर हो।
कुछ समय बाद एक मिशनरी पादरी ने लेह में स्कूल खोला। गलवान के पढ़ने का शौक़ फिर हिचकोले मारने लगा लेकिन वह अपनी माँ को जानते थे इस लिए अपनी बहन से सिफ़ारिश करवा कर स्कूल में दाख़िला ले लिया। वहाँ रसूल बड़ी तेज़ी से अन्य लड़कों को पीछे छोड़ते हुए आगे बढ़ने लगे जिस कारण पादरी बहुत खुश हुआ। उसने गलवान की प्रसंशा की जिससे गलवान का विश्वास और प्रगाढ़ हुआ। पढ़ाई और साहब लोगों के साथ खोज-यात्रा का सिलसिला चलता रहा। यात्रा के दौरान, जो काफ़ी लंबे समय तक चलती थी, गलवान अपनी पढ़ी हुई चीज़ों को बार-बार अपने मन-मस्तिष्क में दोहराते रहते थे ताकि पढ़ी हुई चीज़े भूल न जाएँ। रसूल गलवान लद्दाख़ी, तुर्की ,उर्दू, कश्मीरी, तिब्बती और अंग्रेज़ी भाषाओं के जानकार थे। 47 वर्ष की आयु में सन 1925 ई० में रसूल गलवान ने दुनिया को अलविदा कहा।
<em>(यह लेख, लेखक की अनुमति से https://pasmandademocracy.com से लिया गया है.) </em>.