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सोशल मीडिया का मुस्लिम तुष्टीकरण के लिए उपयोग करने की दौड़ में कूदे राहुल

सोशल मीडिया का मुस्लिम तुष्टीकरण के लिए उपयोग करने की दौड़ में कूदे राहुल

कांग्रेस की राजनीति के केन्द्र में मुस्लिम तुष्टीकरण कितना गहरा बैठ चुका है, इसका ताजा उदाहरण है राहुल गांधी का वह सवाल जो उन्होंने सोशल मीडिया प्लेटफार्म फेसबुक और वाट्सएप पर उठाया है। वाल स्ट्रीट जर्नल में छपी एक रिपोर्ट के हवाले से उन्होंने कहा है कि फेसबुक और वाट्स एप भारत में (मुसलमानों के खिलाफ) नफरत फैला रहे हैं।
<blockquote class="twitter-tweet">
<p dir="ltr" lang="hi">भाजपा-RSS भारत में फेसबुक और व्हाट्सएप का नियंत्रण करती हैं।</p>
इस माध्यम से ये झूठी खबरें व नफ़रत फैलाकर वोटरों को फुसलाते हैं।

आख़िरकार, अमेरिकी मीडिया ने फेसबुक का सच सामने लाया है। <a href="https://t.co/PAT6zRamEb">pic.twitter.com/PAT6zRamEb</a>

— Rahul Gandhi (@RahulGandhi) <a href="https://twitter.com/RahulGandhi/status/1294970689573629954?ref_src=twsrc%5Etfw">August 16, 2020</a></blockquote>
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राहुल गांधी का कहना है कि बीजेपी और आरएसएस फेसबुक और वाट्स एप को नियंत्रित कर रहे हैं। इसके जरिए वो लोग फेक न्यूज फैलाते हैं और जनता को प्रभावित करते हैं।

वाल स्ट्रीट जर्नल की जिस रिपोर्ट के हवाले से राहुल गांधी ने ये सवाल उठाया है। अगर आप उस रिपोर्ट को पढ़ेंगे तो पायेंगे कि रिपोर्ट सिर्फ एक-दो उदाहरणों को आधार बनाकर लिखी गयी है। ये साबित करने की कोशिश की गयी है कि मोदी की हिन्दुत्ववादी पार्टी खुलेआम मुसलमानों के खिलाफ लिखती है, लेकिन फेसबुक ऐसे पोस्ट के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करता है।

निश्चित तौर पर जो लोग सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं, वे समझ सकते हैं कि यह एक संकीर्ण और एकपक्षीय रिपोर्ट है, जो बहुत सुनियोजित तरीके से लिखी गयी है। ये रिपोर्ट लिखनेवाले पत्रकार उसी मानसिकता के लोग हैं, जिन्होंने लंबे समय तक मीडिया हाउसों में बैठकर विचारधारा के नाम पर नफरत का खेल खेला है। आज भी ऐसे नफरती लोगों के सोशल मीडिया कमेन्ट सेक्शन आफ रहते हैं, क्योंकि वो डरते हैं कि उनके गलत लिखने पर उन्हें गालियां पड़ सकती हैं।

सोशल मीडिया दो-तरफा संवाद का माध्यम होता है और यहां संकीर्ण मानसिकता के लोगों को हमेशा संकट रहता है। क्योंकि यहां बोलने की आजादी सिर्फ इन्हें ही नहीं होती, बल्कि उन्हें भी होती है जिनके खिलाफ ये लोग बोलते हैं। इन्हीं संकीर्ण मानसिकता वाले लोगों ने बहुत सुनियोजित तरीके से ट्रोल और फेक न्यूज शब्द का आविष्कार किया, ताकि उनके झूठ पर सवाल उठाने से पहले वो उन्हीं पर सवाल उठा दें जो संकीर्ण मानसिकता वाले लेखकों और बुद्धिजिवियों के झूठ को पकड़ते हैं।

वाल स्ट्रीट जर्नल की रिपोर्ट इसलिए संकीर्ण और सतही है, क्योंकि अगर ये सचमुच संतुलित रिपोर्ट लिखते तो इंदौर में कोरोना काल में हुए उपद्रव का भी जिक्र करते। जहां मुस्लिम मोहल्लों में जांच के लिए गयी डॉक्टरों की टीम पर मुसलमानों ने हमला कर दिया था। घटना की जांच की गयी तो पता चला कि ह्वाट्स एप पर मुसलमानों के बीच झूठा मैसेज वायरल किया गया कि जानबूझकर मुस्लिम मोहल्लों को टार्गेट किया जा रहा है। इसलिए उग्र हुए मुसलमानों ने जांच टीम पर ही हमला कर दिया।

कुछ ऐसा ही उदाहरण हाल में ही नागरिकता संशोधन विधेयक के खिलाफ हुए उग्र प्रदर्शनों और दिल्ली दंगों के दौरान भी मिला था। जब मुस्लिम ग्रुप्स ने वॉट्स एप का इस्तेमाल करके मुसलमानों को ही सीएए के खिलाफ भड़काया था। दिल्ली दंगों की जांच करनेवाली दिल्ली पुलिस ने भी ये पाया कि दिल्ली के हिन्दू विरोधी दंगों के लिए सोशल मीडिया प्लेटफार्म का इस्तेमाल किया गया। दिल्ली सरकार ने तो बाकायदा टीवी पर कई हफ्ते विज्ञापन देकर ऐसे झूठे संदेशों को प्रसारित न करने का अभियान भी चलाया था।

निश्चित तौर पर सोशल मीडिया का इस्तेमाल लोग अपने अपने हिसाब से करते हैं। जो भी संगठित समूह हैं, वो सच-झूठ दोनों  को फैलाने के लिए इस प्लेटफार्म का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन किसी एक समूह को दोषी बताकर दूसरे समूह को निर्दोष साबित कर देना उसी संकीर्ण मानसिकता का उदाहरण है, जिसने भारत में सांप्रदायिक तुष्टीकरण की राजनीति पैदा की।

ऐसा बिल्कुल नहीं हो सकता कि एक वर्ग का तुष्टीकरण हो और बाकी वर्ग उस तुष्टीकरण के खिलाफ मुखर न हों। सवाल सिर्फ हिन्दू और मुसलमान का नहीं है। सवाल है तुष्टीकरण का। अगर हिन्दुओं में ही किसी एक जाति का तुष्टीकरण शुरु होता है तो बाकि जातियां उसके खिलाफ लामबंद हो जाती हैं।

न तो कांग्रेस इस बात को समझने को तैयार है और न ही राहुल गांधी और उनके सलाहकार। सोशल मीडिया के इस दौर में राजनीति कितनी बदल गयी है इसे समझे बिना सिर्फ माध्यम पर सवाल उठाकर उसका मुह बंद करने का प्रयास निंदनीय है।

निश्चित रूप से नरेंद्र मोदी ने सोशल मीडिया की ताकत बहुत पहले 2010 में ही समझ लिया था। जब मुख्यधारा की मीडिया में मोदी पर अघोषित सेन्सर लागू था, तब उन्होंने सोशल मीडिया के द्वारा ही 2013 में अपना प्रचार अभियान शुरु किया था। उस समय कांग्रेस और उसके नेता सो रहे थे। वो कहते थे इंटरनेट से वोट नहीं मिलता। लेकिन आज उसी कांग्रेस के नेता इंटरनेट पर ही आरोप लगा रहे हैं कि इंटरनेट से वोटों का ध्रुवीकरण हो रहा है।

राहुल गांधी का सोशल मीडिया पर ताजा आरोप सिर्फ से साबित करता है कि वे न लोक को समझ रहे हैं और न लोकमानस को। अपनी हार के लिए वे कभी ईवीएम को दोषी ठहराते हैं तो कभी सोशल मीडिया को। लेकिन ये भूल जाते हैं कि जिस वर्ग के लिए वे सोशल मीडिया पर सवाल उठा रहे हैं, कहीं ऐसा तो नहीं है कि उनकी हार के लिए उसी वर्ग का तुष्टीकरण जिम्मेवार हो?.