'अखिलेश टिकट बंटवारे से लेकर, अपनी चुनावी रणनीति के हर बिंदु पर मुस्लिमों को बाँधने और साधने का यत्न करते हुए तो दिख रहे हैं, किन्तु चुनावी सभाओं में वे पिछड़ों के विकास और सामाजिक न्याय की बात करते हुए अधिक दिखते हैं, मुस्लिमों की समस्या और उसके मुद्दों पर कम। यहाँ मैं यह तो नहीं कहना चाहूँगा कि हाथी के खाने के दांत और तथा दिखाने के दांत और, लेकिन इतना अवश्य कहूँगा कि मुस्लिम तुष्टिकरण उनकी राजनीति का मूल आधार है।'
उत्तर प्रदेश का चुनाव सर्वाधिक सरगर्मियों वाले चुनावों में से एक माना जाता है। यह देश का सबसे बड़ा राज्य है। इसका परिणाम देश की राजनीति को व्यापक रूप में प्रभावित करता है। यह वह राज्य है जहाँ धर्म राजनीति के केंद्र में रहने लगा है। यानि कि ध्रुवीकरण और तुष्टिकरण के आधार पर वोट पाने की तीव्र कवायद। अपराध, अपराधियों के प्रति सत्ता का व्यवहार और उसका रवैया भी काफी हद तक यहाँ धर्म के आधार पर ही तय होने के आरोप लगते रहे हैं।
जिस तरह समाजवादी पार्टी ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सीटों पर मुस्लिम कंडीडेट्स को प्रमुखता दी है उससे तय होता दिखाई दे रहा है कि सपा मुस्लिमों के लिए लामबंदी कर रही है तो वही भाजपा पर हिन्दुओं की गोलबंदी के लिए धार्मिक मामलों को उछालने का आरोप भी प्रतिपक्ष लगाता रहा है। भाजपा ने भी लगभग खुले स्वर में इसे स्वीकार ही किया है, इतना जरूर है कि इसे वह अपने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के प्रति अपनी आस्था के परिप्रेक्ष्य में उचित मानता है और उसी विचार को प्रसारित भी करता है।
उत्तर प्रदेश में धार्मिक तुष्टिकरण के अनेक उदाहरण, विशेषकर चुनावों के समय सामने आते रहे हैं। शमशान और कब्रिस्तान का मुद्दा हो, दंगों और दंगाइयों को प्रश्रय देना हो, धर्म की आड़ में आतंकियों और अपराधियों को शरण देना हो। आतंकवादियों के प्रति मुलायम रुख अख्तियार करना हो या कारसेवकों पर गोली चलाना हो, ये सारे ऐसे बिंदु रहे हैं जिस पर समाजवादी पार्टी और कांग्रेस जैसे दलों को लगातार सफाई देनी पड़ती है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जिस प्रकार से लगातार लम्बे समय तक बहुसंख्यक जनता के मन में भय का भाव रहा है, वहां की राजनीति पर उसकी भी गहरी छाया पड़ती ही है। पूर्वांचल में भी धार्मिक उत्तेजना और तनाव से निबटने के लिए योगी आदित्यनाथ की हिन्दू युवा वाहिनी ने संतुलन बनाने की जिस तरह से कोशिश की, उसकी भी गूँज वर्षों तक गूंजती रही है।
इस बार के चुनाव में अखिलेश यादव के नेतृत्व में सपा लगातार ऐसी कोशिश कर रही है जिससे वो यादव मतदाताओं को एकजुट रख सके और मुसलमानों के भी ज्यादा से ज्यादा वोट हासिल कर सके। ऐसा लगता है कि इस बार मुस्लिम पहले से कहीं कम भ्रम में है और उसका ध्रुवीकरण सपा के पक्ष में होने की संभावना भी है। किन्तु यही अखिलेश और सपा के लिए फांस की तरह भी है। ये तो सभी भलीभांति यह जानते हैं कि मुस्लिमों का तेज ध्रुवीकरण स्वतः ही हिन्दुओं को ध्रुवीकरण के लिए भी प्रेरित करेगा। पिछले चुनाव में एक लाख से भी अधिक मुस्लिम वोट वाले देवबंद में भाजपा की जीत का चमत्कार देख ही चुके हैं। इसके अतिरिक्त मुजफ्फरनगर, शामली, सहारनपुर, बरेली, बिजनौर, मेरठ की सरधना, गोरखपुर की खलीलाबाद, अंबेडकर नगर की टांडा, श्रावस्ती जिले की श्रावस्ती और गैन्सारी और मुराबादाबाद जैसे कई मुस्लिम बहुल सीटों पर भी भाजपा ने अपना परचम लहराया था। और फिर इस बार तो भाजपा के पास काशी कोरिडोर, अयोध्या, एक हद तक मथुरा और खुद योगी का नेतृत्व भी है जो इस ध्रुववीकरण की प्रक्रिया को आंधी में बदलने का माद्दा रखता है। अब्बा जान, अस्सी बनाम बीस जैसे योगी के दांव से इसकी एक झलक इस चुनाव में पहले ही दिख भी चुकी है। अखिलेश को यह भी पता है कि विकास ही नहीं ध्रुवीकरण के मामले में भी उसके लिए भाजपा से पार पाना मुश्किल ही होगा।
यही कारण है कि अखिलेश टिकट बंटवारे से लेकर, अपनी चुनावी रणनीति के हर बिंदु पर मुस्लिमों को बाँधने और साधने का यत्न करते हुए तो दिख रहे हैं, किन्तु चुनावी सभाओं में वे पिछड़ों के विकास और सामाजिक न्याय की बात करते हुए अधिक दिखते हैं, मुस्लिमों की समस्या और उसके मुद्दों पर कम। यहाँ मैं यह तो नहीं कहना चाहूँगा कि हाथी के खाने के दांत और तथा दिखाने के दांत और, लेकिन इतना अवश्य कहूँगा कि मुस्लिम तुष्टिकरण उनकी राजनीति का मूल आधार है। इसके बिना सपा बेहद कमजोर और प्रभावहीन हो जाती है। और यही भाजपा के लिए भी अतिरिक्त उछाल का कारण भी बनता है। अखिलेश और समस्त विपक्ष इस बार भी हिन्दुओं के ध्रुवीकरण की संभावना से सहमा सहमा दिख रहा है। प्रदेश का राजनीतिक परिदृश्य और योगी के तेवर एवं कामकाज के ढंग से भी ऐसा ही झलकता है। प्रधानमंत्री मोदी के हिंदुत्व और विकास की समन्वय वाली छवि और उनके प्रभाव की कोई काट आज भी प्रतिपक्ष के पास नहीं है।
सपा गठबंधन ने अपनी पहली सूची में 29में से 9सीटों पर मुसलामानों को टिकट देकर अपनी प्राथमिकता और सियासी मजबूरी स्पष्ट कर दी है। अपराधी और विवादित मुस्लिम चेहरों को भी उसने धड़ल्ले से टिकट देने का काम किया है। कानून व्यवस्था, अपराध पर नियंत्रण और अपराधियों पर बुलडोजर जैसे योगी के कदमों की चर्चा भी ऐसे माहौल में ध्रुवीकरण को धार देने का ही काम करेगा। सपा ने जिस मुस्लिम तुष्टिकरण के आधार पर सत्ता में आने का मंसूबा पाल रखा है उसी आधार से अपने औजार को धार देने के काम में योगी को महारत हासिल है। ऐसे में यह सहज ही कहा जा सकता है कि मुस्लिमों का ध्रुवीकरण सपा के लिए दोधारी तलवार की तरह है, जिसका फायदा है तो उसके अपने खतरे भी हैं। सपा के लिए यह संतुलन बनाना बेहद कठिन होगा कि मुस्लिमों को अपनी ओर खींचा भी जाए और वह चुनावी चर्चा और अभियान के केंद्र में भी न आए, क्योंकि यदि ऐसा होता है तो फिर सत्ता के रथ पर भाजपा को बैठने से रोक पाने का सपना उसके लिए किसी दुःस्वप्न से कम नहीं होगा।
(लेखकः डॉ. विजय कुमार मिश्र, दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कॉलेज में सहायक प्रोफेसर एवं राजनीतिक विश्लेषक)