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जिहादियों से पाकिस्तान परेशान, मुक़ाबले के लिए अब फ़तवों का इस्तेमाल

पेशावर में देवबंदी मदरसा दारुल उलूम हक्कनिया 'जिहाद विश्वविद्यालय' के नाम से कुख्यात है। हालांकि, अब यह इस्लाम के नाम पर हिंसा के ख़िलाफ़ फ़तवा जारी करने में अपनी भूमिका निभा सकता है।

मोहम्मद अनस

Now Turn To Use Fatwa:सैन्य, नागरिक और मौलवियों को निशाना बनाकर आतंकवादी हमलों में जैसे-जैसे वृद्धि हो रही है,वैसे-वैसे पाकिस्तानी प्रतिष्ठान उस अड्डे की ओर भागे रहे हैं, जहां से जिहाद या उग्रवाद की उत्पत्ति हुई थी,यानी फ़तवा। और कथित तौर पर ये प्रतिष्ठान देश के प्रमुख मदरसों और प्रमुख धार्मिक हस्तियों को यह बात फैलाने में मदद करने के लिए मनाने की कोशिश कर रहा है कि देश, उसके सशस्त्र बलों, उसके संस्थानों और लोगों के ख़िलाफ़ कोई भी जिहाद फ़साद (बुराई, गड़बड़ी और एक गंभीर पाप) होगा।  

अधिकांश जिहाद फ़तवे पाकिस्तान में तब जारी किए गए थे, जब दिवंगत तानाशाह जनरल जिया-उल-हक़ के नेतृत्व में इसकी सेना सोवियत संघ के ख़िलाफ़ अफ़ग़ान मुजाहिदीन की मदद कर रही थी। अधिकतर देवबंदी मौलवियों और मदरसों ने अफ़ग़ान जिहाद के पक्ष में फ़तवा देने में अग्रणी भूमिका निभायी थी। 9/11 के बाद जब जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ के नेतृत्व में पाकिस्तानी सेना ने अफ़ग़ानिस्तान से तालिबान को बाहर करने के लिए अमेरिकियों का साथ देने का फ़ैसला किया था, तो इ फ़तवा फ़ैक्ट्रियों ने खुलेआम काम करना तो बंद कर दिया था, लेकिन इन फ़ैक्ट्रियों में फ़तवे का उत्पादन अनियंत्रित रूप से जारी रहा और उन्हें केवल गुप्त रूप से प्रसारित किया जाने लगा, जिसमें आक्रमणकारी काफ़िरों को समर्थन देने के कारण पाकिस्तानी सेना के विरुद्ध जिहाद का आह्वान किया गया।

हालांकि, जब पाकिस्तानी सेना ने क़बायली इलाक़ों में कार्रवाई शुरू की और कुछ मदरसों पर बमबारी की गयी और नागरिक हताहत हुए, तो देवबंदी और सलाफ़ी दोनों शाखाओं से संबंधित लगभग 100 मौलवियों ने पाकिस्तानी सेना के ख़िलाफ़ जिहाद को उचित ठहराते हुए फ़रमान जारी किए। परिणामस्वरूप, पाकिस्तान में आत्मघाती बमबारी की शुरुआत हुई और बाद के वर्षों में पाकिस्तान के सभी प्रमुख शहरों और कभी-कभी ग्रामीण इलाक़ों में भी लगातार कम पैमाने या उच्च-लक्षित आतंकवादी हमले देखे गये।

जिन मौलवियों और धार्मिक हस्तियों ने इस जिहाद को आतंकवादी पागलपन क़रार दिया था और आतंकवादियों से अपने तरीक़े सुधारने का आह्वान किया था, उन्हें पंगु बना दिया गया। उनमें से सबसे उल्लेखनीय में से एक मौलाना सरफ़राज़ नईमी थे, जो यूपी के मुरादाबाद में रहने वाले एक सूफ़ी मौलवी थे, जिनकी 2009 में लाहौर में उनके मदरसा जामिया नईमिया लाहौर में एक आत्मघाती हमले में हत्या कर दी गयी थी।

नईमी ने कहा था, “जो लोग स्वर्ग पाने के लिए आत्मघाती हमले करते हैं, वे नरक में जायेंगे, क्योंकि वे कई निर्दोष लोगों की हत्या करते हैं।” रिपोर्टों के अनुसार, उनके लेखन और भाषणों को अब जिहाद की कहानी को कुंद करने के लिए प्रसारित किया जायेगा।

हमले का शिकार हुए एक अन्य प्रमुख विद्वान जावेद अहमद गामिदी हैं, जो कथित तौर पर अपने उदार सहयोगी डॉ. मुहम्मद फ़ारूक़ ख़ान की हत्या और उनके जीवन पर कई प्रयासों के बाद पाकिस्तान से भाग जाने के बाद ऑस्ट्रेलिया में रह रहे हैं। गामिदी पाकिस्तान में धार्मिक संगठनों द्वारा अपनाये जाने वाले हिंसक तरीक़ों के ख़िलाफ़ लिखना और बोलना जारी रखे हुए हैं।

गामिदी आज दक्षिण एशिया में सबसे लोकप्रिय और मुखर इस्लामी विद्वान हैं। उनके वीडियो उत्साहपूर्वक प्रसारित किए जाते हैं और यहां तक कि पाकिस्तान सेना से जुड़े संस्थानों, सोशल मीडिया हैंडलों ने भी पाकिस्तान में फिर से व्यापक जड़ें जमाने वाली जिहादी विचारधारा को रोकने के लिए उनके व्याख्यान और सवाल-जवाब सत्र को प्रसारित करना शुरू कर दिया है।

पाकिस्तानी प्रतिष्ठान के लिए कान खड़ा होने की स्थिति तब आयी, जब पूर्व प्रधानमंत्रियों नवाज़ शरीफ़ और इमरान ख़ान के शासनकाल के दौरान तहरीक़ ए तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) और अब अल क़ायदा-इस्लामिक स्टेट ऑफ़ इराक़ एंड लेवंत (ख़ुरासान) जैसे आतंकवादी संगठन सक्रिय हो गए। पाकिस्तान के अंदर हमले तेज़ हो गये। तालिबान की सत्ता में वापसी के बाद पाकिस्तान को लगा कि हमले कम हो जायेंगे, लेकिन हुआ बिल्कुल उलट। यह प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ और धार्मिक सेना प्रमुख जनरल असीम मुनीर की नई सरकार के दौरान भी जारी रहा।

30 जुलाई को मौलवी-राजनेता मौलाना फ़ज़लुर्रहमान की अध्यक्षता में जमीयत उलेमा ए इस्लाम (फ़ज़ल) की एक धार्मिक-राजनीतिक सभा आत्मघाती हमले का निशाना बन गयी, जिसमें ख़ैबर पख़्तूनख़्वा के बाजौर में स्थानीय प्रमुख सहित इसके कैडर की 44 मौतें हुईं। आईएसआईएल (के) द्वारा दावा किया गया यह हमला कुछ मौलवियों द्वारा पाकिस्तानी राष्ट्र के ख़िलाफ़ जिहाद को वापस लेने के आह्वान के बाद हुआ, क्योंकि यह अब अमेरिका का सहयोगी नहीं है और धार्मिक लोग गठबंधन सरकार का हिस्सा हैं। स्पष्ट रूप से यह देवबंदी अपील उलटी पड़ गयी, क्योंकि सलाफ़ी (अल क़ायदा और आईएसआईएल के अधिकांश अनुयायी इसी संप्रदाय के हैं) अभी भी पाकिस्तान को इस्लाम की सच्ची भावना का पालन नहीं करने वाले लोगों द्वारा शासित राज्य मानते हैं। (यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि जिन समूहों ने सरकार पर हमला किया है, वे बड़े पैमाने पर देवबंदी या उनकी शाखाये हैं और वे पाकिस्तान में अधिकांश सांप्रदायिक और सांप्रदायिक हमले करते रहते हैं)।

इससे अकेले पाकिस्तानी प्रतिष्ठान ही चिंतित नहीं हैं, यहां तक कि अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान ने भी इसका संकेत लिया और उसके प्रवक्ता जबीउल्लाह मुजाहिद ने तालिबान प्रमुख शेख़ हैबतुल्ला अख़ुनज़ादा को ज़िम्मेदार ठहराते हुए जिहाद के ख़िलाफ़ फ़तवे पर स्पष्टीकरण जारी किया।

मुजाहिद ने तर्क दिया कि यह वास्तव में दारुल इफ़्ता द्वारा जारी किया गया था, जो तालिबान द्वारा संचालित इस्लामिक न्यायशास्त्र संस्थान है।

मुजाहिद ने ख़ुरासान क्षेत्र में उग्रवाद के कवरेज के लिए समर्पित एक पोर्टल-द ख़ुरासान डायरी को बताया, “दस्तावेज़, एक पैम्फलेट जो जिहाद के विषय की व्याख्या करता है, इस्लामिक अमीरात के दार अल-इफ़्ता द्वारा जारी किया गया है। यह कोई आदेश नहीं है; बल्कि ये संस्थान का फ़तवा है। यह पैम्फलेट मुजाहिदीन के बीच जिहाद के बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए अधिकारियों को सौंप दिया गया है।”

तालिबान के सर्वोच्च नेता का उक्त फ़तवा टीटीपी पर शासन करने के लिए पाकिस्तानी सेना की कठोर कूटनीति और “मजबूर किये जाने” का परिणाम था। पाकिस्तानी मीडिया की रिपोर्ट के अनुसार, तालिबान टीटीपी के साथ “संवाद जारी रखने” पर सहमत हो गया है।

इस बीच पाकिस्तानी सेना ने दारुल उलूम हक्कानिया और जामिया बिनोरिया जैसे प्रमुख मदरसों से मदद मांगी है, जो जिहाद के वैचारिक समर्थन के “आधार” थे – दोनों मूल रूप से देवबंदी विचारों पर आधारित थे। इसके अलावा, पाकिस्तानी प्रतिष्ठान 1800 विद्वानों द्वारा हस्ताक्षरित 2018 फ़तवे को सक्रिय रूप से प्रसारित कर रहा है। इसे पैग़ाम-ए-पाकिस्तान नाम दिया गया है और यह उग्रवाद को त्यागने का आह्वान करता है और युवाओं को “रचनात्मक साहसिकता” की ओर मुड़ने के लिए कहता है।

सबसे प्रमुख देवबंदी मौलवियों में से एक, मुफ़्ती तकी उस्मानी ने अपने फ़तवे में विशेष रूप से टीटीपी का ज़िक्र करते हुए कहा है कि पाकिस्तान के ख़िलाफ़ जिहाद और सशस्त्र संघर्ष नाजायज़ है और पाकिस्तान की सरकार प्रणाली इस्लामी है।

इसके अलावा, मस्जिदों में इमामों और जुमा ख़ुतबा पढ़ने वालों को सलाह दी गयी है कि वे जिहाद की गलत व्याख्या और इस्लाम को समझते समय मुफ़ाहिमत (तर्कसंगत दृष्टिकोण) की आवश्यकता पर ध्यान दें। पाकिस्तानी मीडिया के एक टिप्पणीकार ने कहा, “पहले, पाकिस्तानी प्रतिष्ठान इस्लाम को इस्लामवाद की ओर ले गये थे, अब वे इसे इस्लामवाद से ‘आधिकारिक इस्लाम’ की ओर ले जाना चाहते हैं।”

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