Hindi News

indianarrative

1971 के जंग में पकड़े गए पाकिस्तानी युद्धबंदियों को मिली बैरक्स और भारतीय सेना सोती थी तंबूओं में!

1971 के जंग में पकड़े गए पाकिस्तानी युद्धबंदियों को मिला बैरक्स और भारतीय सेना सोती थी तंबूओं में

पाकिस्तान ने जब-जब भारत से युद्ध किया तब-तब उसे मुंह की खानी पड़ी। भारत-पाकिस्तान के बीच 1947-48, 1965, 1971 और 1999 में युद्ध हुए। इन सारे युद्धों में पाकिस्तान को ही मुंह की खानी पड़ी। और 1971 के युद्ध में भारतीय सेना ने पाकिस्तान को 16 दिसंबर 1971 को हथियार डालने पर मजबूर कर दिया। 1971 युद्ध की कई सारी कहानियां है। इस जंग में पाकिस्तान टूट गया और पूर्वी पाकिस्तान बांग्लादेश बन गया। भारत ने इस जंग के जरिए इतिहास रचते हुए दक्षिण एशिया का भूगोल बदल दिया। भारत के आगे पाकिस्तान की हालत यह हुई कि उसे सरेंडर करना पड़ा। इसके चार दिन बाद जनरल नियाजी और उनके वरिष्ठ सहयोगियों मेजर जनरल राव फरमान अली, एडमिरल शरीफ, एयर कोमोडोर इनामुल हक और ब्रिगेडियर बाकिर सिद्दीकी को कोरिबू विमान से कोलकाता ले जाया गया। लेकिन नियाजी अपनी पीआरओ सिद्दीकी सालिक को ढाका में नहीं छोड़ना चाहते थे इसलिए उन्हें भी फरमान अली का नकली एडीसी बनाकर कोलकाता ले जाया गया। जनरल सगत सिंह इन लोगों को ढाका हवाईअड्ढे पर छोड़ने आए। उन्हें फोर्ट विलियम के लिविंग क्वार्टर्स में रखा गया।

यह भी पढ़ें- Vijay Divas: बांग्लादेश में इंडियन आर्मी ने बचाई थी जनरल नियाजी की जान, 1 लाख पाकिस्तानी फौज के साथ किया था समर्पण!

जेल में ऐसे रखा गया था जनरल नियाजी को

जनरल जैकब ने पहले वाले सरेंडर दस्तावेज में समय गलत होने के चलते सरेंडर दस्तावेज को दोबारा टाइप करावाया। नियाजी और जनरल अरोड़ा ने उस पर दोबारा दस्तखत कि। शुरुआत में जनरल जैकब ने पाकिस्तानी सेना के लेफ्टिनेंट जनरल आमिर अब्दुल्ला खान नियाजी नियाजी और उनके साथियों से काफी गहरी पूछताथ की। जनरल नियाजी की आत्मकथा 'द बिटरेयल ऑफ ईस्ट पाकिस्तान' में उन्होंने लिखा है कि, हमें एक तीन मंज़िली इमारत में रखा गया जो नई-नई बनी थी। वो साफ़-सुथरी जगह थी। हमने एक कमरे को खाने का कमरा बना दिया। हमारा खाना भारतीय रसोइए बनाते थे लेकिन उन्हें हमारे अर्दली हमें परोसते थे। हम अपना समय रेडियो सुनने, किताबें पढ़ने और कसरत करने में बिताते थे। एक दिन मैंने अपनी देखरेख के लिए लगाए गए भारतीय अधिकारी कर्नल खारा से पूछा कि मेजर जनरल जमशेद कहां हैं। जिसके जवाब उन्होंने दिया कि, वो अभी भी ढाका में प्रशासनिक कार्यों में हमारी मदद कर रहे हैं। बाद में मुझे पता चला कि उन्हें ढाका में न रखकर कलकत्ता की एक जेल में एकांत कैद में रखा गया था।

नियाजी और उनके साथियों को कलकत्ता से जबलपुर के शिविर नंबर 100 में ले जाया गया। भारतीय अधिकारी मेजर जनरल राव फरमान अली को कलकत्ता में ही रख कर और गहन पूछताछ करना चाहते थे, लेकिन नियजी ने इसका विरोध किया। दरअसल भारतीय सैनिकों को फरमान अली के दफ़्तर में उनके हाथ का लिखा एक काग़ज़ मिला था जिस पर लिखा था 'ग्रीन लैंड विल बी पेंटेड रेड' (हरी ज़मीन को लाल रंग दिया जाएगा)।

यह भी पढ़ें- बांग्लादेश का रमना काली मंदिर जहां पाकिस्तान ने अपने 'ऑपरेशन सर्चलाइट' में घंटे भर में हिंदुआ का किया था नरसंहार

अपनी आत्मकथा में आगे नियाजी लिखते हैं कि, हमें बैचलर्स ऑफिसर्स क्वार्टर्स में रखा गया था। हर अफसर को एक शयनकक्ष और उससे जुड़ा हुआ एक बाथरूम दिया गया था। एक कॉमन लिविंग रूम था जिसके सामने एक बरामदा था। कमरों की बहुतायत थी इसलिए हमने एक कमरे को नमाज रूम और दूसरे कमरे को मेस बना लिया था। हमें रोज एक जैसा खाना मिलता था। उबले हुए चावल, चपातियां, सब्जियां और दाल। कभी-कभी गोश्त भी दिया जाता था। हमारे कैंप को चारों तरफ से कंटीलें तारों से घेरा गया था। एक संतरी अल्सेशियन कुत्ते के साथ चौबीसों घंटे हमारी निगरानी करता था। कैंप के बाहरी इलाके में हमारी सुरक्षा के लिए भारतीय सैनिकों की एक पूरी बटालियन तैनात थी। कुल मिलाकर कैंप स्टाफ का व्यवहार हमारे साथ अच्छा था।

नियाज़ी ने अपनी आत्मकथा में यह भी जिक्र किया है कि, पाकिस्तान सरकार उन्हें मारने के लिए दो लोगों को भेजा था। जमशेद नाम का एक व्यक्ति को भारतीय इंटेलिसेंज ने कलक्ता में पकड़ा जिसने बताया कि उसे और एक और व्यक्ति को जनरल नियाजी को मारने के लिए भेजा गया है।

जब पाकिस्तानी युद्धबंद कैदी भगाने की फिराक में खोद डाली सुरंग

21 दिसंबर को कर्नल हकीम अरशद कुरैशी (जो बाद में मेजर जनरल बने) और उनके साथियों को बसों से भारत लाया गया। और रांची के युद्धबंदी शिविर नंबर 95 में रखा गया और यहीं से इन लोगों ने कैंप से भागने की योजना बनानी शुरू कर दी। इस दौरान भारतीय कमांडेंट ने कैंप का दौरा किया तो वो शिविर को ढंग से मेनटेन कहीं किए जाने को लेकर खासा नाराज हुए।

यह भी पढ़ें- 1971 युद्ध, भारत ने महज 13 दिनों में पाकिस्तान का गुरूर किया 'चकनाचूर'

मेजर जनरल हकीम अरशद क़ुरैशी ने अपनी किताब '1971 इंडो-पाक वॉर अ सोलजर्स नरेटिव' में लिखा, जब वो कमांडेंट चला गया तो हमने भारतीय जेसीओ से कहा कि वो हमें फावड़े और खुरपी उपलब्ध कराएं ताकि हम हर बैरक के सामने फूलों की क्यारी बना सकें ताकि जब कमांडेंट अगली बार आए तो उसे देख कर खुश हो जाए। हमें ये दोनों चीज़े दे दी गईं। उन्होंने किताब में आगे लिखा कि, हम दिन में बागबानी करते और रात में इनकी मदद से सुरंग खोदते। पहले हमने खोदी हुई मिट्टी को एक बैरक की फ़ॉल्स सीलिंग में छिपाया। लेकिन एक दिन जब वो सीलिंग मिट्टी के बोझ से गिर गई तो हमने मिट्टी को क्यारियों में छितराना शुरू कर दिया।

जिस दिन भागने वाले थे उसी दिन पकड़े गए

उन्होंने लिखा कि जब सुरंग पूरी तरह तैयार हो गई दो वो पैसा जमा करना शुरू कर दिए। अपने कीमती सामानों को बेचकर वो अच्छा खासा पैसा जुटा लिए। लेकिन पाकिस्तानी इसमें कामयाब नहीं हो सके। क्योंकि जिस दिन वो भागने वाले थे उसी दिन सारी युद्ध में बंदी बनाए गए कैदियों को एक जगह इकट्टा होने के लिए कहा गया और उशके बाद कैंप कमांडर कर्नल हाउजे जब एक कमरे में गए तो उन्हें कुछ ठीक नहीं लगा तो उन्होंने पलंक के नीचे से फैली लकड़ियों को हटवाया तो वहां उन्हें एक गहरा छेद दिखा दिया।

इसके बाद वो बोले कि, शिविर से निकल भागने की प्रयास करना पाकिस्तानी युद्धबंदियों का कर्तव्य है लेकिन उसी तरह इस अंजाम को न होने देने का कर्तव्य भारतीय सैनिकों का भी है। उन्होंने कहा कि, एक अच्छे सैनिक की तरह अपना जुर्म कबूल करे और आगे आए, ताकि बिना वजह दूसरे युद्धबंदियों को उसकी सजा ना मिले।

मेजर जनरल क़ुरैशी ने अपनी किताब में आगे लिखा कि, हम में से 29 लोगों ने इस हरकत की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर लेने का फ़ैसला किया। दरअसल हमारे ही किसी साथी ने हमें धोखा दिया था। उसने न सिर्फ़ सुरंग की जगह के बारे में भारतीयों से मुखबरी की बल्कि उन्हें ये भी बताता रहा कि सुरंग कहां तक खोदी जा चुकी है। शाम को हमें इसकी सज़ा दी गई। हमसे हमारी चारपाइयां और निजी सामान छीन लिया गया। हॉल में साथ खाना खाने की सुविधा वापस ले ली गई, खाने के बाद टहलने और बाहर से किसी चीज़ के मंगवाने पर भी पाबंदी लगा दी गई। हमारी दिन में कई बार हाज़िरी ली जाने लगी। इसके कुछ दिनों बाद इन दोषियों को 95 से कैंप नबंर 93 में शिफ्ट कर दिया गया।

यह भी पढ़ें- 1971 के युद्ध की सबसे खूनी लड़ाई ‘बैटल ऑफ हिली’, जहां Indian Army का बजा डंका

आगरा जेल की वो कहानी जहां से भाग निकला पाकिस्तानी कैदी

इसके बाद उन युद्धबंदियों को आगरा जेल ले जाया गया जो जहां पर करीब 200 पाकिस्तानी युद्धबंदियों को पहले से रखा गया था। जनरल कुरैशी का भारतीय जेल में अच्छा अनुभव नहीं रहा लेकिन एक दूसरे पाकिस्तानी अफसर इतनी कड़ी सुरक्षा के बाद भी भागने में कामयाब रहा। कैप्टन रियाजुल हक ने बीमार होने का बहाना बनाया और एक युद्धबंदी अस्पताल में भर्ती करा लिया। और एक दिन डॉक्टर की भेस बदल भाग निकला। इसी तरह कैप्टन शुजात अली भी चलती ट्रेन से कूदकर भाग निकलने में कामयाब हो गए थे। भारतीय द्वारा पाकिस्तानी युद्धबंदियों के साथ अच्छा व्यवहार करने की चर्चा विश्व प्रेस में हुई थी।

पाकिस्तानी युद्धबंदियों के साथ बर्ताव के लिए भारत की विश्व भर में हुई तरीफ

इन पाकिस्तानी कैदियों को बकायदा फिल्म दिखाया जाता था, इनके रहने खाने का पूरा खयाल रखा जाता था। भारत के उप-सेनाध्यक्ष रहे लेफ़्टिनेंट जनरल एसके सिन्हा अपनी किताब 'चेंजिंग इंडिया स्ट्रेट फ़्रॉम द हार्ट' में लिखते हैं, वरिष्ठ भारतीय असैनिक और सैनिक मुस्लिम अफ़सरों को इन युद्धबंदियों से बात करने के लिए बुलाया जाता था। इनके लिए मुशाएरे और फिल्म शो आयोजित किए जाते थे। हमने उन्हें पाकीज़ा और साहिब बीबी और ग़ुलाम पिक्चर दिखाई थी जिसे उन्होंने बहुत पसंद किया था। और रुड़की में हमने पाकिस्तानी और भारतीय अधिकारियों के बीच क्रिकेट मैच भी आयोजित किया था। वॉशिंगटन पोस्ट के एक संवाददाता ने इस कैंप्स का दौरा किया था जिसके बाद उन्होंने लिखा कि, दुनिया में कभी भी युद्धबंदियों के साथ इतना अच्छा व्यवहार नहीं किया गया जितना भारत के सेना ने किया। ये भारतीय सेना की बहुत बड़ी तारीफ थी।

पाकिस्तानी युद्धबंदियों के साथ भारत में बहुत अच्छा व्यवहार हुआ। उन्हें बैरक्स में रखा गया और खुद भारतीय सैनिक बाहर तंबुओं में रहे। यहां तक की पाकिस्तानी युद्धबंदियों के बैरक्स में पानी के साथ कुलर और पंखे भी चल रहे थे। 28 महीने बाद रिहाई वाला दिन भी आया जब जनरल नियाजी को जबलपुर रेलवे स्टेशन पर पाकिस्तान जाने वाली एक विशेष ट्रेन पर बैठाया गया। 30 अप्रैल, 1974 की सुबह ट्रेन वाघा सीमा पर पहुंची। पाकिस्तान में घुसने से पहले उन्हें चाय पिलाई गई। भारत की जेल में उन्होंने 28 महीने बिताए थे।

यह भी पढ़ें- कौन थे वो जिन्होंने तैयार किया था आजाद भारत के संविधान का पहला ड्रॉफ्ट और गांधी जी ने क्यों कर दिया खारिज, देखें खास रिपोर्ट

जब पाकिस्तान पहुंचे नियाजी

जिनरल नियाजी अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि, जब वो सीमार पार पहुंचे तो एक ब्रिगेडियर अंजुन उन्हें सेल्यूट करते हुए उन्हें एक चार इंच का आयताकार कार्ड बोर्ड देकर सीने पर चीपकाने के लिए बोलें जिसपर नंबर 1 लिखा हुआ था। ताकी इसकी तस्वीर खींची जा सके। यह देखर उन्होंने उनसे बाकी युद्धबंदी जनरलों को दिए जाने के बारे में पुछा तो उन्होंने कहा कि यह सिर्फ उन्हें ही लगाना है और ऐसा करने के लिए जनरल टिक्का ने आदेश दिया है। जिसके बाद नियाजी काफी खफा हो गए हैं और अंजुम को बोलें कि इससे पहले कि मैं अपना आपा खोउं तुम यहां से निकल जाओ।