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फिर नबी के नाम पर खेला गया सांप्रदायिक हिंसा का खूनी खेल

नबी के नाम पर इस बार बंगलौर जल उठा है। मंगलवार की रात बंगलौर के डीजे हल्ली थाने में उपद्रवियों ने जमकर उत्पात मचाया। मुस्लिम उपद्रवियों ने न सिर्फ थाने पर हमला किया बल्कि कांग्रेस के विधायक अखंड श्रीनिवासमूर्ति के घर पर भी हमला किया और तोड़ फोड़ किया। मुस्लिम उपद्रवियों द्वारा भड़काई गयी इस हिंसा में 3 लोगों की मौत हो गयी और 60 से ज्यादा पुलिसवाले घायल हो गये।

मुस्लिम उपद्रवियों का आरोप है कि कांग्रेस विधायक अखंड श्रीनिवासमूर्ति के भतीजे नवीन ने एक फेसबुक पोस्ट में उनके नबी मोहम्मद का अपमान कर दिया है। कथित तौर पर किसी पोस्ट में जन्माष्टमी के मौके पर मुस्लिम नौजवान ने कृष्ण को बलात्कारी बताते हुए पोस्ट डाला था, इसी पोस्ट के जवाब में नवीन ने मुसलमानों के पैगंबर मोहम्मद की 9 साल की आयेशा से शादी पर सवाल उठा दिया था। जिसे मुसलमानों ने अपने पैगंबर का अपमान माना और विधायक निवास सहित डीजे हल्ली थाने पर हमला बोल दिया। फिर नबी के नाम पर खेला गया सांप्रदायिक हिंसा का खूनी खेल।

इस घटना के बाद सोशल मीडिया पर कुछ मुसलमानों द्वारा खुलेआम नवीन को मौत के घाट उतारने की धमकियां भी दी जा रही हैं। हालांकि स्वयं विधायक श्रीनिवासमूर्ति इस घटनाक्रम पर कुछ नहीं बोल रहे हैं। विधायक श्रीनिवासमूर्ति दलित समुदाय से संबंध रखते हैं। इसलिए भाजपा नेताओं ने सोशल मीडिया पर भीम-मीम गठजोड़ पर सवाल जरूर उठा दिया है।

भाजपा प्रवक्ता संबित पात्रा और अमित मालवीय ने ट्वीट करके कहा है कि भीम-मीम गठजोड़ वाले अब कहां छुप गये हैं? वहीं भाजपा सांसद शोभा खरंदलाजे ने इस घटना की तुलना फ्रांस के कुख्यात चार्ली हाब्दो से करते हुए मुख्यमंत्री बीएस येदुरप्पा से अपील किया है कि घटना में शामिल लोगों के खिलाफ सख्त से सख्त कार्रवाई होनी चाहिए।

खैर, ये इस घटना का राजनीतिक पक्ष है लेकिन मूल सवाल ये है कि बार बार ऐसे घटनाक्रम क्यों सामने आते हैं? इसे समझने के लिए न सिर्फ इस्लाम को समझना होगा कि बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप में इसे रोकने के लिए बनाये गये कानूनों को भी देखना होगा।

दुनिया में जितने भी इस्लामिक मुल्क हैं वहां इस तरह के कानूनी प्रावधान हैं कि अगर कोई भी व्यक्ति मुसलमानों के पैगंबर मोहम्मद के जीवन और कुरान पर सवाल उठाता है या अपमानित करता है तो ऐसे लोगों के लिए अलग-अलग सजा का प्रावधान किया जाता है। कुछ देशों में तो मौत का प्रावधान है, जैसे पाकिस्तान।

पाकिस्तान में मोहम्मद की निंदा करनेवाले या उन पर सवाल उठानेवालों को कानूनन मौत का प्रावधान है। ये प्रावधान जिया उल हक के समय में किया गया था। जिया उल हक ने पहले से मौजूद कानूनी प्रावधानों में संशोधन करके सामान्य सजा को मौत की सजा में परिवर्तित कर दिया था। जिया उल हक ने पाकिस्तान के जिस पीपीसी 295 में संशोधन किया था, उसे अंग्रेजों ने बनाया था। बंटवारे के बाद कमोबेश वही कानून भारत और पाकिस्तान दोनों जगहों पर लागू कर दिये गये थे।

भारत में भी धार्मिक भावनाएं भड़काने पर भी पुलिस इसी 295 ए के तहत कार्रवाई करती है और ये सभी धर्मों के लोगों पर समान रूप से लागू होती है। हिन्दू या अन्य धर्मीवलम्बियों ने शायद ही कभी इस धारा का इस्तेमाल किया हो। क्योंकि धर्म सामाजिक विषय है। इसलिए तर्क वितर्क, खंडन मंडन या आलोचना-प्रत्यालोचना आमतौर पर ऐसे विषयों पर सामाजिक बहस का मुद्दा भर होती हैं।

लेकिन इस्लाम में ऐसा नहीं है। मुसलमान सेकुलर सिस्टम में भी नहीं चाहता कि कोई उनके नबी या कुरान पर सवाल उठाये। अगर कोई ऐसा करता है तो उसके खिलाफ वो कानूनी कार्रवाई तक का इंतजार नहीं करते और सीधे सजा देने के लिए मैदान में उतर आते हैं।

पाकिस्तान में तो ब्लासफेमी लॉ अब अल्पसंख्यकों के दमन का हथियार ही बन चुका है। आये दिन कहीं न कहीं किसी न किसी को नबी निंदा के नाम पर सजा दे दी जाती है। पंजाब के गवर्नर सलमान तासीर और हाल में ही अहमदिया मुसलमान ताहिर नसीम की हत्या कर दी गयी। आश्चर्य की बात तो ये है कि ऐसे हत्यारों को इस्लाम में सम्मानित किया जाता है, उन्हें गाजी की उपाधि दी जाती है। मसलन जिस फैसल नामक किशोर ने जुलाई में भरी अदालत में ताहिर नसीम की हत्या कर दी थी आज वह पाकिस्तान का पोस्टर ब्वाय है।

स्पष्ट है कि कट्टरपंथी मुसलमान कठोर कानून होने के बावजूद कानूनी रूप से सजा दिलाने तक का भी इंतजार नहीं करता। संभवत: नबी के निंदक के बारे में सुनते ही उनकी बौद्धिक चेतना और तर्क शक्ति सब समाप्त हो जाती है। यह इस्लाम पर मौलवियों और मौलानाओं के व्यापक प्रभाव का ही असर है कि पलक झपकते वो एक हिंसक भीड़ में परिवर्तित हो जाते हैं और तत्काल फैसला कर देना चाहते हैं।

अगर ऐसा न कर सकें, तो वो समय का इंतजार करते हैं और पूरी योजना के साथ वैसे ही हत्या करते हैं जैसे कमलेश तिवारी का लखनऊ में किया था। मतलब किसी भी दशा में मुसलमान नबी के निंदक का फैसला स्वयं ही करता है। भले ही तत्काल करे या फिर थोड़ा रूककर करे। फिर चाहे वह भारत में कमलेश तिवारी का मामला हो या फिर पाकिस्तान में ताहिर नसीम का। वो अदालती कार्रवाई तक का इंतजार नहीं करता।

स्वतंत्र सोच के लिए ये घातक संकट है। इस्लाम तो पूरा का पूरा मूर्तिपूजकों की निंदा पर ही टिका है। तो क्या इस कानून का इस्तेमाल करके सभी मुसलमानों को जेल में डाल दिया जाना चाहिए? अगर मुसलमानों के ही तर्क को सही मानें फिर तो कुरान भी प्रतिबंधित किताब बन जाएगी। क्योंकि वह तो सीधे तौर पर काफिरों की हत्या करने तक का आदेश देती है। तो क्या ऐसा किया जा सकता है? मुसलमानों को भी ये सोचना होगा इस वैचारिक कट्टरता की प्रतिक्रिया में जो कट्टरता पैदा होगी क्या वह उनके लिए हितकारी होगी? नबीं निंदा के नाम पर मुसलमान ये खूनी खेल आखिर कब तक खेंलेगे?.