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Shaheed Diwas 2021: भारतीय रणबांकुरों की गौरवशाली बलिदान परंपरा के पवित्र प्रतीक हैं शहीद भगत सिंह

शहीद दिवस। फाइल फोटो

शहीद भगतसिंह क्रांति का पर्याय हैं, वो लिखते "क्रांति बम पिस्तौल की संस्कृति नही है, क्रांति की तलवार तो विचारों की सान पर तेज़ होती है, अन्याय पूर्ण व्यवस्था के विरुद्ध सतत संघर्ष ही क्रांति है।" अपूर्व क्रांतिधर्मा भगतसिंह ने विचार को क्रांति का आधार बताया अन्याय के विरुद्ध अहिंसक जनांदोलन की बात भी कही।

सांडर्स वध तो सर्वविदित है ही, लेकिन भगतसिंह और उनके साथियों ने जेल में राजनैतिक कैदियों के लिए 63दिन की भूख हड़ताल की थी जिसका आधार हिंसा नही था यह विचार आधारित आंदोलन था। जिससे अंततोगत्वा निर्दयी ब्रिटिश सरकार को घुटने टेकने पड़े थे।

दुर्भाग्य से शहीद भगतसिंह की शहादत का अपहरण करने वाले वामपंथी विचारकों ने उनके क्रांतिकारी और राष्ट्रवादी विचारों को छुपाने का षड्यंत्र किया है। वे बस उनके अंतिम दिनों के कुछ सेलेक्टिव विचार जो उन्हें सूट करे सिर्फ उनकी मनमानी व्याख्या प्रस्तुत करते आये है। भगतसिंह रूस की आजादी के संग्राम 1917की सफ़लता से आकर्षित थे और ये आकर्षण उस दौर के हर स्वतंत्रता सेनानी में स्वाभाविक था। तत्कालीन परिस्थितियों में देश की आजादी के लिए क्रांतिकारी दुनिया मे किसी भी देश से प्रेरणा व सहयोग लेने से गुरेज़ नही करते थे। सावरकर भी मैज़िनी से प्रभावित हुए, नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने हिटलर और तोजो से भी सहयोग लिया, तो भगतसिंह का लेनिन से प्रभावित होना इनसे कुछ अलग नही था लेकिन सरदार भगतसिंह की प्रेरणा के मूल स्रोत पूर्णतः भारतीय थे।

सरदार भगतसिंह में राष्ट्र के प्रति सर्वस्व समर्पण की भावना व उनके क्रांतिकारी विचारों का मूल स्रोत उनका परिवार था दादा सरदार अर्जुनसिंह पंजाब के पहले आर्य समाजियों में शामिल थे जिन्हें महर्षि दयानंद सरस्वती ने स्वयं अपने हाथ से दीक्षा प्रदान की थी। पिता किशनसिंह अपने दोनों भाइयों के साथ स्वतंत्रता के संघर्ष में शामिल थे। उन्होंने कम उम्र में ही छोटे चाचा स्वर्णसिंह की शहादत देखी थी तो बड़े चाचा और भारतमाता सोसायटी के संस्थापक अजीत सिंह गदर आंदोलन में जुड़ कर आज़ादी की आवाज़ बुलंद कर रहे थे जिसके कारण अजित सिंह को देश छोड़कर भी जाना पड़ा था भगतसिंह के दूध के दाँत भी नही गिरे थे और वो घर की चर्चाओं में मदनलाल धींगरा के किस्सों से रूबरू हो रहे थे।

शहीद भगतसिंह, गदर आंदोलन के नायक करतार सिंह सराबा के बलिदान से तो इतने प्रभावित हुए की उनकी फोटो अपनी जेब मे लिये घूमते थे और सबको कहते थे “येमेराभाईहै, मेरा दोस्त है, मेरा गुरु है, मेरा सबकुछ है।“

भगतसिंह द्वारा  "करतार सिंह सराबा" शीर्षक से लिखे गए लेख में वे लिखते है " रणचंडी के इस परम् भक्त की उम्र उस समय बीस बरस भी नही हुई थी जब उन्होंने स्वतंत्रता देवी की बलिवेदी पर अपनी कुर्बानी दे दी। अंधी सदृश्य वे यकायक कहीं से आए, आग भड़काई और सपनों में डूब रणचण्डी को जगाने का प्रयास किया, बगावत का यज्ञ रचाया और आखिर वह खुद इसमें भस्म हो गये।

वे क्या थे? किस दुनिया से आए और चटपट किधर चले गए हम कुछ भी न जान सके। उन्नीस बरस की आयु में ही उन्होंने इतने काम कर दिखाये की सब हैरान रह गए। इतना साहस, इतना आत्मविश्वास, इतना त्याग और इतनी लगन कम ही लोगों में देखने को मिलती हैं।

भगतसिंह अपने आग उगलते प्रेरणादायी लेखों में रामसिह कूका, गुरुगोविंद, महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी को आत्मसात करने का उल्लेख करते हैं।

13अप्रैल 1919 जलियांवाला बाग के जघन्यतम हत्याकांड के बाद अगले ही दिन स्कूल से सीधे अमृतसर पहुँच जाते है, खून से सनी मिट्टी को माथे से लगाकर संकल्प करते हुए मात्र 12 साल का बालक बहन अमृत कौर को मिट्टी पर फूल चढ़ाते हुए कहता है "ये अपने लोगों की खून से सनी मिट्टी है" कितना गहरा विचार है अपरिचित लोगों को अपना मानना देश के साथ एकात्म हो जाना, फिर मृत्यु से भिड़ जाना वास्तव में तो मृत्यु से लड़ाई में भगतसिंह जीत गये क्योंकि मृत्यु सिर्फ उनके शरीर को मार सकी उनके विचार जिंदा है जब तक कायनात रहेगी वो मर नही सकते।

भगतसिंह एक महान व्यवहारिक राष्ट्रवादी दार्शनिक भी थे सुखदेव को लिखे एक पत्र में जो 11 अप्रेल 1929 को उनकी गिरफ्तारी के बाद बरामद हुए पत्र में भगतसिंह लिखते है "मैं पुरजोर कहता हूँ कि मैं आशाओं और आकांक्षाओं से भरपूर जीवन की समस्त रंगीनियों से ओतप्रोत हूँ लेकिन वक्त आने पर मैं सबकुछ कुर्बान कर दूँगा।" राष्ट्र के लिए उनके ये विचार आज भी कितने प्रासंगिक है

जीवन और मृत्यु को देखने की भगतसिंह की अपनी अनोखी दृष्टि थी। उन्हें फाँसी की सजा हो जाने के बाद अपने साथी बटुकेश्वर दत्त जिन्हें असेंबली बम धमाके प्रकरण में आजीवन कारावास की सज़ा हुई थी उन्हें अक्टूबर 1930 में एक पत्र में लिखते है " मुझे फाँसी की सजा मिली है, मगर तुम्हें उम्र कैद। तुम जिंदा रहोगे और जिंदा रहकर तुम्हे दुनिया को यह दिखा देना है कि क्रांतिकारी अपने आदर्शों के लिए सिर्फ मर ही नही सकते, बल्कि जिंदा रहकर हर तरह की यातनाओं का मुकाबला भी कर सकते है।"

सामाजिक समस्याओं पर उनका चिंतन मौलिक परिवर्तनकारी था। जून 1928 में किरती पत्रिका में विद्रोही नाम से प्रकाशित लेख 'अछूत का सवाल' में भगतसिंह लिखते है " जब तुम एक इंसान को समान अधिकार देने से भी इनकार करते हो तो तुम अधिक राजनैतिक अधिकार (स्वतंत्रता) मांगने के कैसे अधिकारी बन गये।"

इस जातिभेद की सामाजिक समस्या पर उनके विचार सावरकर और अंबेडकर से भिन्न नही थे ये सभी महापुरुष मानते थे की सामाजिक स्वतंत्रता के बिना राष्ट्रीय स्वतन्त्रता ज्यादा समय तक कायम नही रह सकती है।

वीर सावरकर की पुस्तक "भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम 1857" को तो भगतसिंह क्रांतिकारियों की गीता कहते थे।

भगत सिंह अपने बलिदान से जनता की चेतना को ऊंचा उठाना चाहते थे भविष्यद्रष्टा भगतसिंह जानते थे कि उनके बलिदान से बलिदानों का सिलसिला आरंभ होगा जो आज़ादी के बाद ही समाप्त होगा। अपने अंतिम दिनों में वे भारत के स्वतंत्रता के बाद कि भविष्यवाणी भी करते थे और कहते है "दस पन्द्रह साल में समझौता हो जाएगा, अंग्रेज हमे छोड़ कर चले जायेंगे लेकिन उससे देश का कुछ भला नही होगा, कई साल उथल पुथल में बीतेंगे उसके बाद लोगो को मेरी याद आयेगी।"

भगत सिंह की दूरदृष्टि कितनी सही थी बीते सात दशक इसकी गवाही चीख चीख कर दे रहे हैं।

आज के कम्युनिस्ट, भगतसिंह के अनुयायी नही हो सकते उन्होंने सामाजिक रूढ़ियों, विकृतियों और अंधविश्वासो पर तो पुरज़ोर प्रहार किया लेकिन कभी भारतीय संस्कृति का अपमान नही किया। पिता को लिखे पत्रों में वे ॐ और वंदे मातरम से शुरुआत करते थे। भारतमाता के स्वरूप को भगतसिंह देवी का ही रूप मानते थे 'मतवाला' पत्रिका में 16 मई 1925 को 'युवक' शीर्षक से प्रकाशित लेख में भगतसिंह लिखते हैं

ऐ भारतीय युवक! तू क्यों गफलत की नींद में पड़ा बेखबर सो रहा है उठ आँखे खोल, देख, प्राची दिशा का ललाट सिंदूर रंजित हो उठा है अब अधिक मत सो, सोना ही है तो अनन्त निद्रा की गोद मे जाकर सो

कापुरुषता के क्रोध में क्यों सोता है।

माया, मोह, ममता त्यागकर गरज उठ।

तेरी माता, तेरी प्रातः स्मरणीया, तेरी परम् वन्दनीया, तेरी जगदंबा, तेरी अन्नपूर्णा, तेरी त्रिशूलधारिणी, तेरी सिंहवाहिनी, तेरी शस्यश्यामला आज फूट-फूटकर रो रही है। क्या उसकी विकलता तुझे तनिक भी चंचल नही करती है? धिक्कार है तेरी निर्जीवता पर तेरे पितृ भी नतमस्तक है इस नपुंसकत्व पर। यदि अब भी तेरे किसी अंग में नया बाकी हो तो उठकर माता के दूध की लाज रख उसके उद्धार का बीड़ा उठा, उसके आँसुओ की एक-एक बूँद कि सौगन्ध ले उसका बेड़ा पार कर और बोल मुक्त कंठ से वन्दे मातरम, वंदे मातरम..

फाँसी के ठीक एक दिन पहले 22 मार्च 1931 को साथियों के नाम लिखे सन्देश में भगतसिंह कहते है

"एक विचार मेरे मन मे आता है कि देश और मानवता के लिए जो कुछ भी करने की हसरत मेरे दिल मे थी उनका हजारवाँ भाग भी पूरा नही कर सका"

शहीद भगतसिंह के स्वप्न अधूरे है, उनका बचा हुआ काम युवाओं को पूरा करना है, अगर देश के लिए जीना पड़े तो भी और मरना पड़े तो भी।

सबसे बड़ी बात है भगतसिंह की बलिदान भूमि लाहौर एक राष्ट्रीय तीर्थ है आज वो भारतमाता का हिस्सा नही है। हमारी पीढ़ी का राष्ट्रीय कर्तव्य है कि हम मां भारती के सर्वप्रिय बलिदानी पुत्र का शहादत स्थल लाहौर भारतमाता के चरणों मे समर्पित करे, आओ संकल्प करें कि जहाँ हुए बलिदान भगत सिंहवो लाहौर हमारा है… !!!

(लेखक- मोहन नारायण,  शहीद समरसता मिशन से सम्बद्ध हैं)