ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार शारदा शक्तिपीठ मंदिर का इतिहास करीब ढाई हज़ार वर्ष पुराना है। हालांकि शारदा शक्तिपीठ मंदिर ने अपने उत्कर्ष का काल छठी शताब्दी से 12वीं शताब्दी तक देखा। तब शारदा मंदिर सिर्फ़ मंदिर और तीर्थ-स्थल न रह कर एक बहुत बड़ा शैक्षणिक संस्थान बन चुका था। उस समय शारदा शक्तिपीठ की ख्याति नालंदा और तक्षशिला विश्वविद्यालयों के समान थी। मध्य एशिया, ईरान, अफ़गानिस्तान से विद्यार्थी यहां पर वैदिक क्रियाओं की शिक्षा लेने के लिये आते थे। कभी मध्य एशिया के प्रसिद्ध शिक्षा केंद्र शारदा शक्तिपीठ मंदिर के अब केवल खंडहर ही अवशेष हैं।
ऐतिसाहिक साक्ष्यों के आधार पर साबित होता है कि मौर्य सम्राट अशोक महान ने शारदा मंदिर के पास एक बड़े विश्वविद्यालय का निर्माण करवाया था। शारदा शक्तिपीठ, देवी शारदा का मंदिर होने के साथ साथ एक बड़ा शैव मंदिर भी था। समय के साथ यहां पर बौद्ध शिक्षण का कार्य भी होने लगा और कई देशों से लोग बौद्ध धर्म की शिक्षा पाने के लिये यहां आने लगे थे। वर्ष 141 ई. में कुषाण सम्राट कनिष्क ने शारदा पीठ में चौथी बौद्ध महासभा का आयोजन किया था।
शारदा शक्तिपीठ मंदिर हालांकि चीन के रेशम मार्ग से थोड़ी दूरी पर बसा था। इसके बावजूद इसका महत्व उस समय इतना था कि लोग अध्ययन करने, तीर्थ-यात्रा करने के लिये यहां आते थे। कश्मीरी पंडितों के लिये कश्मीर का मार्तंड सूर्य मंदिर और शारदा शक्ति पीठ दोनों ही एक बराबर अहम स्थान रखते हैं। ये अलग बात है कि पहलगाम में बने मार्तंड मंदिर को 724 ई. में कार्कोट सम्राट ललितादित्य मुक्तपीड़ ने बनवाया था। इस मंदिर की स्थापत्य कला गांधार, चीनी और गुप्त शैली की है।
सुषमा स्वराज ने अपने विदेश मंत्री के काल में अज़रबैजान की यात्रा के दौरान राजधानी बाकू के सूराखानी ज़िले में <strong>“आतिशगाह” अग्नि मंदिर </strong>में प्रार्थना की थी। यह मंदिर हिन्दू, सिक्ख और पारसी लोगों का पूजा स्थल है। यहां पर प्राचीन गणेश मंदिर भी है, जहां सुषमा स्वराज ने प्रार्थना की थी। उनके साथ-साथ ये तमाम भारतीयों के लिये आश्चर्य की बात थी कि भारत से इतनी दूर एक गणेश मंदिर बना है। आर्मेनिया के लोग बताते हैं कि ये गणेश मंदिर हज़ारों वर्ष पुराना है, जहां वर्ष 1745-46 का एक अभिलेख भी मिला है। जो यहां एक गणेश मंदिर होने की बात की पुष्टि करता है। नि:संदेह इस मंदिर का एक बड़ा केन्द्र शारदा शक्तिपीठ रहा होगा। क्योंकि कई मध्य एशियाई देशों में प्रकृति उपासक लोग रहते थे, जिन्होंने हिन्दू धर्म को आत्मसात किया था।
<h2>शारदा पीठ में प्रसिद्ध बौद्ध शिक्षण स्थल भी था</h2>
शारदा पीठ में एक बहुत विख्यात बौद्ध शिक्षण स्थल था। जहां पर पूर्वी एशिया और दक्षिण-पूर्वी एशिया के बौद्ध भिक्षु शिक्षा ग्रहण करने के लिये आते थे। इस तरह शारदा शक्तिपीठ ने मध्य एशिया से पूर्वी एशिया समेत दक्षिण-पूर्वी एशिया में बौद्ध धर्म के विस्तार में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसके साथ ही मध्य-एशिया में हिन्दू धर्म के फैलाव में भी शारदा शक्तिपीठ का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
वर्ष 632 ई. में चीनी बौद्ध यात्री श्वान च्वांग (ह्वेन त्सांग) ने शारदा शक्तिपीठ मंदिर की न सिर्फ़ यात्रा की थी, बल्कि वो यहां दो वर्षों तक अपने अध्ययन के लिये रुका भी था। श्वान च्वांग ने यहां पर विद्या अध्ययन करने वाले बौद्ध भिक्षुओं के ज्ञान की सराहना की और उनसे प्रभावित भी हुआ था। इसके अलावा महान बौद्ध विद्वान कुमारजीव ने यहीं पर अध्ययन के बाद चीन जाकर संस्कृत की बौद्ध पाण्डुलिपियों का चीनी भाषा में अनुवाद किया था। कुमारजीव महायान बौद्ध शाखा के प्रख्यात पंडित थे।
कुमारजीव की माता चीन के शिनच्यांग प्रांत के कूचा की राजकुमार थी, जबकि उनके पिता कश्मीरी पंडित थे। कुमारजीव जब 7 वर्ष के थे, तभी उनकी माता उन्हें अध्ययन के लिये कश्मीर ले आईं थीं। कुछ समय बाद वो काशगर चले गए। 12 वर्ष की आयु में कुमारजीव अपनी माता जीवक के साथ काशगर छोड़कर कूचा राज्य की तरफ़ निकल गए और तूर्पान के लिये प्रस्थान किया। जहां पर उस समय 10 हज़ार बौद्ध भिक्षु अध्ययन और शोध के काम में जुटे हुए थे।
<h2>मध्य काल के सभी इतिहासकारों ने किया, शारदा पीठ मंदिर का उल्लेख</h2>
शारदा शक्तिपीठ मंदिर का उल्लेख हमें 12वीं शताब्दी के कश्मीरी ब्राह्मण लेखक कल्हण की राजतरंगिणी में मिलता है। कल्हण ने आठवीं शताब्दी के राजा ललितादित्य का वर्णन किया है। कल्हण ने अपनी किताब में लिखा है कि शारदा मंदिर की प्रतिष्ठा इतनी ज्यादा थी कि उस समय बंगाल के गौड़ राजा के राज्य से बड़ी संख्या में भक्तों ने लंबी यात्रा की और कश्मीर पहुंचे और शारदा मंदिर में दर्शन किये। दक्षिण भारत में बस गए 11वीं शताब्दी के उत्तरार्ध के सुप्रसिद्ध विद्वान और लेखक बिल्हन पंडित ने शारदा तीर्थ की व्याख्या की है। उन्होंने अपना सारा लेखन शारदा देवी को समर्पित कर दिया था।
1000 ईस्वी में ईरानी विद्वान और यात्री अल-बरूनी ने शारदा शक्तिपीठ की यात्रा की थी। अल-बरूनी ने भी बताया कि <a href="https://hindi.indianarrative.com/world/sharda-peeth-temple-pok-hindu-population-completely-decimated-neelum-valley-district-18414.html"><strong>इस मंदिर में शारदा देवी की लकड़ी की एक मूर्ति बनी हुई थी, जिसकी पूजा यहां के लोग करते थे।</strong></a> अल-बरूनी ने मंदिर के अंदर भी प्रवेश किया था। उसने लिखा है कि लद्दाख और गिलगिट के बीच बोलेयर पर्वत पर बना ये मंदिर अपनी भव्यता के लिये विख्यात है। दूर-दूर से लोग शारदा माता से आशीर्वाद लेने लेने के लिए यहां की यात्रा करते हैं। अल-बरूनी आगे लिखता है कि शारदा तीर्थ उतना ही प्रसिद्ध है, जितना गुजरात का सोमनाथ मंदिर, थानेश्वर का विष्णु मंदिर और मुल्तान का सूर्य मंदिर। 1422 ई. में कश्मीर के सुल्तान ज़ैन उल आबिदीन ने भी शारदा शक्तिपीठ मंदिर की यात्रा की थी और उसने इस मंदिर का उल्लेख भी किया है।
हालांकि भारत पर मुस्लिम आक्रांताओं ने 711 ई. से ही हमले शुरु कर दिये थे, लेकिन कश्मीर अपनी विशेष भौगोलिक परिस्थिति के कारण एक लंबे समय तक इन हमलों से बचा रहा। आखिरकार चौदहवीं शताब्दी में मीर साम्राज्य के बादशाह सिकंदर बुतशिकन ने कश्मीर में हज़ारों हिन्दुओं पर ढेरों ज़ुल्म ढाए और उनकी सामूहिक हत्या करवाई। कश्मीर में रहने वाले हिन्दुओं को इस्लाम अपनाने के लिए बाध्य करने के क्रम में उसने की मंदिरों को ज़मींदोज़ कर दिया, मूर्तियां तोड़ डालीं और हिन्दू धर्म को कई बार अपमानित किया। इनमें कश्मीर का सुप्रसिद्ध शारदा शक्तिपीठ मंदिर भी शामिल था। बुतशिकन ने यहां के विशाल पुस्तकालय को आग के हवाले कर दिया। इसके बाद धीरे-धीरे कश्मीर में बसने वाली हिन्दू आबादी ने ये जगह छोड़ दी। जो बचे उन्होंने मौत और अत्याचार के डर से इस्लाम अपना लिया। इस तरह शारदा शक्तिपीठ अतीत का हिस्सा बन गया।
<h2>स्थानीय नागरिक शारदा पीठ गलियारा खोलने के पक्ष में</h2>
<a href="https://hindi.indianarrative.com/hindi/raam-mandir-ke-lie-paak-kabje-vaale-kashmeer-mein-sthit-shaarada-peeth-se-bhee-mittee-laee-gaee-8513.html"><strong>आज भी गिलगिट-बाल्टिस्तान के लोग ये चाहते हैं कि शारदा शक्तिपीठ को हिन्दू तीर्थयात्रियों के लिये फिर से खोल देना चाहिए।</strong></a> कुछ स्थानीय बुजुर्ग लोग बताते हैं कि बंटवारे के पहले यहां बड़ी संख्या में हिन्दुओं की आबादी रहती थी, जो अगस्त के महीने में वार्षिक तीर्थयात्रा करने के लिये यहां पर आती थी। मंदिर से प्रसाद के रूप में दूध-चावल दिया जाता था। गुलाम कश्मीर के निवासी इस मंदिर को शारदा माई का मंदिर बोलते हैं। ये लोग भी चाहते हैं कि शारदा माई मंदिर का पुराना वैभव वापस लौटे। जिससे लोगों की आवाजाही इस क्षेत्र में हो और ये लोग भी बाकी दुनिया से कटे न रहें। साथ ही तीर्थ पर्यटन से इन लोगों की आय भी होगी।
गिलगिट-बाल्टिस्तान के लोग भी चाहते हैं कि शारदा पीठ वापस हिन्दू समुदाय के लिये खुले। जिससे दोनों देशों में संबंध सामान्य बनें और स्थानीय लोगों को भी इस यात्रा से लाभ मिलेगा। अब प्रतीक्षा इस बात की है कि पाकिस्तान सरकार हिन्दुओं के इस सबसे पवित्र तीर्थ स्थल के लिये रास्ता कब खोलती है। करतापुर साहब गुरुद्वारा गलियारा खोलने के बाद ये आस भारतीय हिन्दुओं और खासकर कश्मीरी पंडितों के मन में जगी थी कि अब शारदा शक्तिपीठ मंदिर का रास्ता भी खुलेगा। फिलहाल अभी तक इस बारे में कुछ हुआ नहीं लेकिन भविष्य में आस ज़रूर जगी है। वैसे भी शारदा शक्तिपीठ का रास्ता खुलने से दोनों देशों के बीच संबंध बहाली का मार्ग प्रशस्त होगा।.