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Sino-Inida: भारत-चीन के लोगों के बीच खड़ी कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार!

Sino-Inida: भारत-चीन के लोगों के बीच खड़ी कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार!

चीन 70 साल पहले ही साम्यवादी बना है न! हमारे संबंध तो चीन से पांच हजार साल से भी पुराने हैं। भारत और चीन के संबंधों के सबूत महाभारत काल में भी मिलते हैं। भारत और चीन के लोग आज भी उतने ही नजदीक हैं जितने पहले थे। भारत और चीन के लोगों के बीच में अगर कोई आ गया है तो वो है कम्युनिस्ट पार्टी। चीन का कम्युनिस्ट शासन यानी शी जिनपिंग की सरकार। शी जिनपिंग की सरकार भारत और चीन के लोगों के बीच दीवार बन रही है। दोनों ओर के लोगों के लिए परेशानी का सबब बन रही है। आज चीन जैसे हम परेशान हैं वैसे ही दुनिया के कई और देश भी उससे परेशान हैं। खासकर दक्षिण-पूर्वी एशियाई देश तो कुछ ज्यादा ही परेशान हैं क्योंकि चीन अपने बाहुबल का प्रयोग दुनिया को डराने के लिये और अपनी सत्ता इनपर दिखाने के लिये कर रहा है।

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चीन के साथ हमारी परेशानी पिछले 70 वर्षों से है लेकिन चीन हमारा पड़ोसी पिछले पाँच हज़ार वर्षों से है और दोनों ही देशों में सभ्यताएं न सिर्फ़ अपनी अपनी परिधि में फल-फूल रहीं थीं, बल्कि एक दूसरे के देश में आना-जाना, वस्तुओं का आदान-प्रदान और मित्रवत संबंध भी थे। लेकिन चीन हमेशा से इतना आक्रामक नहीं था। हमारी पाँच हज़ार साल पुरानी सभ्यता में सीमाएं कभी संबंधों में बाधा नहीं बनीं। बल्कि सांस्कृतिक आदान-प्रदान बौद्धिक स्तर पर भी बना रहा।

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हम सिर्फ़ फ़ा-श्येन (फ़ाह्यान) श्वेन च्वांग (ह्वेन त्सांग) को ही देख लें। ह्वेन त्सांग ने 'सी यू की' नाम की किताब लिखी जिसमें उसका बौद्ध धर्म के साथ भारतीय संस्कृति के प्रति अगाध प्रेम झलकता है। इत्सिंग ने दस वर्ष नालंदा विश्वविद्यालय में बिताए और 4000 संस्कृत पाण्डुलिपियों के साथ चीन लौटा था जिसमें 50 हज़ार संस्कृत में श्लोक थे। इत्सिंग को संस्कृत-चीनी शब्दकोश बनाने के लिये भी जाना जाता है। चीन के मौजूदा कम्युनिस्ट राष्ट्रपति शी जिनपिंग  भारत के खिलाफ सोचने से पहले अगर इन विद्वानों के बारे में थोड़ा सा भी पढ़ लेते तो शायद चीन और भारत सबसे पक्के दोस्त होते। भारत की सरकारें पुराने सांस्कृति और ऐताहासिक सबंधों को महत्व देती रही हैं। इसलिए हमेशा कोशिश की है कि विवादों को बात-चीत से ही सुलझाया जाए।

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फाह्यान या ह्वेन त्सांग ही नहीं वांग श्वेनछे, च्यांग शीरन, ली ईप्याओ, मा ह्वान, कुङ चन, फ़ेइ शिन, सुंङ युन, ह्वेई शंङ, चू शी शिंङ, चि येन, पाओ युन, ऊ खुङ, ताओ फ़ू, ह्वेई रुई, चि मंङ, फ़ा शंङ, ची-ये, युन-शू, ई छिंङ, शाओ फ़िन, ह्वाए वन जैसे चीनी विद्वानों ने भी भारत की यात्रा की और यहां रह कर धर्म-दर्शन का गूढ़ अध्ययन किया। संस्कृत पाण्डुलिपियों की नकल अपने साथ चीन ले गए। चीन में भारतीय ग्रन्थों की प्रतिलिपियों का भण्डार संरक्षित है। बहुत से भारतीय विद्वान पुराने इतिहास का शोधन करने के लिए चीन जाते भी रहते हैं। भारत और चीन कभी एक दूसरे के प्रतिद्वंदी नहीं रहे। एक दूसरे के सहायक रहे। चीनी शासकों ने भारतीय विद्वानों को अपने यहां बुलाया और भारत के धर्म-दर्शन की किताबों का चीनी भाषा में अनुवाद करवाया।

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चीन और भारत के लोगों ने बहुत सारी बातें एक दूसरे ली और सीखी हैं। भारत ने चीन से रेशम हासिल किया। रेशम कैसे बनाया जाता है-इसको सीखा। और एक समय ऐसा आया कि ढाका की मलमल (रेशम) दुनिया में सबसे बेहतरीन मलमल मानी जाती थी। उस समय ढाका भारत का हिस्सा था। पोर्सलीन के बर्तन भी भारतीयों को चीन से मिले। चीन ने भारत से कपास, चना उगाना और  भैंस पालन  सीखा। इसके अलावा   सबसे महत्वपूर्ण खगोल शास्त्र यानी   नक्षत्र शास्त्र,  सौर व्यवस्था और नौ ग्रहों की जानकारी चीन ने भारत सीखी।

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कम्युनिस्ट शासन आने से पहले तक के राजा भारत और चीन के आपसी संबंधों की जरूरत और महत्ता की कीमत समझते और उसे सम्मान देते रहे। कम्युनिस्ट शासन के बाद से चीनी सरकारों ने लोगों की जुबान पर ताले लगा दिए। धर्म को जहर की संज्ञा देदी। कम्युनिज्म को ही धर्म बना दिया। 1989 में चीन के कम्युनिस्ट शासन के खिलाफ बड़ा विद्रोह हुआ। जिसका कम्युनिस्ट सरकारों ने निर्दयता से दमन किया। निहत्थे लोगों पर टैंक चला दिए। गोलियों से भून दिए गए। बाहरी दुनिया से स्थानीय लोगों को काट दिया। अखबार-टीवी जैसे समाचार और संचार व्यवस्था पर सरकार ने कब्जा कर लिया। जिसका नतीजा है कि चीन में सरकार कितने ही अत्याचार करे लेकिन एक भी खबर बाहर नहीं आ पाती। उईगर मुसलमानों पर हो रहे अत्याचारों की छिटपुट बातें भी तब सामने आ सकीं जब अमेरिका और ब्रिटेन जैसे तमाम देश कई दशक लगा दिए।

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बौद्ध धर्म शांति और सद्भाव का धर्म है। चीनी शासकों को यह धर्म बहुत भाया। 972 ईसवीं सन में सोंग वंशीय राजाओं के काल में  भारत और चीन के बीच सबसे ज्यादा सांस्कृतिक आदान-प्रदान हुए।  इस समय 44 भारतीय बौद्ध भिक्षु चीन की यात्रा पर आए थे। 982 ईस्वी में चीनी सम्राट ने अनुवाद विभाग में तीन भारतीय विभागाध्यक्षों की नियुक्ति की थी। वहीं वर्ष 966 ईस्वी में 157 चीनी बौद्ध भिक्षु भारत की यात्रा पर आए थे वो गौतम बुद्ध की भूमि के दर्शन करना चाहते थे। चीनी स्रोतों के अनुसार दसवीं शताब्दी से ग्यारहवीं शताब्दी के शुरुआती दिनों में सबसे ज्यादा भारतीय बौद्ध भिक्षु चीन में रहने लगे थे, इसी समय बड़ी संख्या में भारतीय संस्कृत पाण्डुलिपियों को चीन लाया गया। इतनी भारी मात्रा में संस्कृत पाण्डुलिपियों को चीनी भाषा में अनुवादित करने के लिये बड़ी संख्या में भारतीय बौद्ध भिक्षु चीन आने लगे, वर्ष 1021 ईस्वी में 397,615 भारतीय बौद्ध भिक्षु और 61,240 भिक्षुणियां चीन में अनुवाद का काम करने लगे थे।

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मुगलों के आक्रमणों के दौरान चीन से भारत आने वाले विद्वानों और व्यापारियों में कमी आई लेकिन भारतीय धर्म-दर्शन चीन के शासकों का हिस्सा बना रहा। पुराने पन्नों पर रोशनी डालने से पता चलता है कि 1912 में क्विंग राजशाही के अंत के साथ ही चीन में साम्यवादी (नास्तिकों) और राष्ट्रवादियों (बौद्ध धार्मिक) में लड़ाई शुरी हो चुकी थी। यह लड़ाई समय तक गहरी होती गई। 1945 में नास्तिक माओत्से तुंग नया नेता उभरा और लाखों बौद्धों को कत्ल कर दिया गया। 20 साल तक बौद्धों के नरसंहार के बाद माओ ने कम्युनिस्ट शासन का ऐलान कर दिया और चीन का नाम पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाईना रख दिया। नास्तिक कम्युनिस्ट शासन बौद्धों से  अलगावादी और आतंकवादियों की तरह व्यवहार करने लगा। इसका सबसे बड़ा शिकार बना तिब्बत और दलाई लामा।

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आज भी बौद्ध धर्म की जड़ भारत में और डाल-फूल-पत्ते चीन और अन्य देशों में हैं। चीन के लोग कम्युनिस्ट शासन के अत्याचारों के बावजूद बौद्ध धर्म को बचाए हुए हैं। शहरी नास्तिक कम्युनिस्टों को छोड़ दिया जाए तो आज भी चीन में बौद्ध धर्म और भारत के प्रति श्रद्धा और सम्मान का भाव है। यही भाव बताता है कि शी जिनपिंग को अपनी जनता की आवाज सुननी पड़ेगी और एक दिन फिर से भारत-चीन के लोग एक दूसरे नजदीक आ जाएंगे।

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