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अहसान फरामोश हैं शी जिनपिंग, अपना इतिहास पढ़ लें तो भारत के आगे सिर नहीं उठा पाएंगे

अहसान फरामोश हैं शी जिनपिंग, अपना इतिहास पढ़ लें तो भारत के आगे सिर नहीं उठा पाएंगे

चीन के मौजूदा राष्ट्रपति शी जिनपिंग भी माओत्से तुंग की तरह अहसान फरामोश हैं। भारत ने हमेशा चीन को दिया ही है, लिया तो कुछ है नहीं। चीन आज जहां खड़ा है उसकी बुनियाद में भारत का ज्ञान-विज्ञान, धर्म और संस्कृति है। कम्युनिस्टों को छोड़ दिया जाए तो चीन के अधिकाशं लोग भारत को गुरूदेश मानते हैं। भारत की ओर देखने से पहले सिर झुकाकर नमन करते हैं। जब से चीन में कम्युनिस्ट शासन आया है तब से ऐसे लोगों का जीना दूभर हो गया है जो भारत को अपना गुरुदेश मानते हैं। आईए, अतीत के पन्नों को पलटते हैं और जानते हैं कि चीन ने भारत से क्या लिया और क्या सीखा-
<h4>बौद्ध धर्म और कला संस्कृति</h4>
जिस तरह भारत से चीन को बौद्ध धर्म मिला उसी तरह कला और संस्कृति के क्षेत्र में भी चीन को भारत से बहुत कुछ मिला है। प्राचीन काल में चीन और भारत के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान बहुत प्रगाढ़ था, बौद्ध धर्म के चीन में आगमन के बाद चीनी बुद्धिजीवियों के साथ वहां के व्यापारियों और आम जन की उत्सुकता भारत की तरफ़ सहज ही बढ़ने लगी, चीनी लोग अपने भगवान की धरती पर जाकर वहां की आबो-हवा में सांस लेना चाहते थे वहां की मिट्टी की खुशबू महसूस करना चाहते थे और खुद को धन्य महसूस करना चाहते थे।
<h4>भवन निर्माण कला (आर्किटेक्चर)</h4>
स्थापत्य कला में चीन ने भारत की तर्ज पर गुफ़ाओं में मठों और मंदिरों के निर्माण की शुरुआत की। चीन में बनने वाले बौद्ध पगोडा भी भारतीय मंदिरों की स्थापत्य कला से प्रेरणा लेकर बनाए गए थे, जैसे मंदिरों के गोपुरम्, चौकोर आकार की इमारत, गर्भगृह और उसके ऊपर बने विमान (गर्भगृह के ऊपर बहुत ऊंची छत वाला आकार विमान कहलाता है जो बहुत दूर से ही दिखाई देता है)। क्योंकि बौद्ध धर्म भारत से चीन गया था तो सहज ही चीन में जितने बौद्ध मठ, मंदिर, विहार, पगोडा बनाए गए वो सब भारत में बनने वाले गुफा मंदिरों, विहार, मठ और सामान्य हिन्दू मंदिरों जैसे बनाए गए।
<h4>भित्ति चित्र (ग्रेफिटी)</h4>
चीन के कानसू प्रांत का सुप्रसिद्ध शहर तुनह्वांग, जहां से होते हुए श्वान च्वांग (ह्वेन त्सांग) ने भारत की यात्रा की थी, इस शहर में मोगाओ की गुफाएं जो बौद्ध स्थापत्य कला का उदाहरण हैं। यहां पर बनी भगवान बुद्ध और आम लोगों की मूर्तियां जो रोज़मर्रा के जीवन, बाज़ार, कस्बे, शहहर के जीवन को दर्शाती हैं और भित्ती चित्र सभी पर भारत की ज़बरदस्त छाप देखने को मिलती है। फिर चाहे वो मूर्तियों और भित्ती चित्रों के चेहरे, नैन-नक्श हों या फिर शारीरिक भाव भंगिमाएं, ये सब चीन के बाकी हिस्सों में बनने वाली मूर्तियों से बहुत अलग और भारतीय मूर्तिकला के बेहद नज़दीक दिखाई देती हैं। गुफ़ाओं में बनी अधिकतर मूर्तियां और भित्तीचित्र भारतीय जीवन को दिखाते हैं ऐसा संभवत: इसलिये हुआ था क्योंकि इन गुफाओं को बनाने वाले कलाकार और भित्ती चित्र बनाने वाले चित्रकार भारतीय ही थे जिन्होंने लंबी यात्राएं कर तुनह्वांग आकर मूर्तियां और चित्र बनाए। इससे एक नई भारत-चीन स्थापत्य कला का जन्म हुआ। चीनी रिकॉर्ड्स को देखें तो हमें तीन भारतीय पेंटर और मूर्तिकारों के नाम मिलते हैं जो साक्यबुद्ध, बुद्धकीर्ति और कुमारबोधि थे।
<h4>लोक संगीत (फोक म्यूजिक)</h4>
बहुत कम लोग जानते हैं कि शी जिनपिंग की पत्नी पेंग लीयुआन बहुत अच्छी फोक सिंगर हैं। शी अपनी पत्नी से ही भारत के बारे में जान लेते तो एलएसी पर तनाव कभी न होता।  चीनी संगीत पर भी भारतीयता की छाप देखने को मिलती है। वर्ष 581 ईस्वी में भारतीय संगीत दल चीन की यात्रा पर गया था, जापानी स्रोतों के अनुसार जापान ने दो मुख्य संगीत प्रकार चीन से लिये थे जो भारतीय ही थे जिसमें एक बोधिसत्व संगीत था तो दूसरा भैरो, इस संगीत को भारत से चीन ले जाने वाले व्यक्ति का नाम जापानी स्रोतों में बोधि मिलता है।
<h4>नक्षत्र और औषधि विज्ञान ( कांस्टेशनल एंड ट्रेडिशनल मेडिसिन)</h4>
वहीं नक्षत्र विज्ञान, गणित और औधषि विज्ञान के क्षेत्र में भी भारत और भारतीयों का चीन में बोलबाला था। चीन में भारतीय नक्षत्रशास्त्रियों की नियुक्ति वहां पर कैलेंडर बनाने और बड़े आधिकारिक संघों के अध्यक्ष के रूप में नियुक्ति हुई थी। भारतीय नक्षत्रशास्त्र के तीन स्कूल चीन में प्रचलित थे जिनमें गौतम, कश्यप और कुमार प्रमुख थे। भारत में प्रचलित नौ ग्रहों की शाखा को चीन ने अपने देश में ज्यों का त्यों अपनाया था।

वहीं भारतीय औषधि विज्ञान की भारी मात्रा में चीन में मांग थी। वर्ष 545 ईस्वी में चीन में एक भारतीय औषधि विज्ञान की किताब का चीनी भाषा में संपादन किया गया था जो संस्कृत की औषधि और चिकित्साशास्त्र पाण्डुलिपि का सीधा अनुवाद था। इसके अलावा चीन में भारतीय औषधि विज्ञान की चरक संहिता, धनवंतरी और आयुर्वेद का भी चीनी भाषा में अनुवाद और संपादन किया गया था। ये वो दौर था जब भारत और चीन में सामुद्रिक व्यापार अपने चरम पर पहुंच गया था।

यह  तो कुछ भी नहीं। शी जिनपिंग और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के लोग पूरे इतिहास को न सही केवल 'कुमारजीव' की मूर्तियों के नीचे शिलालेख को ध्यान से पढ़ लें तो भारत के आगे सरेंडर कर देंगे।

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