बिहार विधानसभा चुनाव के लिए विपक्षी महागठबंधन में सीट बंटवारे की घोषणा के साथ ही है अब तकरार पूरी तरह खुलकर सामने आ गई है। बिहार की जमीनी हकीकत में कांग्रेस और वामदलों का अब कोई खास वजूद बचा नहीं है। हो सकता है कि पिछले लोकसभा चुनाव में विपक्षी महागठबंधन की हार से राजद नेतृत्व इस नतीजे पर पहुंचा है कि हम, रालोसपा या वीआईपी पार्टी का जनाधार बहुत कमजोर है। लेकिन ऐसा समझना उनकी भूल है। चुनाव के नतीजों से उन्हें इसका अंदाजा साफ तौर पर लग जाएगा।
सीट बंटवारे की मांग को लेकर असंतुष्ट हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (हम) के मुखिया पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी पहले ही जदयू और भाजपा के गठबंधन में शामिल हो गए हैं। इसके बाद राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा ने भी अपना अलग रास्ता खोजने का निश्चय कर लिया।
सबसे बड़ी घटना शनिवार को राष्ट्रीय जनता दल (राजद), कांग्रेस और सहयोगी दलों के सीट बंटवारे के लिये आयोजित प्रेस कांफ्रेंस में हुई जब विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) के मुकेश सहनी ने पीठ में छुरा भोंके जाने का आरोप लगाते हुए विपक्षी महागठबंधन से अलग होने का फैसला किया। मुकेश सहनी ने कहा कि उनको 20 से 25 सीटें देने का आश्वासन दिया गया था लेकिन उनके साथ धोखा किया गया है।
राजद ने खुद के लिए 144 और कांग्रेस के लिए 70 सीटें तय की हैं। इन 144 सीटों में से ही झारखंड मुक्ति मोर्चा और मुकेश सहनी को भी सीटें देने की बात कही गई थी, जिससे नाराज होकर मुकेश सहनी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस छोड़ दी। इसके अलावा वाल्मीकि नगर लोकसभा के लिए भी कांग्रेस ही विपक्षी महागठबंधन की ओर से प्रत्याशी उतारेगी। भाकपा-माले को 19, माकपा को 4 और भाकपा को 6 सीटें दी गई हैं।
जबकि भाकपा माले का असर कुछ नक्सल प्रभावित इलाकों के अलावा अब कहीं बचा नहीं है। लालू यादव अपने समय में वामदलों को ज्यादा महत्व नहीं देते थे और उन्होंने इनके असर को खत्म करने के लिए भी बहुत प्रयास किया था। राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस और वामदलों के आभामंडल से प्रभावित होकर तेजस्वी यादव उनको ज्यादा महत्व दे रहे हैं, जिसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ेगा।.