सीआर दत्ता के नाम से मशहूर, बंग मुक्ति संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले दिग्गज योद्धा चित्तरंजन दत्ता का मंगलवार को फ्लोरिडा में निधन हो गया। वह 93 साल के थे।
बांग्लादेश हिंदू बौद्ध क्रिश्चियन ओइको परिषद (बीएचबीसीयूसी) के महासचिव राणा दासगुप्ता ने आईएएनएस को बताया कि सन् 1971 के लिबरेशन वार में सेक्टर कमांडर रहे दत्ता का निधन अमेरिका के फ्लोरिडा राज्य के एक अस्पताल में हुआ।
परिषद के अध्यक्ष रहे दत्ता के परिवार में उनकी दो बेटियां और एक बेटा हैं। दासगुप्ता ने कहा कि अगस्त की शुरुआत में गिर जाने के चलते उनका एक पैर टूट गया था, जिसके बाद उन्हें फ्लोरिडा के अस्पताल में भर्ती कराया गया। इस दौरान उन्हें लाइफ सपोर्ट पर रखा गया था। सोमवार को अचानक उनकी हालत बिगड़ गई।
दासगुप्ता ने आईएएनएस को बताया, "हम उनके पार्थिव शरीर को बांग्लादेश वापस लाने की कोशिश कर रहे हैं।"
दत्ता 1 जनवरी, 1927 में मेघालय के शिलांग में पैदा हुए थे, जहां उनके पिता एक पुलिस अधिकारी के पद पर तैनात थे। उन दिनों शिलांग ब्रिटिश राज के भारत में अविभाजित असम की राजधानी हुआ करती थी। उन्होंने खुलना के दौलतपुर कॉलेज में पढ़ाई की, क्योंकि चित्तरंजन के पिता उनके कोलकाता जाने के खिलाफ थे।
सन् 1951 में 24 साल की उम्र में दत्ता पाकिस्तानी सेना में शामिल हो गए और जल्द ही उन्हें द्वितीय लेफ्टिनेंट के पद पर नियुक्त किया गया। सन् 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान उन्होंने एक कंपनी कमांडर के रूप में कार्य किया। बाद में उन्होंने सेक्टर 4 कमांडर के रूप में 1971 के लिबरेशन युद्ध में भाग लिया।
आजादी के बाद (1972) दत्ता रंगपुर में ब्रिगेड कमांडर के रूप में बांग्लादेश की सेना में शामिल हो गए। उन्हें उस दौरान एक नई सीमा बल बनाने की जिम्मेदारी दी गई। आगे चलकर वह बांग्लादेश राइफल्स (वर्तमान में बॉर्डर गार्ड बांग्लादेश) के पहले महानिदेशक बने।
15 दिसंबर, 1973 को शेख मुजीब की सरकार ने उन्हें वीर उत्तम पुरस्कार से सम्मानित किया था। सन् 1977 में उन्होंने मुक्तियुद्ध कल्याण ट्रस्ट के अध्यक्ष पद पर रहकर अपनी सेवा प्रदान की और साथ ही 1979 में वह बीआटीसी के अध्यक्ष पद पर रहे।
1984 में सेवानिवृत्त होने के बाद उन्होंने लिबरेशन वार के अन्य प्रमुख सदस्यों के साथ मिलकर सेक्टर कमांडर्स फोरम का गठन किया। जून, 1988 में जब इस्लाम को बांग्लादेश का राज्य धर्म घोषित किया गया, तो दत्ता ने इस फैसले के खिलाफ सक्रिय रूप से चुनाव लड़ा और तर्क दिया कि इसने 1972 के संविधान के चार स्तंभों का उल्लंघन किया है जो हैं-लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद और राष्ट्रवाद।
उन्होंने सरकार को याद दिलाया कि मुक्ति संग्राम को धर्म के आधार पर नहीं, बल्कि बंगाली राष्ट्रवाद के सिद्धांतों पर लड़ा गया था। इस्लाम को राजकीय धर्म घोषित करने के चलते उन्हें यह तर्क दिया था कि बांग्लादेश की कुल आबादी के दस प्रतिशत अल्पसंख्यकों को आगे भी हाशिए पर रखा जाएगा और वह अपने ही देश में खुद को पराए जैसा अनुभव करेंगे।
इसी अन्याय के खिलाफ लड़ने के लिए उन्होंने धार्मिक और जातीय अल्पसंख्यकों के मानवाधिकारों की रक्षा करने के उद्देश्य से बीएचबीसीयूसी का गठन किया। उन्होंने ऐसा दो और अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के नेता बोधिपाल मोहतरो (बौद्ध) और टीडी रोसारियो (ईसाई) के साथ मिलकर किया।.