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कोरोना महामारी के बीच नेपाल में गहराया सियासी संकट!

कोरोना महामारी के बीच नेपाल में गहराया सियासी संकट!

पड़ोसी देश नेपाल में एक बार फिर राजनीतिक संकट और गहराया गया है। रविवार को प्रधानमंत्री के पी ओली के संसद भंग करने की सिफारिश पर राष्ट्रपति राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी के मुहर ने अगले साल होने वाले चुनावों का ऐलान कर दिया है। महज ढ़ाई साल पहले नेपाल में वामपंथी पार्टियों के गठबंधन को दो तिहाई बहुमत को साथ भारी जीत मिली थी। ओली की सीपीएन-यूएमएल और प्रचंड के सीपीएन-माओवादी सेंटर गठबंधन की सरकार को लेकर नेपाल में राजनितिक स्थिरता की उम्मीद की जा रही थी लेकिन जल्द ही उम्मीदों पर पानी फिर गया। अंदरुनी झगड़ों का दौर शुरु हो गया था और बात बढ़ते बढ़ते ओली के इस्ताफे की मांग तक जा पहुंची।  प्रधानमंत्री ओली की अपनी कुर्सी बचाने की लड़ाई थी। उनके खिलाफ अविश्वास मत लाने की तैयारी हो चुकी थी । (इस गठबंधन में ओली और प्रचंड के स्वाभिवान की लड़ाई है। दोनों एक दूसरे पर हावी होना चाह रहे थे। ओली भी बिल्कुल डिक्टेटर की तरह काम कर रहे थे।) नेपाल के deshsanchar.com के संपादक युवराज घिमरे के मुताबिक, पिछले एक साल से, नेपाल के प्रधानमंत्री केपी ओली की अपनी ही पार्टी में उनका भारी विरोध हो रहा था। उन पर एकतरफा अपनी मर्जी से पार्टी और सरकार चलाने के आरोप लग रहे थे।
<h4>एक अध्यादेश बना विवाद का कारण</h4>
कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ़ नेपाल (यूएमएल) और कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ़ नेपाल (माओवादी) के साल 2018 में एकीकरण के बाद केपी ओली को प्रधानमंत्री चुना गया था। सीपीएन (माओवादी) के नेता पुष्प कमल दहल प्रचंड इस गठबंधन के सहअध्यक्ष बने थे। लेकिन, बाद में पार्टी में सत्ता संघर्ष शुरू हो गया। आरोप प्रत्यारोपों के बीच ओली पर इस्तीफा देने की मांग जोर पकड़ रही थी। ताजा विवाद में संवैधानिक परिषद की बैठक न होने पर प्रधानमंत्री केपी ओली ने राष्ट्रपति से संवैधानिक परिषद का एक अध्यादेश जारी करने की सिफारिश की थी। राष्ट्रपति के अध्यादेश जारी करने के बाद से पार्टी में विवाद शुरू हो गया।

पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने राष्ट्रपति से अध्यादेश वापस लेने की अपील की थी। सांसदों ने संसद का विशेष अधिवेशन बुलाने के लिए राष्ट्रपति से अपील की थी। केपी ओली से पीएम पद या पार्टी का अध्यक्ष पद छोड़ने की मांग की जा रही थी। इसके बाद प्रधानमंत्री ओली पर दबाव बढ़ गया। तब ये समझौता हुआ था कि इधर सांसद विशेष अधिवेशन बुलाने का आवेदन वापस लेंगे और उधर केपी ओली अध्यादेश वापस लेंगे लेकिन, ऐसा नहीं हुआ और प्रधानमंत्री के पी ओली ने संसद भंग करने की सिफारिश कर दी। राष्ट्रपति भंडारी ने यह कदम ऐसे में उठाया है जब नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के बीच आंतरिक मतभेद चरम पर हैं। सत्तारुढ़ पार्टी दो खेमों में बंटी हुई है। एक खेमे की कमान 68 वर्षीय ओली के हाथ में है तो दूसरे खेमे का नेतृत्व पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष और पूर्व प्रधानमंत्री पुष्प दहल कमल 'प्रचंड' कर रहे हैं।
<h4>नेपाल में वैकल्पिक सरकार की कोशिश क्यों नहीं हुई</h4>
2018 में लगा था कि नेपाल में स्थिरता आएगी लेकिन यहां लोकतंत्र के संविधान को ताक पर रख कर काम किया जा रहा है।) जानकारों के मुताबिक राष्ट्रपति संविधान की रक्षक हैं लेकिन नेपाल में सत्ता की लड़ाई में उनकी भूमिका निष्पक्ष नहीं रही। संविधान विशेषज्ञों के मुताबिक नेपाल के नए संविधान में सदन भंग करने को लेकर कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है। संसद भंग करने का फैसला असंवैधानिक है। बहुमत हासिल करने के बाद प्रधानमंत्री द्वारा संसद भंग करने का प्रावधान नहीं है। जबतक संसद द्वारा सरकार गठन की संभावना है तब तक सदन को भंग नहीं करना चाहिए।

यही वजह है कि प्रधानमंत्री ओली के ताजा चुनाव कराने के फैसले का जमकर विरोध हो रहा है। रविवार से ही राजनीतिक पार्टियों के साथ साथ लोग भी सड़कों पर विरोध कर रहे हैं। इन सबके बीच ऐसे लोग भी हैं जिनका मानना है कि नेपाल में गणतंत्र सफल नहीं रहा है। इससे बेहतर तो राजतंत्र है , कम से कम देश में एकता तो बनी रहती है। (गणतंत्र का विकल्प, राजशाही नहीं हो सकता। हम मानते हैं कि इस संविधान में कई त्रुटियां है जिनका हम विरोध करते रहे हैं लेकिन गणतंत्र की स्थिरता के लिए हम इसका समर्थन करते हैं। लेकिन यह भी सच है कि ओली का संसद भंग करने का फैसला असंवैधानिक है, एक बहुमत वाली पार्टी, एक दूसरा प्रधानमंत्री क्या नहीं चुन सकती?) नेपाल के पूर्व मंत्री और मधेसी नेता शरद सिंह भंडारी के मुताबिक संसद तभी बंग हो सकता है जब कोई दूसरा प्रधानमंत्री चुने जाने का कोई रास्ता नहीं बचा हो। लेकिन इस गठबंधन के पास तो पूरा बहुमत है। यह पूछे जाने पर इसका भारत और नेपाल के रिश्तों पर क्या असर पड़ सकता है, भंडारी का कहना है भारत के साथ रिश्ता तो बेटी और रोटी का है। उतार चढ़ाव हो सकते हैं लेकिन खत्म नहीं हो सकते। भारत को भी नेपाल के लोगों की भावनाओं के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए।
<h4>ओली के फैसले से चीन को लगा धक्का</h4>
ओली के इस फैसले से सबसे बड़ा धक्का लगा है चीन को जो पिछले कई महीनों से गठबंधन में गहराए विवाद को सुलझाने की कोशिश में लगा था। चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की महत्वाकांक्षी बेल्ट एंड रोड परियोजना के तहत चीन ने नेपाल में भारी निवेश किया है, नेपाल को ऋण दिया है। चीन को लगा था कि नेपाल की कम्युनिस्ट सरकार स्थिर रहेगी और चीन के प्रभाव में रहेगी। ऐसे में राजनीतिक अस्थिरता का वातावरण उसके लिए अच्छी खबर नहीं है। चीन की नेपाल स्थित राजदूत होउ यांकी ने, गठबंधन के बड़े नेताओं से कई बार मिल कर उन्हें बीजिंग की ओर से संदेश देते हुए एकजुट रहने के लिए दबाव डाला था। पिछले महीने भी यांकी और ओली की दो घंटे की मुलाकात सुर्खियों में थी। (नेपाल के लिए चीन और भारत बिजनेस पार्टनर हैं। चीन की चिंता स्वाभाविक है। और यह सही है कि कम्युनिस्ट सरकार चीन के करीब रही है) युवराज घिमरे के मुताबिक इसका मतलब नहीं है कि भारत के साथ संबध अच्छे नहीं सकते। युवराज के मुताबिक नेपाल में फिलहाल प्रदर्शनों का दौर चलेगा। संसद भंग का मामला सुप्रीम कोर्ट में भी पहुंचेगा। अगर सुप्रीम कोर्ट चुनाव के फैसले को असंवैधानिक करार देता है तो फिर घमासान मचेगा लेकिन अगर चुनाव के फैसले को हरी झंडी देता है तो अगले चार महीनों में नए राजनीतिक समीकरण बनेंगे, राजशाही के पक्ष में बहस होगी। कोरोना महामारी से जूझ रहे नेपाल में यह उथल पुथल और संकट और अस्थिरता का माहौल नेपाल के लोगों के लिए ठीक नहीं।.