एक ही धर्म होने के कारण सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच हमेशा अच्छे संबंध रहे हैं और सऊदी अरब ने अपनी वहाबी विचारधारा को फैलाने के लिए हमेशा पाकिस्तान को एक सुविधाजनक स्थान पाया है। उसने धार्मिक शिक्षा, मस्जिदों के निर्माणऔर मदरसों की पढ़ाई को बढ़ाने के लिए अरबों डॉलर खर्च किए हैं। इसके बदले में कई अपदस्थ पाकिस्तानी राजनेताओं ने सऊदी अरब में राजनीतिक संरक्षण और आरामदायक पुनर्वास शरण का आनंद प्राप्त किया। राजनीतिक हितों से इतर सऊदी अरब ने तेल के लिए कर्ज देने की इच्छा दिखाई और पाकिस्तान को कई बार आर्थिक संकट से उबारा।
अब सऊदी अरब निश्चित रूप से अपने खिलाफ दिए गए पाकिस्तान के भड़काऊ बयानों से भड़का हुआ है। रियाद अब पाकिस्तान को 2018 में 6 अरब डॉलर के तय पैकेज का 1 अरब डॉलर भुगतान करने के लिए मजबूर कर रहा है। महत्वपूर्ण रूप से सऊदी अरब ने अचानक और निर्णायक फैसला लेकर तेल कर्ज सहित कई सौदे को रोक दिया। इसने स्वाभाविक रूप से द्विपक्षीय संबंधों को तनावपूर्ण बना दिया है, जिनमें कम समय के भीतर तो सुधार की कोई गुंजाइश दिखाई नहीं देती है।
सऊदी अरब की नाजुक नस को दबाकर इस तरह की कठोर हरकत करना पाकिस्तान की छिछली कूटनीति को उजागर करता है। अनावश्यक रूप से अवांछनीय अवसरों पर मुखर हो जाने वाले पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने पिछले हफ्ते कहा था कि सऊदी अरब को कश्मीर पर चर्चा करने के लिए सऊदी नेतृत्व वाले संगठन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन (OIC) के विदेश मंत्रियों की परिषद की बैठक बुलानी चाहिए। उनके बयान की तल्खी ने स्वाभाविक तौर पर सऊदी अरब के साथ संबंधों में कड़वाहट घोल दी है।
कुरैशी ने इस मुद्दे को आगे बढ़ाते हुए कहा कि यदि सऊदी अरब पाकिस्तान की नीति के साथ चलने में विफल रहा, तो आगे ओआईसी के दायरे से बाहर कश्मीर समस्या के समाधान की कोशिश की जाएगी। यह आग को भड़काने के लिए काफी था, क्योंकि उसने कश्मीर पर पाकिस्तान के प्रति सहानुभूति रखने वाले मुस्लिम देशों से समर्थन हासिल होने का संकेत दिया था। उन्होंने कश्मीर की संवेदनशीलता को चतुराई से अतिरंजित करने का भी प्रयास किया, जिसे सऊदी शासकों ने मानने से इनकार कर दिया।
पाकिस्तान में घरेलू राजनीतिक क्षेत्र भी सऊदी अरब के प्रति विचित्र पाकिस्तानी रुख से परेशान है, जिसे मूर्खतापूर्ण, अवास्तविक और आत्मघाती बताया जा रहा है। प्रधान विपक्षी दल, पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज़ (पीएमएल-एन) ने अपने पुराने सहयोगी सऊदी अरब के खिलाफ इस तरह की अपरिपक्व पाकिस्तानी स्थिति की खुले तौर पर निंदा की। पाकिस्तान में मीडिया भी अच्छी तरह से स्थापित संबंधों को कमजोर करने के लिए इमरान-कुरैशी के गठजोड़ की आलोचना कर रहा है।
इस बीच पाकिस्तानी पर्यवेक्षकों का मानना है कि पिछले साल से अधिक स्पष्ट रूप से आर्थिक पैकेजों के लिए सऊदी अरब को लुभाने की कोशिश पाकिस्तान कर रहा है। सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान की (एमबीएस) की 2018 में हुई इस्लामाबाद यात्रा में ऋण और तेल ऋण का आश्वासन मिला था। पाकिस्तान की आर्थिक चिंता को दूर करने के लिए प्रधानमंत्री इमरान खान ने सितंबर 2019 में जेद्दा में आर्थिक आश्वासनों को पूरा करने के लिए एमबीएस से मुलाकात की। लेकिन हाल ही में कुरैशी की वजह से हुए नुकसान के कारण पाकिस्तान के आर्थिक हालत को दुरुस्त करने के वाले तमाम प्रयास ध्वस्त हो गये हैं।
चीजों को सही परिप्रेक्ष्य में रखने के लिए यह दोहराना जरूरी लगता है कि इस साल के शुरू में कुआलालंपुर इस्लामिक शिखर सम्मेलन में हिस्सेदारी को लेकर पाकिस्तान के रुख ने सऊदी अरब को नाराज कर दिया था। क्योंकि 57 सदस्यीय ओआईसी के निर्विवाद नेता होने के नाते वह वैश्विक इस्लामी बिरादरी पर अपने प्रभुत्व को सबसे ऊंचे स्तर पर रखना चाहता है। सऊदी अरब ने कुआलालंपुर शिखर सम्मेलन में भाग लेने से रोकने के लिए पाकिस्तान को एक कठोर संदेश दिया था।
एक दूसरा अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी विश्व इस्लामी मामलों में एक अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए निरंतर कदम बढ़ा रहा है और वह है तुर्की का राष्ट्रपति एर्दोगन। एर्दोगन तुर्की में एक संशोधित ओटोमन प्रकार के शासन के अपने एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं, उन्हें पाकिस्तान के बहुत करीब माना जाता है। हालांकि, सऊदी अरब किसी भी परिस्थिति में तुर्की को विश्व इस्लामी जगत का नेतृत्व करने की अनुमति नहीं देगा। भले ही एर्दोगन ने इस्तांबुल में हागिया सोफिया को एक मस्जिद में बदलकर इस्लामी दुनिया में अपना कद पहले से अधिक बढ़ा लिया है। सऊदी अरब ने कश्मीर या अन्य मुद्दों पर तुर्की के पाकिस्तान में घुसपैठ करने के प्रयासों को रणनीतिक रूप से रोक दिया।
सऊदी अरब पाकिस्तान पर अपना शिकंजा कसता जा रहा है, क्योंकि वह पूरी तरह से जानता है कि पाकिस्तान को कई क्षेत्रों में सऊदी मदद के बिना जीवित रहना मुश्किल होगा। पाकिस्तान के 87 % प्रवासी श्रमिक खस्ताहाल पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था के लिए सऊदी अरब से भारी पैसा और राजस्व लाते हैं। यह एक ऐसा उपाय है, जिसका रियाद हमेशा पाकिस्तान पर उपयोग करता है।
लगता है कि भारत ने अपने पत्ते अच्छे से खेले हैं। कूटनीतिक रूप से उसने कश्मीर के संवेदनशील मुद्दे पर रियाद पर हावी होने के पाकिस्तान के हर कदम को रोक दिया। सऊदी ने भी भारतीय उद्यमों में बड़े पैमाने पर निवेश किया है। वे अपने निवेश को बढ़ाने के बारे में भी सोच रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने सऊदी अरब की यात्रा की और भारतीय सुरक्षा प्रतिष्ठानों ने सऊदी शासन के साथ सफल गठबंधन सुनिश्चित किया। जिससे रियाद निश्चित रूप से भारत का पक्ष ले और पाकिस्तान की ओर नहीं झुके। साफ है कि धर्म के कार्ड ने कोई खास भूमिका नहीं निभाई है। केवल वास्तविक और आर्थिक हित उपयोगी हैं। और यह एक सफलता दिलाने वाली विशेषता है।
सिंगापुर स्थित राजरत्नम स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज के वरिष्ठ फेलो जेम्स डोरसे के अनुसार भारत और सऊदी अरब के बीच बढ़ते संबंधों के कारण, सऊदी सरकार पाकिस्तान से खुद को दूर कर रही है। उन्होंने कहा कि सऊदी अरब को पाकिस्तान से निपटने में भी सतर्कता बरतनी चाहिए, खासतौर पर तब जब ईरान पाकिस्तान के करीब आ रहा है, जो भौगोलिक और राजनीतिक रूप से चीन के साथ है। इस पहलू को संभवतः नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। इसके अलावा, सऊदी अरब में एक बड़ी शिया आबादी है जो राजनीतिक मार्गदर्शन के लिए तेहरान के नेतृत्व का अनुसरण करती है। यमन में हौथी विद्रोहियों (सभी शियाओं) के खिलाफ सऊदी सैन्य हमले के कारण ईरान और सऊदी अरब के बीच तलवारें भी खींची हुई हैं। यह एक मुश्किल स्थिति है जो शायद अधिक संतुलित दृष्टिकोण को तैयार कर रही है।
भारतीय दृष्टिकोण से इस्लामाबाद से रियाद की दूरी का मतलब यह भी हो सकता है कि चीन पाकिस्तान के और अधिक करीब आकर खाली जगह को भर देगा। जो संभवतः भारतीय सुरक्षा हितों के लिए हानिकारक हो सकता है। सऊदी अरब को नाराज करने में अहम भूमिका निभाने वाले पाकिस्तानी नेतृत्व के आवेगपूर्ण और जल्दबाजी में लिए गए निर्णय के कारण पाकिस्तान सेना के दबाव में, विशेष रूप से आईएसआई के दबाव में अब सेनाध्यक्ष जनरल बाजवा को गतिरोध समाप्त करने के लिए रियाद का दौरा करने के लिए भेजने का फैसला किया गया है। यह देखना दिलचस्प है कि आगे चीजें कैसे सामने आएंगी, लेकिन तब तक कूटनीति की अपरिपक्व कार्रवाई के द्वारा जो कुछ बोया गया है, पाकिस्तान को उसे काटना होगा।
इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय में दूरदर्शिता और कूटनीतिक का अभाव में पूरी तरह से बेनकाब हो गया है। विदेश मंत्रालय या प्रधानमंत्री कार्यालय सबसे खराब बौद्धिक दिवालियापन से ग्रस्त हैं। कश्मीर के नाम पर विदेश नीति को भुनाने के लिए इमरान खान ने देश के अपने भरोसेमंद पूर्ववर्ती सहयोगियों के साथ संबंधों को नष्ट कर दिया।
रियाद के लिए बजवा का आगामी मिशन यह भी संकेत देता है कि इस्लामाबाद विदेशी कार्यालय अक्षम और नकारा है। कार्यात्मक रूप से इसे डीप स्टेट द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया गया है। क्या इसका मतलब यह होगा कि सेना निकट भविष्य में अशांत स्थिति में अपने लाभ के लिए अधिक बड़ी भूमिका के लिए महत्वाकांक्षी हो रही है?
<strong>(लेखक एक सुरक्षा विश्लेषक और मॉरीशस के प्रधानमंत्री के पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।)</strong>.