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एर्दोवान का खिलाफत का सपना, हकीकत कम फसाना ज्यादा 

जब कमाल अतातुर्क ने 1924 में तुर्की में सेकुलरिज्म शासन की नींव डाली तो उन्होंने नकाब, स्कार्फ, हिजाब और तुर्की टोपी को प्रतिबंधित कर दिया। यहां तक कि उन्होंने अजान को भी अरबी भाषा में करने पर प्रतिबंध लगा दिया और उसे तुर्की भाषा में किया जाना लगा। तुर्की में धर्मनिरपेक्षता की नीति करीब 80 साल तक बिना किसी विवाद के चलती रही। कमाल अतातुर्क का मानना था कि तुर्की यूरोप का हिस्सा है और उसे उन्हीं के समान व्यवहार करना चाहिए। आज भी तुर्की के 90% लोग यूरोपीय संघ में शामिल होने के पक्षधर हैं।

इसके विपरीत वर्तमान राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोवान का कहना है कि एक व्यक्ति (कमाल अतातुर्क) ने हमारी पहचान और संस्कृति को रातों-रात बदल दिया। वह कमाल अतातुर्क की नीतियों के कड़े विरोधी हैं। कमाल अतातुर्क की नीतियों पर चलने वाली रिपब्लिकन पीपुल्स पार्टी को हराकर जब  तैय्यब एर्दोवान की जस्टिस एंड डेवलपमेंट पार्टी (एकेपी) 2002 में सत्ता में आई तो उन्होंने भी कमाल अतातुर्क की नीतियों को जारी रखा।

अपने दूसरे कार्यकाल में एर्दोवान ने कमाल अतातुर्क की नीतियों में धीरे-धीरे बदलाव शुरू कर दिया। अपने तीसरे और चौथे शासनकाल में तो उन्होंने कमाल अतातुर्क की नीतियों को बदलने की रफ्तार बहुत तेज कर दी। तुर्की में इस समय कमालिस्ट और इस्लामिस्ट के बीच एकदम साफ विभाजन हो चुका है।

हालांकि तुर्की ने यूरोपीय संघ का सदस्य बनने के लिए 1987 में आवेदन किया था। सदस्य बनने के उसके आवेदन को स्वीकार भी कर लिया गया था, लेकिन आज तक उसे यूरोपीय यूनियन का सदस्य नहीं बनाया गया। इसका एक बड़ा कारण एर्दोवान के शासन में बढ़ता भ्रष्टाचार, धार्मिक कट्टरता और मानवाधिकारों का दमन है। इससे तुर्की की जनता में बहुत नाराजगी और मायूसी है। अब तो यूरोपीय संघ अध्यक्ष ने भी साफ कह दिया है कि तुर्की को यूरोपीय संघ में शामिल करने का विचार समय की बर्बादी करने के अलावा और कुछ नहीं है।

यूरोप से निराश होने के बाद एर्दोवान ने अपनी जनता को एक नया ख्वाब दिखाना शुरू कर दिया है। यह ख्वाब है, मुस्लिम जगत में तुर्की को खिलाफत साम्राज्य के बराबर या वैसा ही दर्जा दिलाने का। एर्दोवान का दावा है कि तुर्की मुस्लिम समुदाय का लीडर बनेगा सऊदी अरब की नेतागिरी को चुनौती दी जाएगी। तुर्की चाहता है कि ईरान, पाकिस्तान मलेशिया जैसे बड़े इस्लामी राष्ट्र उसके साथ आएं और सऊदी अरब के नेतृत्व को चुनौती दें। इसके लिए उसने मध्य एशिया के देशों ताजिकिस्तान, कजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान उज्बेकिस्तान और अफगानिस्तान में अपना असर बढ़ाना शुरू कर दिया है।

इसके साथ ही एर्दोवान ने अपने देश के लोगों को ग्रेटर तुर्की का ख्वाब दिखाना शुरू किया है। यह ख्वाब ऐसे समय में दिखाया जा रहा है जब तुर्की की आर्थिक स्थिति खराब है और उसकी मुद्रा लीरा की कीमत बहुत नीचे गिर रही है। लेकिन स्थानीय जनता को किसी भी तरह संतुष्ट करना है और इसके लिए नये-नये सब्ज़बाग दिखाये जा रहे हैं।

प्रधानमंत्री बनने से पहले एर्दोवान इस्तांबुल के मेयर थे और उनका कहना था कि जिसका इस्तांबुल पर कब्जा होगा, वह तुर्की पर राज करेगा। इस हिसाब से देखा जाए तो 2019 के स्थानीय चुनाव में तुर्की के 3 सबसे बड़े शहरों- इस्तांबुल, अंकारा और इज़मीर पर विपक्षी रिपब्लिकन पीपुल्स पार्टी का कब्जा हो चुका है। इस तरह तो 2023 के चुनाव में एर्दोवान की कुर्सी खतरे में दिख रही है। अपनी कुर्सी और सत्ता को को बचाने के लिये एर्दोवान हर वह काम कर रहे हैं, जिससे उन्हें जरा भी जन-समर्थन मिलने की उम्मीद है। इसके कारण राष्ट्रवाद, खिलाफत और धार्मिक कट्टरता पर जोर दिया जा रहा है।

जो भी लोग एर्दोवान की कट्टर धार्मिक नीतियों का विरोध कर रहे हैं, उनके साथ सरकार कड़ाई से पेश आ रही है। यूरोपीय यूनियन ने साफ कहा है कि इस समय सबसे ज्यादा पत्रकार तुर्की की जेलों में बंद हैं। ऐसा नहीं है कि एर्दोवान की वर्तमान सत्ता को कोई चुनौती नहीं मिल रही है। एर्दोवान के खिलाफ 2013 में बड़ा नागरिक आंदोलन हुआ था और 15 जुलाई 2016 को तो सैनिक विद्रोह भी हुआ। इस विद्रोह के दमन के बाद एर्दोवान ने तुर्की में संसदीय प्रणाली की सरकार को बदलकर राष्ट्रपति प्रणाली बना दिया और खुद प्रधानमंत्री से राष्ट्रपति बन गए।

उनका आरोप है कि सैनिक विद्रोह के पीछे विपक्षी नेता फतेहउल्लाह गुलेन का हाथ है, जिनको अमेरिका का समर्थन हासिल है। सैनिक विद्रोह के बाद तुर्की में 80 हजार लोगों को जेल में डाला गया और अनगिनत लोगों को सरकारी नौकरी से निकाल दिया गया। जिसमें सेना, न्यायपालिका से लेकर विश्वविद्यालयों में वाइस चांसलर भी शामिल थे, जिनको तुर्की में रेक्टर कहा जाता है। कुल 16 रेक्टर को उनके पद से हटाया गया।

तुर्की के मामलों के जानकार <strong>दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में तुर्की भाषा के असिस्टेंट प्रोफेसर गौस मशकूर खान</strong> का मानना है कि अगर अमेरिका ने तुर्की पर दबाव बढ़ाया तो आने वाले समय में रूस और चीन के साथ जाने के लिए एर्दोवान तुर्की को नाटो गठबंधन से भी बाहर निकल सकते हैं।

हालांकि एर्दोवान शुरू में भारत के खिलाफ नहीं थे और भारत के साथ संबंध बढ़ाने का कई बार प्रयास किया। एर्दोवान 2008 में प्रधानमंत्री की हैसियत से नई दिल्ली आए थे। 2010 में तुर्की के तत्कालीन राष्ट्रपति अब्दुल्ला गुल भारत आए थे। 2017 में राष्ट्रपति की हैसियत से एर्दोवान भारत आए और उस समय उनका पूरा फोकस व्यापार संबंधों पर था। भारत और तुर्की के बीच व्यापार करीब 8.5 अरब डॉलर का है। इसमें भारत का व्यापार लाभ 5.5 अरब डॉलर का है। इस तरह देखा जाए तो भारत व्यापार के मामले में लाभ की स्थिति में है। इसके बावजूद एर्दोवान कश्मीर मसले पर पाकिस्तान का साथ देते हैं। एर्दोवान अपनी निजी महत्वाकांक्षा के कारण कश्मीर मामले पर पाकिस्तान का साथ दे रहे हैं।

पाकिस्तान में तुर्की का असर बहुत तेजी से बढ़ रहा है और वहां एर्दोवान की लोकप्रियता भी है। तुर्की का एक टीवी सीरियल दिरलिस एर्तरुल तो पाकिस्तान में ब्लॉकबस्टर सिद्ध हुआ है। इस सीरियल में काम करने वाला एक कलाकार जब पाकिस्तान आया तो उसके स्वागत के लिए हुजूम उमड़ पड़ा। खुद प्रधानमंत्री इमरान खान ने टीवी एक्टर से मुलाकात की और लोगों से सीरियल को देखने की अपील की।

इस बारे में प्रोफेसर खान का कहना है कि तुर्की और पाकिस्तान का ‘लोगों से लोगों के बीच संबंध’ बहुत अच्छा है और वहां अक्सर द्विपक्षीय सेमिनार/कान्फ्रेंस वगैरह होते रहते हैं। जबकि भारत और तुर्की के बीच ‘लोगों का लोगों से संबंध’ उतना बेहतर नहीं है और आवाजाही भी कम है। इन सबके बावजूद पाकिस्तान और तुर्की का व्यापार केवल 1अरब डॉलर सालाना है। इसके बजाय पाकिस्तान और तुर्की के बीच सैन्य क्षेत्र में सहयोग बहुत बढ़ रहा है। हाल ही में पाकिस्तान में तुर्की सैन्य क्षेत्र में निवेश करने जा रहा है।

प्रोफेसर खान का कहना है कि एर्दोवान की तमाम कट्टर नीतियों के बावजूद तुर्की का 90 फीसद अवाम हिंदुस्तान और हिंदुस्तानियों को पसंद करता है। वहां के लोग बॉलीवुड के दीवाने हैं और अगर इसका सही तरीके से उपयोग किया जाए तो तुर्की में भारत की सॉफ्ट पॉवर और बढ़ सकती है। अगर भारत चाहे तो सिनेमा, योग और डांस से तुर्की के लोगों में अपना असर और बढ़ा सकता है। तुर्की चाहता था कि भारत से हर साल तक 10 लाख पर्यटक वहां पहुंचे जबकि पिछले साल केवल 2.30 लाख पर्यटक ही तुर्की गए। इस मामले में भारतीय राजनयिक महकमा भी थोड़ा कम सक्रिय है।.