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इस्लामिक कट्टरपंथ की गिरफ्त में यूरोप

इस्लामिक कट्टरपंथ की गिरफ्त में यूरोप

सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान के नाम पर एक संस्था है मिस्क। मिस्क की ओर से 2017 में रियाद में एक सोशल मीडिया फोरम ट्वीप्स का आयोजन किया गया था। इसमें आमंत्रित वक्ताओं में एक वक्ता शेख अब्दुल्ला बिन जायेद भी थे। शेख अब्दुल्ला बिन जायेद ने यहां अपने संबोधन में एक ऐसी बात कही थी कि जो यूरोप के लिए भविष्य की लकीर थी।

शेख अब्दुल्ला ने कहा था कि "हम जर्मनी, स्पेन, इटली और लंदन से आनेवाली रेप, हत्या, लूट की आवाजें सुन रहे हैं। वह दिन आयेगा जब यूरोप में बहुत ज्यादा आतंकवादी और रेडिकल्स पैदा होंगे। ऐसा इसलिए होगा क्योंकि यूरोप के लोग समय रहते नीति नहीं बना पायेंगे और अपने आप को राजनीतिक रूप से सही साबित करने में लगे रह जाएंगे।"

अब्दुल्ला ने आगे कहा था कि "यहां से हम उन देशों के नाम ले सकते हैं जो समय रहते इसे रोकने का उपाय नहीं करना चाहते। यूरोप के यही देश भविष्य में आतंकवादियों के जन्मदाता बनेंगे।" अब्दुल्ला की इस बात पर रियाद के उस हाल में काफी देर तक तालियां बजती रहीं।

अब्दुल्ला जिस समय ये बात कह रहे थे, यह वह समय था जब सीरिया, इराक और अफगानिस्तान, कोसोवो, अल्बानिया और पाकिस्तान समेत 10 मुस्लिम देशों से 10 लाख से अधिक मुस्लिम शरणार्थी यूरोप के अलग-अलग देशों में शरण ले चुके थे। इनमें सबसे अधिक 4 लाख 76 हजार शरणार्थियों ने जर्मनी में शरण मांगी।

हालांकि यूरोपीय यूनियन का दावा इससे अलग है। उसका कहना है कि यूरोप के अलग-अलग देशों में 2014-15 में करीब 15 लाख शरणार्थी आये, जिनमें से अकेले जर्मनी में 10 लाख के आसपास लोग पहुंचे क्योंकि शरणार्थियों को लेकर जर्मनी का उदार नजरिया है। यूरोपीय यूनियन का ये दावा मान भी लिया जाए तो बड़ी आबादी होने के कारण जर्मनी को उतना फर्क नहीं पड़ा जितना हंगरी और स्वीडेन जैसे छोटे देशों को पड़ा है। हंगरी ओर स्वीडेन में प्रति लाख आबादी पर आज क्रमश: 1800 और 1700 शरणार्थियों का आंकड़ा पहुंच गया है। राष्ट्रीय औसत देखने पर भले ही ये आंकड़ा कम लगे लेकिन इन शरणार्थियों ने अपने-अपने पॉकेट बना लिये हैं।

शुक्रवार को स्वीडेन के जिस माल्मो शहर में ताजा उपद्रव हुआ है उस शहर में ही मुस्लिम शरणार्थियों के कारण जनसंख्या असंतुलन दर्ज किया गया है। माल्मो स्वीडेन का तीसरा बड़ा औद्योगिक शहर है। माल्मो नगर निगम के आंकड़ों की माने तो साल 2018 तक माल्मो की जनसंख्या लगभग 8 लाख तक हो गई, जिसमे केवल 3.5 लाख लोग ही रजिस्टर्ड हैं। यानी इस शहर में बाहरियों की संख्या 55 फीसदी तक हो सकती है, जिसमें विदेशी और प्रवासी शरणार्थी ही ज्यादा हैं।

आमतौर पर किसी शहर में अपराधों में भागदारी करने वाले शरणार्थियों की संख्या लगभग नगण्य होती है.. लेकिन इस शहर में शरणार्थियों की अपराधों की भागीदारी लगभग 46 से 50 फीसदी तक है। सोचने वाली बात है कि दशक भर में यहां की जनसंख्या दोगुनी हो गई और अपराध में इनकी भागीदारी लगभग इनके आँकड़ो के बराबर हो गई। जबकि दुनिया के कई शहरों में यह मात्र केवल 1 से 5 फीसद तक होती है।

यहां शरणार्थियों के आने के बाद असमानता और अवसर की उपलब्धता को लेकर भी समस्या पैदा हुई और दक्षिणपंथी संगठनों के मूल विरोध का कारण भी यही था। क्योंकि ज्यादातर शरणार्थी या तो अनपढ़ थे या उनमें ऐसी कोई स्किल नहीं थी जो उस शहर में खुद कोई कार्य करके जीविका कमा सकें। इसलिए ये सभी लोग केवल सरकार से शरणार्थी के तौर पर मिलने वाली सहायता पर ही जीवन बसर कर रहे हैं।

स्थानीय लोगों के असन्तोष का प्रमुख कारण भी यही है कि सरकार तो खुद के नागरिकों को कोई व्यवस्था सही से उपलब्ध नहीं करवा पा रही है लेकिन उसने वहां की मूल जनसंख्या से भी ज्यादा शरणार्थियों का ठेका अनायास ले लिया है। लोग अपराधों में भी इनकी बढ़ती संख्या से चिंतित हैं और बिगड़ते समाजिक ताने-बाने को लेकर मुखर हो रहे हैं। पीड़ित के प्रति उनकी उदारता उन्हें ही संकट में डाल रही है।

इसी मुद्दे को वहां की दक्षिणपंथी पार्टी के रैसम्स पालुदन ने हाथों-हाथ लिया और जबरदस्त विरोध किया। उन्होंने साल 2017 में स्ट्रेम कर्स पार्टी की स्थापना की। उन्होंने शहर के साथ देश में बढ़े अपराधों मसलन-बलात्कार, हत्या और चोरी जैसे मुद्दों को उठाया और सरकार पर तीखा प्रहार किया। पालुदन को वहां उनके भाषणों और हरकतों की वजह से इस्लाम विरोधी माना जाता है और साल 2019 के एक ऐसे ही मामले में उन्हें 2 साल के लिए देश से बाहर निकाल दिया गया था। इस बारे में नेता पालुदन का कहना है कि उन्हें 2 साल के लिए देश-निकाला दिया गया है, लेकिन हत्यारों और बलात्कारियों का स्वागत किया जाता है।

शुक्रवार को जो हिंसा हुई उसकी शुरुआत करीब 6 दिन पहले हुई, जब स्वीडन के स्कॉटहोम के सोलना इलाके में एक कब्रिस्तान में दो किशोर लड़कों के साथ बलात्कार किया गया, उन्हें यातनाएँ दी गई और फिर जिंदा दफना दिया गया। इसके कारण माहौल खराब हुआ जिसकी वजह से कुरान की प्रतियां जलाने की खबरें आई और यह दंगा हुआ। जहां पुलिस को भी मारा-पीटा गया और संपत्तियों को आग लगा दी गई।

यूरोप के अन्य देश भी इसी तरह की समस्याओं को झेल रहे हैं, लेकिन कोई भी ये स्वीकार नहीं करना चाहता कि उनकी उदारता ही उनके लिए संकट बन गई है। उन्होंने परिणाम की परवाह किए बिना इन लोगों को मुफ्त घर, मुफ्त भोजन, मुफ्त स्कूल, स्वास्थ्य सुविधाएं और भत्ते दिए। लेकिन बदले में वहां के करदाताओं और उनके बच्चों को मज़हबी कट्टरता, हिंसा और यौन अपराधों की सौगात मिली। पूरे यूरोप में मामूली बातों पर ये प्रवासी दंगे कर रहे हैं। क़त्ल हो रहे हैं। बार-बार कर्फ्यू लग रहा है। स्वीडिश लोग अपने पड़ोस-सड़कों-बाजारों में हैंड ग्रेनेड और क्लाशनिकोव लिए जिहादियों को देखकर हतप्रभ हैं। इसलिए प्रतिरोध के स्वर उठ रहे हैं। लोगों में आक्रोश है, और वो मांग कर रहे हैं कि स्वीडन को स्वीडिश लोगों के लिए ही रहना चाहिए।

यहां एक बात समझना महत्वपूर्ण है कि यूरोप के अधिकांश देशों सहित स्वीडिश लोगों के लिए भी ईसाई आस्था या अन्य कोई मज़हबी आस्था जीवन का केंद्र नहीं है। रिलीजन वहां बड़ा व्यक्तिगत मामला है। वहां खुलकर ईसाइयत की रूढ़ियों की आलोचना होती है। इसलिए स्वाभाविक ही लोग इस्लामी विचार और कुरान व हदीस पर सवाल उठा रहे हैं। वो कुरान की ‘काफिर’ और ‘जिहाद’ की आयतों पर स्पष्टीकरण मांग रहे हैं। यहां एक बात और समझने की जरूरत है कि यूरोपीय समाज के विरोध करने के अपने तरीके हैं। वो ईसाई तौर-तरीकों का भी इसी तरह विरोध करते आए हैं। लेकिन इस घटना को वहां के शरणार्थियों ने आग के खेल का अवसर बना लिया और एक बार फिर सड़कों पर हिंसा का नंगा नाच शुरू हो गया।

स्वीडन के राजनीतिक विज्ञान के प्राध्यापक टॉमी मोलर चेतावनी दे रहे हैं कि इन “शरणार्थियों” के इस रवैये और तौर-तरीकों के कारण स्वीडन की सामाजिक व्यवस्था जल्दी ही ढह जाएगी, क्योंकि मिस्र, सीरिया, लेबनान, मोरक्को आदि देशों से आए ये प्रवासी स्वीडन के समाज के हिसाब से ढलना नहीं चाहते। स्वीडन के अस्पतालों में हुए सर्वेक्षण के अनुसार 50 प्रतिशत नर्स-चिकित्सक इन शरणार्थियों के आक्रामक और हिंसक व्यवहार को भुगत चुके हैं। नर्सें आत्मरक्षा का प्रशिक्षण लेने को मजबूर हुई हैं।

स्वीडेन में बलात्कार के मामले अप्रत्याशित रूप से बढ़ रहे हैं। ये बलात्कार दिन-दहाड़े हो रहे हैं। शिकार होने वालों में 12 साल की बच्चियां भी हैं। यूरोप की पहचान बन चुके म्यूजिक कंसर्ट्स में लड़कियां जाने से बचने लगी हैं। करीब सौ से अधिक म्यूजिक बैंड बंद हो चुके हैं। पूरे स्वीडन में 100 के लगभग ऐसे ‘संवेदनशील’ क्षेत्र बन गए हैं, जहां स्वीडिश लोग जाने से डरने लगे हैं।

पुलिस भी स्वीडिश लोगों, विशेषकर महिलाओं को इन इलाकों से दूर रहने को कहने लगी है। हद तो ये है कि पुलिस की जान को खतरे के चलते इन इलाकों से कुछ छोटी पुलिस चौकियों को ही स्थानांतरित कर दिया गया है। इतना सब होने के बावजूद स्थानीय लोग जैसे ही विरोध करते हैं तो उन्हें या पुलिस को नस्लवादी बताकर उनके खिलाफ ही विरोध शुरु कर दिया जाता है। इसी के शिकार पालुदन हुए है।

ऐसा माहौल पैदा करने वालों में स्वीडेन के वामपंथी- समाजवादी-लिबरल-प्रगतिशील नेता, बुद्धिजीवी और पत्रकार शामिल हैं। ये वही जमात है जिसने आज से 5-7 साल पहले बड़े-बड़े बैनर तख्तियां लेकर इन शरणार्थियों को शरण देने की मांग की थी। ये कथित लिबरल आज भी शरणार्थी मुसलमानों के अपराधों पर पर्दा डालते हैं। लेकिन स्वीडेन और नार्वे की ताजा घटनाएं यूरोप के शांत पानी में कट्टरपंथ का वो कंकड़ है, जिसकी लहरें दूर तक जाएंगी। बाकी चेतावनी यूएई के विदेश मंत्री 2017 में ही दे चुके हैं कि आंतकवाद को पैदा करने और उसको पालने-पोसने का अगला गढ़ यूरोप ही बनेगा।.