पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी के साथ एक संयुक्त संवाददाता सम्मेलन में कहा कि अफगानिस्तान में शांति बहाल करने में उनका देश अपनी भूमिका पूरी तरह निभाएगा। इमरान खान ने कहा कि पाकिस्तान के लोग और वहां की सरकार की एकमात्र चिंता यह है कि अफगानिस्तान में शांति स्थापित हो। क्योंकि<a href="https://hindi.indianarrative.com/world/peacemaker-imran-khan-kabul-terrorist-attack-bloodshed-increases-18681.html"><strong> इस देश के लोग दशकों से हिंसा का कहर झेल रहे हैं।</strong></a>
इमरान ने कहा कि पाकिस्तान ने तालिबान को अमेरिका के साथ बातचीत के लिए राजी करने में अपनी भूमिका निभाई है। कतर की राजधानी दोहा में अंतर-अफगान वार्ता शुरू कराने में उसका अहम योगदान है। अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने भी इस बात पर जोर दिया कि अफगान लोग शांति के अलावा और कुछ नहीं चाहते हैं।
इमरान खान अफगानिस्तान की शांति प्रक्रिया पर चर्चा करने और दोनों पड़ोसी देशों के बीच सहयोग को बढ़ावा देने के लिए गुरुवार को काबुल पहुंचे। 2018 में प्रधानमंत्री बनने के बाद से इमरान खान की यह पहली अफगानिस्तान यात्रा है। इमरान खान के साथ विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी और अन्य वरिष्ठ अधिकारी भी हैं।
<h2>अफगान सरकार और पाकिस्तान के संबंधों के बीच घुली कड़वाहट</h2>
कहा जा रहा है कि इमरान खान के इस दौरे का पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच द्विपक्षीय संबंधों, अफगान शांति प्रक्रिया और क्षेत्रीय आर्थिक विकास और कनेक्टिविटी पर गहरा असर होगा। जबकि अफगानिस्तान के राष्ट्रपति गनी ने आखिरी बार जून 2019 में पाकिस्तान का दौरा किया था। इससे पहले दोनों नेताओं ने मई 2019 में मक्का में इस्लामिक सहयोग संगठन के 14वें शिखर सम्मेलन के मौके पर द्विपक्षीय बैठक की थी। खान ने सितंबर 2020 में गनी के साथ टेलीफोन पर बातचीत की थी।
अफगानिस्तान के कई वरिष्ठ पदाधिकारियों ने हाल ही में से पाकिस्तान की यात्रा की है। जिनमें राष्ट्रीय सुलह के लिए उच्च परिषद (High Council for National Reconciliation) के अध्यक्ष डॉ. अब्दुल्ला अब्दुल्ला, अफगान जिरगा के प्रवक्ता रहमान रहमानी और वाणिज्य मंत्री निसार अहमद घोराई शामिल हैं। 31 अगस्त, 2020 को काबुल में अफगानिस्तान पाकिस्तान एक्शन प्लान फॉर पीस एंड सॉलिडैरिटी (APAPPS) का दूसरा समीक्षा सत्र भी आयोजित किया गया था।
इन सबके बावजूद अफगानिस्तान की सरकार और पाकिस्तान के बीच संबंधों के बीच काफी कड़वाहट घुल गई है। इसका सबसे बड़ा कारण पाकिस्तान का तालिबान, <a href="https://hindi.indianarrative.com/world/pakistan-university-of-jihad-darul-uloom-haqqania-taliban-18238.html"><strong>हक्कानी नेटवर्क</strong></a> औऱ अन्य आतंकवादी संगठनों को सीधे मदद पहुंचाना है। एक शर्मनाक विडंबना यह है कि पाकिस्तान एक ओर तो भारत और अफगानिस्तान के खिलाफ आतंकवादियों की मदद देने का आरोप लगाता है और दूसरी ओर पाकिस्तान के करीब 150 आतंकवादी अफगानिस्तान में मारे जाते हैं। अफगान सरकार ने तालिबान लड़ाकों के 65 शव पाकिस्तान को सौंपे थे।
जबकि उससे पहले पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी और इंटर-सर्विसेज पब्लिक रिलेशंस (आईएसपीआर) के महानिदेशक मेजर जनरल बाबर इफ्तिखार ने आरोप लगाया था कि भारत और अफगानिस्तान, पाकिस्तान के खिलाफ आतंकवादियों का समर्थन कर रहे हैं।
कतर की राजधानी दोहा में अमेरिकी निगरानी में विभिन्न अफगान समूहों, सरकार के प्रतिनिधियों और तालिबान के बीच आमने-सामने बातचीत हो रही है। इसके बावजूद अफगानिस्तान हिंसा के भंवर में फंसा हुआ है। अमेरिका ने अफगानिस्तान में शांति लाने के लिए इस साल 29 फरवरी को तालिबान के साथ एक द्विपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर किए। जबकि हाल ही में एक बयान में तालिबान ने उम्मीद जताई कि आने वाला जो बाइडेन प्रशासन यूएस-तालिबान समझौते का पालन करेगा और अमेरिकी सेना की वापसी होगी।
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<p dir="ltr" lang="en">Prime Minister <a href="https://twitter.com/ImranKhanPTI?ref_src=twsrc%5Etfw">@ImranKhanPTI</a> inspects the guard of honour at ARG Presidential Palace, Kabul.<a href="https://twitter.com/hashtag/PMIKinKabul?src=hash&ref_src=twsrc%5Etfw">#PMIKinKabul</a> <a href="https://t.co/DBdpFlOnAi">pic.twitter.com/DBdpFlOnAi</a></p>
— Prime Minister's Office, Pakistan (@PakPMO) <a href="https://twitter.com/PakPMO/status/1329352439879913472?ref_src=twsrc%5Etfw">November 19, 2020</a></blockquote>
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पाकिस्तान चाहे जो भी करे, अफगानिस्तान में आतंक को बढ़ावा देने में उसकी भूमिका सबको अच्छी तरह से पता है। इस वर्ष के मध्य में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) की विश्लेषणात्मक सहायता और प्रतिबंधों की निगरानी करने वाली टीम ने बताया कि लगभग 6,500 पाकिस्तानी नागरिक अफगानिस्तान की धरती पर अन्य विदेशी आतंकवादियों के साथ काम कर रहे हैं। जून में जारी की गई रिपोर्ट में जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा की ओर इशारा किया गया।
<h2>यून की रिपोर्ट ने भी पाकिस्तानी भूमिका की ओर किया इशारा</h2>
UNSC की रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP), जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा के साथ पूर्वी अफगानिस्तान से संचालित होता है और अफगान सरकार के बड़े अधिकारियों की हत्याओं में शामिल है। UNSC की रिपोर्ट के दो महत्वपूर्ण पहलू यह थे कि दोहा में अमेरिका के साथ शांति समझौते के बावजूद, तालिबान अभी भी "एक विश्वसनीय आतंकवाद-रोधी भागीदार नहीं है।" दूसरा पहलू यह था कि शांति समझौते के विपरीत तालिबान ने अल-कायदा से अपना नाता नहीं तोड़ा है। इन सबको पाकिस्तान का सीधा समर्थन है।
पाकिस्तान के पीएम इमरान खान ने सितंबर 2019 में न्यूयॉर्क में स्वीकार किया था कि पाकिस्तान ने न केवल आतंकवादियों को आश्रय दिया, बल्कि उन्हें जिहाद के नाम पर प्रशिक्षित भी किया। खान ने तब कहा था कि लगभग 30,000-40,000 आतंकवादियों को उनके देश में प्रशिक्षण दिया गया था। इनमें से ज्यादातर अफगानिस्तान और कश्मीर में लड़े थे। इमरान खान ने पिछली सरकारों पर पाकिस्तान के अंदर आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं होने का आरोप लगाया था। उन्होंने यह भी कहा कि उनके देश में 40 अलग-अलग आतंकवादी समूह चल रहे थे। इन सबके बावजूद इमरान भी ज्यादा कुछ करने की हालत में नहीं हैं। क्योंकि सेना ने उनके हाथ-पांव बांध रखे हैं।
इमरान खान की काबुल यात्रा से पहले नाटो के महासचिव जेन स्टोल्टेनबर्ग ने अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने फोन पर युद्धग्रस्त देश में सैनिकों के स्तर के समायोजन को लेकर चर्चा की। इस दौरान उन्होंने शांति प्रक्रिया पर भी चर्चा की, जिसमें अभी गतिरोध चल रहा है। अफगानिस्तान के राष्ट्रपति के प्रवक्ता सादिक सिद्दीकी ने कहा, "दोनों पक्षों ने अफगान शांति प्रक्रिया और नाटो के आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में अफगान बलों को प्रशिक्षित करने, सलाह देने और उनकी सहायता के लिए लगातार मदद देने के बारे में बात की।"
<h2>अमेरिकी सेना की वापसी से हिंसा तेज होने की आशंका</h2>
आशंका है कि अफगानिस्तान से आधे से अधिक अमेरिकी सैनिकों की तेजी से वापसी के लिए डोनाल्ड ट्रम्प की योजना अफगानिस्तान को और अधिक हिंसा की ओर धकेल सकती है। अफगान सरकार को सितंबर के बाद से तालिबान के बढ़ते हमलों और विदेशी दाताओं से घटते वित्तीय समर्थन से एक साथ जूझना पड़ रहा है। सितंबर में अफगान सरकार और तालिबान के बीच बातचीत शुरू होने के बाद से हमलों में 50 फीसद की वृद्धि हुई है।
अफगानिस्तान में शीर्ष अमेरिकी जनरल ऑस्टिन स्कॉट मिलर ने भी चेतावनी दी है कि अमेरिका और तालिबान द्वारा फरवरी में हस्ताक्षर किए गए सेना की वापसी समझौते के बाद विद्रोहियों के हमले "जायज" नहीं हैं और "चल रही अफगान शांति वार्ता को कमजोर" करते हैं। हिंसा के बढ़ने से अफगानिस्तान के सुरक्षा बलों का धीरज भी खत्म हो गया है, जिन्हें शांति प्रक्रिया समक्षौते के हिस्से के रूप में रक्षात्मक रहने का आदेश दिया गया है। क्योंकि अफगान सरकार की बार-बार युद्ध विराम की मांग को तालिबान ने अनसुना कर दिया है। उल्लेखनीय है कि अमेरिका की जनवरी के मध्य में अफगानिस्तान से 2,000 सैनिकों को निकालने की योजना है।
तालिबान के साथ शांति वार्ता के आलोचक लंबे समय से यह आशंका जाहिर कर रहे हैं कि तालिबान अपने संगठन को मजबूत करने के लिए समय बिताने में अधिक रुचि रखते हैं। डर है कि वर्तमान में अफगान बलों को हवाई कवर और अन्य सैन्य सहायता प्रदान करने वाले अमेरिकी सैनिकों की जल्द वापसी से हिंसाग्रस्त देश गृहयुद्ध की ओर जा सकता है। इतिहास में 30 साल पहले इसकी एक गंभीर मिसाल भी है। जब 1989 में रूसी सैनिक देश से हट गए और अफगान सरकार को उन्होंने अमेरिका समर्थित विद्रोहियों के खिलाफ अकेले लड़ने के लिए छोड़ दिया। जिसके बाद तालिबान की सत्ता का उदय हुआ।.