अमेरिका के नए राष्ट्रपति ( American President) के तौर पर जो बाइडेन (joe Biden) की जीत का ऐलान हुए अभी 24 घण्टे भी नहीं हुए हैं कि ईरान (Iran) के सुर बदल गए हैं। ईरान ने अमेरिका के नए निजाम के साथ बातचीत शुरू करने और संबंध सामान्य बनाने के संकेत दिए हैं। ईरानी राष्ट्रपति हसन रूहानी ने एक संदेश में कहा है कि अमेरिका का नया प्रशासन अपने पूर्ववर्ती की गलतियों में सुधार करे और न्यूक्लियर डीन में अमेरिका वापसी करता है तो ईरान अमेरिका के साथ शांति वार्ता के लिए तैयार है। रूहानी ने इसी के साथ यह भी कहा है कि शांति वार्ता की पेश कश को ईरान की कमजोरी न समझा जाए। ईरान के साथ ही पाकिस्तान में भी खुशी यानी खाम ख्याली का माहौल है। चीन को भी उम्मीद हो सकती है कि अगर ईरान के साथ बाइडेन नरमी के साथ पेश आ सकते हैं तो भला चीन के साथ कम से कम ट्रेड वॉर को क्यों खत्म नहीं कर सकते।
बहरहाल, कोविड से जूझ रहे अमेरिका को ईरान से मिले संकेत काफी राहत देने वाले हो सकते हैं। संबंधों को सामान्य करने की दिशा में बढ़ाते हुए ट्रम्प के पूर्ववर्ती ओबामा ने कुछ अन्य देशों के साथ मिल कर ईरान के साथ एक एग्रीमेंट किया था जिसमें ईरान को एक निश्चित मात्रा में यूरेनियम संवर्धन की छूट भी दी थीं। ईरान से कुछ प्रतिबंधों को भी हटाया था। ट्रम्प ने इस समझौते को अमेरिकी हितों के खिलाफ मानते हुए खुद को इससे अलग कर लिया था। इतना ही नहीं आतंक फैलाने के आरोप में ईरान पर कई नए प्रतिबंध भी लगा दिए। ट्रंप ने ईरान के इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड्स कॉर्प्स को आतंकवादी संगठन घोषित कर दिया। इतना ही नहीं अमेरिकी फोर्सेस ने इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड्स कॉर्प्स के चीफ जनरल कासिम सुलेमानी को एक ड्रोन हमले में मार गिराया था।
कासिम सुलेमानी की हत्या के बाद न केवल ईरान और अमेरिका में युद्ध के हालात बल्कि तीसरे विश्वयुद्ध की स्थितियां बन गई थीं। ईरान और अमेरिका के बीच संबंधों की खींचतान का असर भारत पर भी पड़ा। भारत को ने केवल महंगा तेल खरीदना पड़ा बल्कि चावल निर्यात प्रभावित हुआ। इसके अलावा चाहबहार बंदरगाह की प्रगति धीमी पड़ जाने से भारत को काफी नुकसान उठाना पड़ा है। चीन ने चाहबहार प्रोजेक्ट में टांग अड़ाने की कोशिश की है। चीन चाहबहार को ग्वादर बंदरगाह से जोड़ कर सीधे मध्यएशिया की बाजार में घुसपैठ करने की फिराक में है। वहीं भारत के प्रयास चाहबहार के जरिए पाकिस्तान को बाईपास कर अफगानिस्तान को सीधे मदद पहुंचाने का है।
जो बाइडेन 20 जनवरी 2021 को अमेरिका के राष्ट्रपति की शपथ तो लेलेंगे लेकिन वो ट्रंप की नीतियों आसानी से बदल भी पाएंगे, इसमें संदेह है। जो बाइडेन को मध्य एशिया में संतुलन बनाने में काफी मशक्कत करनी पड़ सकती है। हालांकि ईरान के साथ हुए न्यूक्लियर समझौते को बहाल करने के में वैश्विक दबाव काम आ सकता है। ईरान के साथ न्यूक्लियर समझौते में अमेरिका के अलावा रूस-फ्रांस, ब्रिटेन, चीन और जर्मनी भी शामिल थे। अमेरिका (ट्रंप) ने इसी समझौते से खुद को अलग कर लिया था। इजरायल और अरब देशों के साथ संबंधों को सामान्य बनाने में ट्रंप की भूमिका सरहानीय रही है। ट्रंप की मध्य एशिया नीति को जस का तस ही अपनाना पड़ेगा। ईरान अमेरिका की इस नीति का घोर विरोधी रहा है।
ऐसा कहा जा रहा है कि ईरान के साथ जो बाइडेन अगर ओबामा की नीति को अपनाते हैं तो चीन की महत्वाकांक्षांए भी जाग सकती हैं। ट्रंप ने अमेरिका फर्स्ट की नीति को अपनाते हुए चीन के साथ व्यापार तमाम प्रतिबंध लगाए हैं। कई नामी-गिरामी चीनी कंपनियों को अपना बोरिया बिस्तरा समेट कर चीन वापस भागना पड़ा। ऐसा माना जा रहा है कि चीन की विस्तारवादी नीतियों से पूरा विश्व परेशान है। एकतरफा व्यापार से दुनिया के बाजारों में असुंतलन भी चीन की देन है। आम अमेरिकी भी इस बात से सहमत नजर आता है कि चीन की वजह से रोजगार पर विपरीत प्रभाव पड़ चुका है। इस असंतुलन को अमेरिका के पक्ष में मोड़ने की ट्रंप की कोशिश सही और कामयाब थी। इंडिया-पैसेफिक में भी चीन अमेरिकी प्रभुत्व को ही चुनौती देता नजर आ रहा है। कहने का मतलब यह है जमीन ले कर अंतरिक्ष चीन अमेरिका प्रतिद्वंदी नहीं बल्कि 'चौधरी' बनता जा रहा है। चीन के बेल्ट एण्ड रोड प्रोजेक्ट का विरोध अमेरिका ही नहीं बल्कि फ्रांस-जर्मनी और ब्रिटेन ने भी किया है।
इसी तरह कोविड पर भी पाकिस्तान जैसे एक दो देशों को छोड़कर पूरी दुनिया चीन को ही दोषी मानती है। इसलिए बाइडेन न तो अपनी जनता के खिलाफ जाना चाहेंगे और न ही विश्वबिरादरी के खिलाफ कोई कदम उठाएंगे। इसलिए बाइडेन से ईरान को भले ही कुछ फायदा हो लेकिन चीन को कोई राहत नहीं मिलने वाली है। इसी तरह भारत के साथ चीन के सीमा विवाद या फिर ताईवान के साथ विवाद में भी बाइडेन कोई परिवर्तन नहीं करेंगे। कश्मीर पर कमला हैरिस के पहले के रुख को देखते हुए चिंता हो सकती है, मगर कश्मीर या पाकिस्तान को लेकर बाइडेन ओबामा की नीतियों का अनुसरण कर सकते हैं। पाकिस्तान को लेकर ओबामा की नीतियां भारत के पक्ष में ही रहीं थीं। ट्रंप ने भी पाकिस्तान पर हमेशा भारत को तरजीह दी। कश्मीर पर मध्यस्थता के ट्रंप के बयानों को छोड़ दिया जाए तो ट्रंप और ओबामा हमेशा भारत के पक्ष में खड़े दिखाई दिए हैं।
कहने का मतलब यह है कि अमेरिका में सत्ता बदलते ही ईरान के रुख में बदलाव आया है तो चीन और पाकिस्तान की महत्वाकांक्षाएं भी जागने की संभावना है। पाकिस्तान सरकार के मंत्री बाइडेन के चुनाव जीतने पर ऐसी खुशी मना रहे हैं जैसे कि इमरान खान के हाथ कोई बड़ी बाजी लग गई है। शायद इमरान और उनके मंत्री इस बात को भूल गए हैं कि ओबामा के कार्यकाल में ही लादेन को पाकिस्तान में मार गिराकर अमेरिकन सील कमाण्डो उसकी लाश भी अपने साथ ले गए थे। अभी कुछ दिन पहले ही इमरान खान ने पाकिस्तानी पार्लियामेंट को संबोधित करते हुए 'लादेन' को शहीद का खिताब दिया था। अमेरिकी रिपब्लिकन हों या डेमोक्रेट वो लादेन को शहीद बताने वाले देश को माफ नहीं करेंगे। यह बात अलग है बाइडेन के नेतृत्व में अमेरिकी प्रशासन ईरान के इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स को 'आतंकी संगठन' की श्रेणी से भले ही हटा ले मगर पाकिस्तान के माथे पर लगे टेरर स्पॉन्सर स्टेट के ठप्पे को कभी नहीं हटाएगा।
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