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एक हिंदुस्तानी के मुरीद थे चीनी राष्ट्रपति के पुरखे, आज शी जिनपिंग कर रहे दुश्मनों जैसा बर्ताव!

एक हिंदुस्तानी के मुरीद थे चीनी राष्ट्रपति के पुरखे, आज शी जिनपिंग कर रहे दुश्मनों जैसा बर्ताव!

चीन के अधिकांश लोग सदियों से एक हिंदुस्तानी के मुरीद हैं। चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के पुरखे भी उसी हिंदुस्तानी के मुरीद थे। मतलब शिष्य या वो लोग जो किसी व्यक्ति के पद चिह्नों पर चलते हैं, उसकी शिक्षा और आदर्शों को अपनाते हैं। आज भी चीन की अधिकांश जनता दिल से बौद्ध धर्म को मानती है। बौद्ध धर्म उनकी रगों में दौड़ता है। यह हिंदुस्तानी कोई और नहीं बल्कि कुमारजीव (Kumarjeev) थे। <a href="https://hindi.indianarrative.com/world/sino-india-relation-will-go-up-as-soon-china-get-rid-of-atheist-communist-regime-21713.html"><strong><span style="color: #000080;">भारत-चीन</span> </strong></a>के संबंधों के बारे में इतना लिखा गया है कि इतिहास भरा पड़ा है। लेकिन  आज की चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने अपनी विस्तारवादी नीति के चलते अपने सभी पड़ोसियों से दुश्मनी मोल ली है लेकिन हज़ारों वर्षों पहले भारत और चीन के बीच न सिर्फ़ मधुर संबंध थे बल्कि एक दूसरे देशों में सांस्कृतिक तौर पर आवाजाही भी थी। चीन को दुनिया का सबसे शांतिप्रिय बौद्ध धर्म भारत से ही मिला है। भारत और चीन के बीच में बौद्धिक स्तर पर आवाजाही की शुरुआत विश्व प्रसिद्ध बौद्ध चिंतक, विद्वान अनुवादक कुमारजीव (Kumarjeev) ने की थी। कुमारजीव एक बहुत बुद्धिमान ज्ञानवान बौद्ध भिक्षु थे जिन्होंने चीन जाकर वहां संस्कृत में लिखे बौद्ध पिटकों और पाण्डुलिपियों का चीनी भाषा में सटीक अनुवाद किया था। कुमारजीव (Kumarjeev) से पहले हुए चीनी अनुवाद बेहद बेतुके और अपरिष्कृत यानी घटिया स्तर के थे।
<h4>कौन थे कुमारजीव?</h4>
सवाल ये उठता है कि प्राचीन काल में कुमारजीव (Kumarjeev) ने चीनी भाषा कहां से सीखी थी? या फिर वो इतने ज्ञानवान थे कि उन्होंने चीन जाकर संस्कृत में लिखे बौद्ध ग्रंथों का सटीक चीनी अनुवाद किया। दरअसल कुमारजीव की माँ कूचा की राजकुमारी थी, उनका नाम जीवा था, कुछ एक पाण्डुलिपियों में उनका नाम जीवक भी मिलता है। कूचा आज चीन के शिनच्यांग प्रांत का एक शहर है। कुमारजीव के पिता एक कश्मीरी विद्वान ब्राह्मण थे, उनका नाम कुमारयान था। कुमारजीव का जन्म 344 इस्वी में कूचा में हुआ था। कुमारजीव के पिता कुमारयान युवावस्था में ही बौद्ध भिक्षु बन गए थे और कश्मीर छोड़कर पामीर के पठार को पार कर कूचा पहुंच गए वहां पर वो राजपुरोहित बने और राजा की बहन जीवा से शादी कर ली जिसके बाद कुमारजीव का जन्म हुआ।
<h4>कश्मीर में रहकर किया वेद और बौद्ध धर्म ग्रन्थों का अध्ययन</h4>
बचपन से ही कुमारजीव बहुत मेधावी थे उनकी स्मरणशक्ति बहुत तीव्र थी, जब कुमारजीव (Kumarjeev) 7 वर्ष के थे तो उनकी माँ बौद्ध भिक्षुणी बन गई थीं इसके बाद के वर्षों में कुमारजीव बौद्ध ग्रंथों की पढ़ाई के लिये कूचा, कश्मीर और काशगर में रहे। इतनी छोटी उम्र में ही कुमारजीव ने ढेरों ग्रंथों का अध्ययन कर लिया था। दो वर्ष बाद जब कुमारजीव 9 वर्ष के थे तो उनकी माँ उन्हें कश्मीर ले आईं। यहां पर कुमारजीव ने दीर्घ अगम, मध्यम अगम और क्षुद्रक को पढ़ा, इसके अलावा चार वेद और ब्राह्मण ग्रथों को पढ़ा। जब कुमारजीव 12 वर्ष के हुए तो उनकी माँ ने कूचा छोड़कर आगे की पढ़ाई के लिये तूरपान का रुख़ किया। तूरपान उन दिनों दस हज़ार बौद्ध भिक्षुओं के शिक्षा का केन्द्र था। यहां कुमारजीव ने सूर्यसोम के सानिध्य में महायान बौद्ध शाखा का अध्ययन किया और स्थिरवादिन से महायान शाखा में प्रवेश किया। यहां कुमारजीव ने माध्यमिका और नागार्जुन के अध्ययन का अध्ययन किया।  तूरपान में जब कुमारजीव की प्रसिद्धी फैलने लगी और ये बात कूचा के राजा को पता चली तो वो तूरपान आकर कुमारजीव से कूचा चल कर रहने का आग्रह किया, इसके बाद 20 वर्ष की उम्र में कुमारजीव कूचा आ गया जहां पर उसने प्रज्ञापरमिता सूत्र का अध्ययन किया।
<h4>कैदी बनाकर चीन ले जाए गए थे कुमारजीव</h4>
वर्ष 379 इस्वी में कुमारजीव (Kumarjeev) की प्रसिद्धी चीन पहुंची और वहां छिंग साम्राज्य के राजा फ़ू च्येन ने कुमारजीव को छांगआन (आज के शिआन) लाने का प्रयास शुरु कर दिया। लेकिन फ़ू च्येन के सेनापति ने युद्ध के दौरान विद्रोह कर दिया और कुमारजीव को कैद कर लिया। बाद में कुमारजीव को छांगआन यानी आज के शिआन लाया गया जहां पर उसने चीनी भाषा को विस्तार से सीखा। इसी बीच फ़ू च्येन को याओशिंग ने सत्ता से बाहर कर छिंग साम्राज्य पर कब्ज़ा जमा लिया और कुमारजीव को कैद से आज़ाद किया।
<h4>चीन का राष्ट्रीय शिक्षक नियुक्त किए गए कुमारजीव</h4>
कुमारजीव (Kumarjeev) को उनके ज्ञान के आधार पर राष्ट्रीय शिक्षक के पद पर तैनात किया जो चीन में किसी भी बौद्ध भिक्षु की उस समय की सबसे बड़ी उपाधि थी। इसके बाद बौद्ध शिक्षण, अनुवाद और शोध के सारे कार्य कुमारजीव की अध्यक्षता में होने लगे। छांगआन में ही 413 इस्वी में <a href="https://en.wikipedia.org/wiki/Kum%C4%81raj%C4%ABva"><strong><span style="color: #000080;">कुमारजीव</span> </strong></a>की मृत्यु हो गई। आज भी शिनच्यांग प्रांत के कूचा में किज़िल गुफ़ाओं के बाहर कुमारजीव की पत्थर की मूर्ति उनकी याद में लगाई गई है। चीन के लोग आज भी कुमारजीव को नमन करते हैं और बौद्ध धर्म के उत्थान में उनके योगदान को याद करते हैं।

चीन का ये वही स्वर्णिम काल था जब छिंग सम्राट या ओशिंग के आदेश पर कुमारजीव (Kumarjeev) ने बौद्ध ग्रंथों के संस्कृत से चीनी भाषा में अनुवाद का सारा काम अपने संरक्षण में करवाया और पूरे चीन की 90 फीसदी जनसंख्या ने बौद्ध धर्म अपना लिया।.