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मुस्लिम देशों के उम्मत की राजनीति से दूर होने का सकारात्मक असर संभव

मुस्लिम देशों के उम्मत की राजनीति से दूर होने का सकारात्मक असर संभव

अधिकांश मुस्लिम बहुल राष्ट्र उम्मत (दुनिया के सभी मुस्लिम एक कौम हैं) की राजनीति से खुद को दूर कर रहे हैं। अपनी घरेलू चुनौतियों के कारण वे अब अपनी आर्थिक और राजनीतिक वास्तविकताओं के अनुसार अपनी भू-राजनीतिक प्राथमिकताओं को समझने के लिए भी प्रयास कर रहे हैं।

उम्मत की अवधारणा हमेशा मुस्लिम दुनिया के लिए मुख्य रूप से एकता की धार्मिक नैतिकता के रूप में केंद्रीय बिंदु रही है। जबकि इस समय यह विघटन की प्रक्रिया से गुजर रहा है, जहां देशों के साथ-साथ नॉन स्टेट एक्टर्स भी इसके नए रूप को आकार दे रहे हैं।

मध्य पूर्व में हाल के घटनाक्रम विशेष रूप से द्विपक्षीय संबंधों के सामान्यीकरण के लिए इजरायल और यूएई के बीच हुआ समझौता और सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच कथित तनाव, मुस्लिम दुनिया में चल रहे राजनीतिक संकट की पहचान करने के लिए पर्याप्त आधार हैं। इससे ऐसा लगता है कि खाड़ी के राज्य, विशेष रूप से सऊदी अरब पहले से ही अपनी भू-रणनीतिक पुनर्संरचना से जुड़े कुछ कठोर निर्णय ले चुका है, जो मुस्लिम दुनिया या उम्मत के संरक्षक के उसके दायित्व के बोझ को कम कर सकता है।

कई लोग तर्क दे रहे हैं कि तेजी से बदल रही भू-राजनीतिक यथार्थ, बढ़ती आर्थिक उथल-पुथल, बढ़ते सामाजिक दायित्व और इन देशों में युवाओं की बढ़ती शिकायतें, खाड़ी के नेताओं को अपना भू-रणनीतिक और राजनीतिक दृष्टिकोण बदलने के लिए मजबूर कर रही हैं।

फिर भी, यह मानना ​​कठिन है कि सऊदी अरब और उसके खाड़ी सहयोगियों ने उम्मत के सिद्धांत और उसकी राजनीति में अपना विश्वास खो दिया है। उम्मत का नेतृत्व क्षेत्रीय और वैश्विक राजनीति में विशाल राजनीतिक और रणनीतिक लाभ प्रदान करता है, जिससे इन देशों के लिए इस पर अपना दावा पूरी तरह छोड़ना कठिन है। इसके बजाय वे उम्मत पर नेतृत्व के लिए अन्य दावेदारों के कारण चिंतित हैं, जिनमें मुख्य रूप से तुर्की, ईरान, कतर और कुछ हद तक मलेशिया के नेतृत्व में एक वैकल्पिक गुट अपना असर बढ़ा रहा है।

हालांकि मुस्लिम धार्मिक संस्थानों और मौलवियों ने मुस्लिम दुनिया के कई हिस्सों में आम मुसलमानों के बीच एक पूरी तरह से अलग विश्वदृष्टि को बढ़ावा दिया है, जो कि मुस्लिम देशों द्वारा प्रचारित विचारों के पूरी तरह अनुरूप नहीं है। बल्कि यह आमतौर पर नॉन स्टेट एक्टर्स की हिंसक भावनाओं के साथ मेल खाता है।

साधारण मुस्लिम के लिए धर्म से अलग राजनीति की कल्पना करना आसान काम नहीं है। उम्मत एक धार्मिक अवधारणा है, जिसका उपयोग मुसलमानों के विश्वव्यापी समुदाय का उल्लेख करने के लिए किया जाता है। पैन-इस्लामिस्ट और मुस्लिम ब्रदरहुड के आंदोलनों ने इस अवधारणा के आसपास एक राजनीतिक भ्रम का निर्माण किया था और मुस्लिम दुनिया (राज्य और समाज) दशकों से इस सिद्धांत के बारे में कल्पना कर रहे थे।

उन्होंने मुस्लिमों का एक राजनीतिक समुदाय बनाने की कोशिश की है। इस्लामिक सहयोग संगठन (OIC) एक ऐसी ही अभिव्यक्ति है। खाड़ी राज्यों ने इस अवधारणा का प्रभावी ढंग से उपयोग किया है। उन्होंने 1960 के दशक से लेकर पिछले दशक तक सामाजिक-आर्थिक संक्रमण काल ​​के दौरान अरब राष्ट्रवाद के साथ इसे मिश्रित किया। सऊदी अरब के नेतृत्व  में कई खाड़ी राज्यों ने उम्मत के दायरे को वहाबी इस्लाम तक सीमित कर दिया और इसे मुस्लिम दुनिया और मुस्लिम प्रवासी समुदायों में फैलाने में बहुत ज्यादा निवेश किया और बदले में अपने शासन के लिए राजनीतिक समर्थन हासिल किया।

सऊदी अरब उम्मत का नेतृत्व छोड़ने पर विचार करने वाला नहीं है, क्योंकि इसका मतलब होगा कि अंतरराष्ट्रीय संबंधों में उसके असर में भारी रणनीतिक गिरावट आएगी। जबकि उम्मत का नेता होने के कारण वह 'प्रभावी' दिखता है, जो उन्हें एक महत्वपूर्ण वैश्विक खिलाड़ी बनाता है। बदले में अमेरिका के साथ उनका मजबूत गठबंधन उन्हें मुस्लिम देशों के बीच 'शक्तिशाली' बनाता है। इस दोतरफा ताकत को और मजबूत करने के लिए सऊदी अरब ने 40 मुस्लिम देशों के गठबंधन का गठन किया, जिसे " इस्लामिक मिलिट्री काउंटरटेरिरिज्म गठबंधन" कहा जाता है।

कई लोग यमन में सेना बढ़ाने और क्षेत्र में ईरान का मुकाबला करने के सऊदी के वास्तविक उद्देश्य पर बहस कर सकते हैं। जबकि साफ है कि सऊदी अरब यह एक धार्मिक सेवा के रूप में या उम्मत के सामूहिक हितों के लिए नहीं कर रहा है, फिर भी कई छोटे मुस्लिम देश अपने स्वयं के आर्थिक हितों के लिए सऊदी के नेतृत्व वाले "मुस्लिम नाटो" में शामिल हो गए। हालांकि यह गठबंधन विफल हो गया क्योंकि यह बहुत ही संकीर्ण था और एक विशेष राज्य के हितों के इर्द-गिर्द घूमता था।

फिलिस्तीन का मुद्दा ओआईसी के एजेंडे में शीर्ष पर बना हुआ है। जबकि खाड़ी राज्यों ने फिलिस्तीनियों के साथ एकजुटता बनाए रखी है, नॉन स्टेट एक्टर्स ने फिलिस्तीनी-इजरायल मुद्दे और कथित भ्रष्ट शासन के बारे में अपना प्रोपेगेंडा विकसित किया है। वे मानते हैं कि खाड़ी राज्य इस मुद्दे को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं।

दिलचस्प बात यह है कि जनता ने बड़े पैमाने पर नॉन स्टेट एक्टर्स और उनके समान विचारधारा वाले धार्मिक नेताओं द्वारा प्रचारित 'भ्रष्ट शासन' के प्रोपेगेंडा को बहुत हद तक सही मान लिया है। लेकिन शिक्षित वर्ग अभी भी एक ऐसे वैकल्पिक राज्य प्रणाली के विचार को मानने से इनकार कर रहा है जो लोकतंत्र और उससे जुड़ी आजादी को कम करती है। नॉन स्टेट एक्टर्स भी अरब स्प्रिंग के उतार-चढ़ाव के बाद वैकल्पिक राज्य प्रणालियों के अपने मॉडल को लोकप्रिय बनाने में विफल रहे। लेकिन वे अभी भी अपने मुस्लिम समाजों के राजनीतिक और धार्मिक क्षेत्र में प्रासंगिक हैं।

नॉन स्टेट एक्टर्स अपने लाभ के लिए उभरते राजनीतिक घटनाक्रम का फायदा उठा सकते  थे। प्रमुख आतंकवादी समूह अलकायदा और इस्लामिक स्टेट ने यूएई-इजराइल समझौते पर अभी तक कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। दोनों समूह काफी कमजोर हो गए हैं और हो सकता है कि वे तुरंत बड़े हमले शुरू करने में सक्षम न हों, लेकिन वे मुस्लिम देशों के शासनों और इजरायल के खिलाफ अपने तर्क के समर्थन में मौजूदा परिस्थिति का उपयोग कर सकते हैं।

इजराइल का विनाश और मुस्लिम दुनिया में 'धर्म-भ्रष्ट' शासन का विरोध अल कायदा के एजेंडे में सबसे ऊपर है। आईएस और अल कायदा रणनीतिक और सामरिक स्तर पर भिन्न हैं, लेकिन दोनों कुछ राजनीतिक उद्देश्यों को साझा करते हैं। वे वापसी करने के लिए जी-तोड़ कोशिश कर रहे हैं लेकिन उनकी राजनीतिक मजबूरियों ने उन्हें कमजोर बना दिया है।

उदाहरण के लिए अफगानिस्तान में अल कायदा पंगु हो गया है, क्योंकि यह अफगान तालिबान का सहयोगी है। जिसने सफलतापूर्वक अमेरिका के साथ एक सौदा किया है और अफगान सरकार और नागरिक समाज के साथ बातचीत में हिस्सा ले रहा है। यह स्थिति तब तक रहने वाली है, जब तक कि अल कायदा तालिबान से नाता नहीं तोड़ लेता।

हालांकि, अन्य अहिंसक मुस्लिम धार्मिक समूह और नेता मध्य पूर्व में हाल के विकास के मुखर आलोचक बन गए हैं। पाकिस्तान जैसे मुस्लिम देशों के लिए यह खतरनाक मैदान है, जहां विविध सांप्रदायिक जटिलतायें हैं। सऊदी और ईरानी गुटों ने अपने संबंधित धार्मिक समुदायों में भारी निवेश किया है और उसका लाभ प्राप्त करने का समय अब आ गया है। सऊदी पक्ष के  समर्थकों को एक बड़ी दुविधा का सामना करना पड़ रहा है कि कैसे अपने अरब आकाओं का समर्थन करते हुए अपने यहूदी-विरोध पर दृढ़ रहें।.