पिछले महीने अगस्त की 14 तारीख को तालिबान ने काबुल जीत लिया था। पहले ही दिन से तालिबान की सरकार बनाने का दावा किया जा रहा है। दरअसल, अशरफ गनी सरकार को गिराने के लिए आतंकियों के तमाम गुट एक साथ आ गए थे। इन आतंकी गुटों को यह उम्मीद नहीं थी कि अशरफ गनी और उनकी फौजी अफसर इतने सस्ते में बिक कर हथियार डाल देंगे। तालिबान आतंकियों के इन गुटों को यह भी अंदाज नहीं था कि अमेरिकी फौजें इतनी जल्दी भाग खड़ीं होंगी। अफगानिस्तान के अलग-अलग हिस्सों को जीतने का दावा करने वाले तालिबान आतंकी गुटों ने काबुल पर हुकूमत करने की कल्पना भी नहीं की थी। यही वजह है कि समावेशी सराकर का ख्याल भी किसी के दिमाग में नहीं था। काबुल और अमेरिकी हथियारों पर लुभाव में मिलने के बाद उसके बंटबारे पर जंग छिड़ी हुई है। हालांकि तालिबान के गुटों के भीतर चल रही ये जंग बंद कमरों के भीतर चल रही है। सड़कों पर आना बाकी है।
बंद कमरों में तालिबान में रस्साकशी
बंद कमरों में चल रही रस्साकशी के बीच अफगान सत्ता के चीफ कमाण्डर की शक्ल में कभी अखुंदजादा का नाम आगे आता रहा है तो कभी मुल्ला ब्रादर का तो कभी किसी अहमद अली नूर का। तालिबान का एक गुट इनक्लूसिव सरकार का संभावना व्यक्त करता है तो दूसरा गुट इस संभावना को सिरे से नकारते हुए कहता है कि अफगानिस्तान में शरिया के अनुसार सरकार बनेगी। अफगानिस्तान में लोकतंत्र नहीं होगा। यहां शरिया सरकार होगी।
इन्क्लूसिव सरकार पर तालिबान सहमत नहीं
अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति अहमद करजई और पूर्व सीईओ अब्दुल्ला अब्दुल्ला इस कोशिश में थे कि किसी तरह इनक्लूसिव सरकार बन जाए। तालिबान ने इस कोशिश को जड़ से उखाड़ दिया। तालिबान ने अहमद करजई और अब्दुल्ला अब्दुल्ला को नजरबंद कर दिया। इसके बाद मुल्ला ब्रादर पहली बार जब 18 अगस्त को कंधार पहुंचा तो अफवाह फैली की मुल्ला ब्रादर प्रधानमंत्री बनने जा रहा है। इसके बाद खबर आई कि अफगान सरकार को कोई एक नेता नहीं चलाएगा। अफगानिस्तान को चलाने के लिए एक काउंसिल बनेगी। इस काउंसिल का एक सर्वोच्च नेता होगा। उसके बाद भी कोई फैसला नहीं हो सका तो तालिबान के प्रवक्ता जबीहउल्लाह मुजाहिद ने कहा कि जब तक अफगानिस्तान में अमेरिका का एक भी सैनिक रहेगा तब तक सरकार का ऐलान नहीं किया जाएगा। अमेरिकी फौजों के जाते ही सरकार का ऐलान कर दिया जाएगा।
आतंकियों में कई गुट सबकी राय अलग-अलग
अफगानिस्तान में सरकार का ऐलान न हो पान के पीछे कुछ अहम कारण हैं। पहला यह कि जिस तरह अशरफ गनी की सरकार और सेना हजारा, पश्तून, ताजिक, उज्बेकी जैसे तमाम समुदायों में बंटी हुई थी, उसी तरह तालिबान गुट भी बंटे हुए हैं। प्रमुख तालिबान गुट ही कई हिस्सों में बंटा हुआ है। इसमें हैबतुल्लाह अखुंदजादा, मुल्ला ब्रादर, मुल्ला याकूब है। इनके नीचे भी कई गुट हैं। इसके अलावा हक्कानी गुट, अलकायदा, ईस्ट तुर्किस्तान मूवमेंट, टीटीपी यानी तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान और आईएसआईएस-खुरासान हैं। इसके अलावा भारत में सक्रिए जैश-ए-मुहम्मद, लश्कर-ए-तैयबा जैसे गिरोह हैं जो अफगानिस्तान में किसी सरकार के गठन में सबसे बड़ी बाधा हैं।
अमेरिकी फौज के हथियारों पर कब्जे की होड़
अफगानिस्तान में सभी आतंकी गुटों को संतुष्ट कर पाना किसी एक आदमी या नेता के वश की बात नहीं है। इसके अलावा एक और बड़ी बात अमेरिका से लुभाव में मिले हथियार, लडाकू जहाज, हेलिकॉप्टर, बख्तरबंद गाडियां हैं। कथित तौर पर इस्लाम के मुताबिक जंग जीतने के बाद सिपाहियों को दुश्मन की संपत्ति पर कब्जे का हक होता है। इस तरह से जिस तालिबानी गुट ने जितने हथियारों पर कब्जा कर लिया है वो उसकी अपनी मिल्कियत होगी। इस पर वो तालिबानी नेता सहमत नहीं हो रहे हैं जिनके हाथ कम मिल्कियत ही हाथ आई है।
तालिबान सरकार के गठन में पाकिस्तान सबसे बड़ा रोड़ा
इसके अलावा पाकिस्तान खुद सबसे बड़ा कारण है जो अफगानिस्तान में सरकार नहीं बनने दे रहा है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान और आईएसआई की मंशा है कि अफगानिस्तान की तालिबान सरकार में भारत का हिमायती एक भी नेता नहीं होना चाहिए। जबकि तालिबान के कुछ नेताओं ने भारत के साथ व्यावसायिक और राजनीतिक दोनों रिश्तों की वकालत की है। तालिबान नेता शेर मुहम्मद स्तानिकजई की दोहा में भारतीय राजदूत दीपक मित्तल से मुलाकात पर पाकिस्तान आग बबूला है।