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तालिबान और अफगानिस्तान सरकार : कौन किस पर भरोसा करे ?

तालिबान और अफगानिस्तान सरकार : कौन किस पर भरोसा करे ?

दोहा में एक तरफ तालिबान और अफगानिस्तान सरकार के बीच शांति प्रकिया के लिए बैठक चल रही है तो दूसरी तरफ अफगानिस्तान में तालिबान का सरकारी फौज पर हमला बदस्तूर जारी है। इस बीच अमेरिका सहित 29 सदस्यीय संगठन नाटो की एक रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि तालिबान के पास धन की कमी नहीं है, उसकी कमाई लगातार बढ़ती जा रही है।

अमेरिका सहित नाटो की फौज भी अफगानिस्तान में मौजूद है। रिपोर्ट के मुताबिक, तालिबान के पास पर्याप्त मात्रा में गोला-बारूद और हथियार मौजूद हैं। यह सही है कि दो साल पहले तालिबान के पास धन और हथियारों की कमी थी, लेकिन अब हालात बदल गए हैं। रिपोर्ट में आगाह किया गया है कि यह मान लेना कि तालिबान ने अल-कायदा जैसे संगठनों से रिश्ता तोड़ लिया है, भयानक भूल होगी। दोनों आज भी उतने करीब हैं, जितना पहले थे। दोनों मिलकर अफगानिस्तान सरकार के खिलाफ लड़ रहे हैं।

रिपोर्ट के मुताबिक पिछले साल तालिबान ने करीब 1.5 अरब डॉलर कमाए थे और यह सारा धन, गैर कानूनी खनन, नशीले पदार्थों की तस्करी से कमाया जा रहा है। रिपोर्ट में साफ-साफ कहा गया है कि तालिबान की बढ़ती कमाई के पीछे तालिबान के नये मिलिट्री चीफ मुल्ला मोहम्मद याकूब की योजना है। तालिबान के सुप्रीम नेता मुल्ला मोहम्मद उमर का बेटा याकूब पिछले कई महीनों से चर्चा में है।

रिपोर्ट के मुताबिक यह लगभग तय है कि तालिबान का नया सुप्रीम लीडर याकूब ही होगा, इसमें अब कोई शक की गुजांइश नहीं है। तालिबान की तिजोरी की चाभी याकूब के पास ही है। हालांकि तालिबान का पूरा हिसाब किताब मुल्ला उमर के पास ही था। उसकी मौत के बाद लेकिन पिछले कुछ सालों से तालिबान की आय काफी गिर गई थी। जब दो साल पहले मोहम्मद याकूब ने तालिबान का आतंकी कारोबार संभालना शुरु किया, उसके बाद से तालिबान की आमदनी में काफी इजाफा हुआ।

“याकूब काफी जल्दी में है। वो चाहता कि तालिबान किसी पर आश्रित नहीं रहे।” और यही वजह है कि याकूब ने तालिबान की काली कमाई में न केवल इजाफा करवाया, बल्कि उस पर पकड़ और मजबूत कर ली।

“अब उसके नेतृत्व को किसी भी तरह का खतरा नहीं होगा। तालिबान पर पूरी तरह से कब्जा है उसका..आर्थिक, राजनीतिक और सैन्य शक्ति पर। याकूब को इंतजार है अमेरिकी सेना की वापसी का। उसे पता है कि अमेरिका की मौजूदगी में ताकत के बल पर काबुल पर तालिबान का कब्जा मुश्किल है।”

रिपोर्ट के कहना है कि हालांकि याकूब मौजूदा बातचीत के हक में है लेकिन यह एक चाल हो सकती है। यह भी साफ नहीं है कि मौजूदा तालिबान के नेताओं में कितने उसके वफादार हैं। हालांकि यह सभी उसके पिता के वफादार थे। लेकिन वे किस हद तक उसके बेटे पर भरोसा करते हैं, यह कहना मुश्किल है।

2015 तक याकूब का नाम शायद ही किसी ने सुना था। पहली बार उसका नाम तब सामने आया, जब उसके पिता की मौत के बाद उसे तालिबान में डिप्टी कमांडर बनाया गया था। लेकिन उसके बाद उसका ओहदा और रुतबा दोनों बढ़ता गया। 2016-17 में तालिबान के संगठन में उसने फाईनेशिंयल कमीशन बनाया, जिसका उद्देश्य था सिर्फ मुनाफा कमाना।

य़ूएन की रिपोर्ट भी नाटो रिपोर्ट से अलग नहीं है। उसके मुताबिक तालिबान की कमाई पिछले 5 सालों में 300 मिलियन से बढ़कर 1.5 अरब डॉलर हो चुकी है। सबसे ज्यादा मुनाफा ओपियम और हेरोईन की तस्करी से आता है। दुनिया में हेरोईन का 90 फीसद हिस्सा हेलमंद प्रांत से आता है, जिस पर तालिबान का कब्जा है। वहां का हर किसान इस धंधे में है। तालिबान के कब्जे वाले हेलमंद में 2012 में 1 लाख 57 हजार हेक्टेयर इलाके में अफीम की खेती होती थे, आज वहां 3 लाख 44 हजार हेक्टेयर में अफीम की खेती हो रही है। यही नहीं वहां के किसानों ने सोलर पॉवर के जरिए यहां की पैदावार बढ़ा दिया है। जानकारों का मानना है कि याकूब , तालिबान की नई पीढ़ी का नेता है और उसे मालूम है कि धन के बगैर किसी भी संगठन का कोई अस्तित्व नहीं है।

अफगानिस्तान के मादक पदार्थ निरोधी मंत्रालय के कार्यकारी मंत्री दीन मुहम्मद मुबारेज रशीदी का कहना है, “तालिबान और अल-कायदा किसानों को अफीम की खेती के लिये प्रोत्साहित करते हैं। पॉपी और पाकिस्तान, तालिबान की कमाई के सबसे बड़े जरिये हैं। ड्रग्स के कारोबार में पाकिस्तान का भी हिस्सा है। अमेरिका और उसके सहयोगी देशों ने इस कारोबार को खत्म करने की काफी कोशिश की  लेकिन नाकाम रहे।”

विश्व की 90 फीसद हेरोइन अफगानिस्तान से दुनिया के बाजारों में पहुंचती है। यह बात संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में कही गई। अफगानिस्तान में तालिबान का शासन भले ही चला गया हो, लेकिन अफीम की खेती बदस्तूर जारी है।अफीम की तीन-चौथाई खेती उन इलाकों में हो रही है जो सरकार के नियंत्रण से बाहर हैं।

मुल्ला मोहम्मद याकूब की परवरिश पाकिस्तान में आईएसआई के संरक्षण में हुई है। जाहिर है अब पाकिस्तान उसका इस्तेमाल कर रहा है। एक सोची-समझी रणनीति के तहत याकूब ने अफगानिस्तान सरकार पर हमला जारी रखा है। अफगानिस्तान सरकार का मानना है कि तालिबान के पीछे पाकिस्तान ही है।

इससे बड़ा विरोधाभास क्या हो सकता है। एक तरफ तालिबान और अफगान सरकार के बीच शांति की बातचीत की कोशिश हो रही है तो दूसरी तरफ तालिबान और अफगानी सेना के बीच मुठभेड़ जारी है। तालिबान ने युद्ध विराम की पेशकश को अनसुना कर दिया है। शांति की बातचीत से पहले अमेरिका और तालिबान समझौते के तहत अफगान सरकार को तालिबान के 5000 से भी ज्यादा लडाकू छोड़ने पड़े थे। अब यह सारे तालिबानी गिरोह का हिस्सा बन गए हैं। हालांकि समझौते की शर्तों में यह भी है कि रिहा किए गए तालिबानी हथियार नहीं उठाएंगे।

शोधकर्ता हमीद हकीमी का कहना है, “अमेरिका और तालिबान का यह कैसा समझौता है, जिसमें अफगानिस्तान सरकार पक्ष नहीं है। तालिबान लगातार सभी शर्तों की अनदेखी कर रहा है, उस पर कैसे भरोसा किया जा सकता है। मोहम्मद याकूब की सोच इस्लामिक स्टेट की है जहां डेमोक्रेसी, मानवाधिकार, महिलाओं के अधिकार मायने नहीं रखते हैं। एक बार अमेरिका यहां से चला गया तो फिर तालिबान के पुराने दिन वापस आने में देर नहीं लगेगी।”

पिछले एक सप्ताह में तालिबान ने अफगानिस्तान के सुरक्षाकर्मियों पर 18 हमले किए हैं। सरकार का कहना है कि जब तक तालिबान की तरफ से युद्ध विराम नहीं होता, परस्पर विश्वास कैसे बन सकता है। रक्षा मंत्रालय के प्रवक्ता फवाद अमान का कहना है कि “हमें लगा था कि बातचीत शुरू करते समय तालिबान युद्ध विराम घोषित करेगा, लेकिन यहां तो हमले बढ़ते जा रहे हैं।”

तालिबान के प्रवक्ता जबीबुल्लाह ने एक बयान जारी कर अफगानिस्तान को चेतावनी दी है कि हमले नहीं रूकेंगे। यही वजह है कि पिछले 12 सितंबर को दोहा में शुरू हुई तालिबान और सरकारी टीमों के बीच शांति की बातचीत औपचारिक तौर पर शुरु नहीं हो पायी है। दोनों पक्षों का कहना है कि अनौपचारिक बातचीत के जरिए पहले एक दूसरे पर भरोसे का माहौल तो बना लें। मौजूदा हालात में यही सबसे बड़ी मुश्किल है कि कैसे, कौन किस पर भरोसा करे?.