पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई समर्थिक आतंकवादी और जिहादी कश्मीर घाटी में कश्मीरी पंडितों का सफाया कर रहे थे, जिसे अब पीरियड डॉक्यूमेंट्री फिल्म 'कश्मीर फाइल्स' द्वारा सामने लाया गया है। पाकिस्तानी पत्रकार आरिफ जमाल ने अपनी किताब 'शैडो वॉर: द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ जिहाद इन कश्मीर' के मुताबिक, अमेरिका से मिले अकूत पैसे, हथियारों का जखीरा और अफगानिस्तान में पाकिस्तान आधारित अफगान मुजाहिदीन की जीत, जिसके कारण 1989 में अफगानिस्तान से तत्कालीन सोवियत सेना की अपमानजनक वापसी हुई थी, उनकी वजह से आईएसआई ने कश्मीर में जिहादियों के माध्यम से अपने कश्मीर एजेंडे को आगे बढ़ाया।
यह भी पढ़ें- White House में रोजाना गूंज रहा 'मोदी-मोदी' का नाम, भारत के रुख को लेकर टेंशन में Biden
आईएसआई के पासा पैसों की कोई कमी नहीं थी, क्योंकि अमेरिका ने अपना खजाना पाकिस्तान के लिए खोल रखा था और भारत की लाख अपील के बाद भी अमेरिका 'चुप' रहा। ये अमेरिका का भारत को लेकर 'डबल' गेम था। अफगानिस्तान युद्ध में सोवियत संघ को हराने के लिए अमेरिका हर हद पार कर रहा था और अमेरिकी खजाने से पाकिस्तान के ऊपर रुपयों की बारिश हो रही थी। जिसका खुलासा साल 2022 में उस वक्त हुआ है, जब पाकिस्तान के तानाशाह रहे जिया उल हक का पसंदीदा और तत्कालीन आईएसआई चीफ अख्तर अब्दुर रहमान खान को अमेरिका की तरफ से अवैध तरीकों से 30 लाख अमेरिकी डॉलर ट्रांसफर किए गये थे।
यह भी पढ़ें- PM Modi से मिलने भारत आ रहे चीन के विदेश मंत्री! लद्दाख पर बनेगी बात?
अफगानिस्तान युद्ध में अमेरिका की हार के बाद अब जाकर खुलासा हुआ है, कि तत्कानील आईएसआई चीफ अख्तर अब्दुर रहमान खान के तीन बेटों के नाम पर स्विस बैंक में अकाउंट में पैसे जमा थे। हालांकि, साल 1988 में एक विमान दुर्घटना में जनरल खान और जिहादी तानाशाह जनरल जिया उल हक की मौत हो गई थी। तत्कालीन आईएसआई चीफ अख्तर अब्दुर रहमान खान ही वो शख्स था, जिसने कश्मीर घाटी में जिहाद शुरू करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, जिसे बाद में पाकिस्तान की प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो के शासनकाल में भी आगे बढ़ाया गया।
14 सितंबर 1989 को बीजेपी नेता टीका लाल टपलू की हत्या के साथ कश्मीर घाटी मं हत्याओं का सिलसिला शुरू हुआ था और फिर 2 महीने में ही कम से कम 254 कश्मीरी पंडितों की हत्याएं कर दी गईं। 1990 में बड़ी संख्या में हत्याएं मुख्य रूप से सभी कश्मीरी पंडितों के दिलों में दहशत फैलाने के लिए की गई थीं, कि घाटी में रहना या फिर वापसी करना, उनके लिए कोई विकल्प नहीं था। यह 1998 में वंधमा गांव हत्याकांड और 2003 में नदीमर्ग नरसंहार के साथ और भी ज्यादा साफ तौर पर स्पष्ट हो गया, जहां पाकिस्तान से प्रशिक्षित जिहादियों ने कश्मीरी हिंदुओं को लाइन में खड़ा किया और फिर एक एक कर सभी की गोली मारकर हत्या कर दी। इन जिहादियों ने साफ संदेश दिया… घाटी में वापस मत लौटो।
1990 के दशक में कश्मीर में सांप्रदायिक एकता को नष्ट करने के लिए पाकिस्तानी सबसे ज्यादा जिम्मेदार है, लेकिन, उस वक्त वॉशिंगटन और इस्लामाबाद में काफी गहरी दोस्ती हुआ करती थी। अमेरिका 1 अक्टूबर 2001 को जम्मू-कश्मीर विधानसभा पर किए गये हमले तक कश्मीर में आतंकवाद को पहचानने में विफल रहा। पूरे 1990 के दशक में, जब भारी संख्या में कश्मीरी पंडित मारे जारे रहे थे, उनका नरसंहार किया जा रहा था, उस वक्त अमेरिका की सरकार, अमेरिका की मीडिया, पश्चिमी देशो क मीडिया, दुनिया के तमाम मानवाधिकार संगठन…सब खामोश था। लेकिन, जब पहली बार 13 सितंबर 2001 को पहली बार अमेरिका पर हमला हुआ, तो अमेरिका को आतंकवाद के बारे में पता चला।