इस्लाम सऊदी अरब से निकला। कुरान-सुन्नत सीरत या हदीस सऊदी अरब में हुए। सऊदी अरब को सबसे कट्टर इस्लामिक देश भी कहा जाता है। इतना कट्टर कि लोगों की रूह कांप जाती है। इसके बावजूद लोग सऊदी अरब को प्यार करते हैं। सऊदी अरब जाते हैं, वहां रहते और रोजगार करते हैं। सऊदी के कट्टर इस्लामिक शासन के नियम कानूनों को भी मानते हैं।
वहीं दूसरी ओर तालिबान है। तालिबान और आईएसआईएस बीसियों से सालों से दुनिया में खिलाफत लाने का मंसूबा पाले हुए हैं। इराक, सीरिया, लीबिया और अफगानिस्तान जैसे तमाम देशों में मुसलमान, मुसलमानों को ही मार रहे हैं, आतंक फैला रहे हैं उसी इस्लाम के नाम पर जो सऊदी अरब से निकला। जिसका असली कस्टोडियन सऊदी अरब है। तालिबान और आईएसआईएस जैसे आतंकवादी इस्लाम के नाम पर आतंक की सत्ता स्थापित करना चाहते हैं। जबकि सऊदी अरब में काएदे और कानून शरिया की सरकार है।
इतना तो तय है कि तालिबान अनपढ़ नहीं हैं। तो क्या वजह है कि वो सऊदी अरब की तरह इस्लाम की नीतियों को क्यों नहीं अपना रहे। तलवार या बंदूक के बल पर ही लोगों को अपना गुलाम क्यों बनाना चाहते हैं। औरतों के साथ भेड़ बकरियों जैसा सलूक क्यों कर रहे हैं। अफगानिस्तान में तो हद हो गई है। 15 साल से ऊपर की लड़कियों को तालिबान जबरन घरों से ऐसे खींच कर ले जा रहे हैं जैसे भेड़-बकरी को उसके असली मालिक के घर से उसका नया मालिक खींच कर ले जाता है।
सऊदी अरब में तेजी से आ रहे सुधारो को लेकर तालिबान और आईएसआईएस ने आंखें क्यूं मूंद रखी हैं।
दुनिया भर के कट्टरपंथियों को तहजीब का आइना दिखाते हए सऊदी सरकरार ने मक्का मस्जिद में महिला गार्डों की तैनाती की है। ‘मक्का’दुनिया भर के मुसलमानों के लिए सबसे पवित्र स्थान है। तालिबान भी मक्का की ओर मुंह करके ही नमाज पढ़ते हैं। जब आले सऊद हज यात्रियों की हिफाजत और देखभाल के लिए औरतों के तैनाती कर सकता है तो फिर ये तालिबान औरतों के साथ भेड़-बकरियों की तरह बर्ताव कैसे कर सकते हैं। अगर तालिबान को विश्वास है कि अफगानिस्तान या किसी भी अन्य देश के मुसलमान आले सऊद से ज्यादा उन्हें मान्यता देते हैं तो फिर जनमत क्यों नहीं करवा लेते। तलवारें क्यों भांजते है। क्लाशनिकोव क्यों दागते हैं। तालिबान लुटेरो-डकैतों जैसा व्यवहार क्यों कर रहे हैं?
ताज्जुब की बात है कि दुनिया भर के मुसलमान और मुस्लिम देश इन आतंकी तालिबान और आईएसआईएस के खिलाफ आवाज क्यों नहीं उठाते! सरकारों के अपने सियासी फायदे-नुकसान हो सकते हैं लेकिन आम मुसलमान के लिए तो इस्लाम- कुरान, सुन्नत-सीरत और हदीस ही सब कुछ है तो ये आम मुसलमान इस्लाम के खिलाफ चलने वाले तालिबान के खिलाफ आवाज क्यों नहीं उठा रहे? कम से कम भारत-पाकिस्तान और बांग्लादेश के मुसलमान तो तालिबान और आईएसआईएस के खिलाफ आवाज उठा ही सकते हैं? इन सबका ऑरिजन तो एक ही है!
हर साल लाखो-लाख लोग हज-उमरा करने के लिए सऊदी अरब (कोरोना के कारण दो सालों को छोड़ दें तो) आते हैं। अब वो अपनी आंखों से देख रहे हैं कि उनकी हिफाजत और देख रेख पवित्र मस्जिद मक्का में औरतें कर रही हैं। इस साल मक्का में तैनात की गई पहली फीमेल गार्ड का नाम मोना है। मोना को गर्व है कि वो मक्का मस्जिद की हिफाजत के लिए तैयार किए गए फीमेल कमाण्डो ग्रुप का हिस्सा है।
मक्का इस्लाम की पैदाइश की धरती है। यहां वुमन सोल्जर्स की तैनाती इस्लाम में सुधारवादी क्रांति का आगाज है। मोना की तरह बाकी फीमेल कमाण्डो भी मर्दों की तरह यूनिफॉर्म पहनती हैं। मोना कहती है कि मक्का मस्जिद की हिफाजत में तैनाती उसे अपने पिता की याद दिलाती है।
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सऊदी अरब के लोग और आले सऊद, तालिबान-आईएसआईएस या अलकायदा से बड़े 'मुसलमान' हैं। सऊदी अरब, जहां इस्लाम का जन्म हुआ वहां लोगों को आजादी दी जा रही है छीनी नहीं जा रही तो फिर अफगानिस्तान में तालिबान, आईएसआईएस और अलकाएदा जैसे गिरोह आम आवाम की आजादी छीनने की कोशिश क्यों कर रहे हैं? क्या तालिबान ने अपना नया इस्लाम खोज लिया है, क्या उन्हें कोई नई कुरान, सुन्नत, सीरत या हदीस मिल गई है या कोई नया पैगंबर पैदा कर लिया है?